Srimad Bhagavad Gita: श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप से जानें यज्ञ के रूप और सबसे अच्छा यज्ञ

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 31 Mar, 2023 10:01 AM

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दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते। ब्रह्माग्रावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति॥ 4.25॥

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Srimad Bhagavad Gita: दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते। ब्रह्माग्रावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति॥ 4.25॥

अनुवाद एवं तात्पर्य : जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जो व्यक्ति कृष्णभावनाभावित होकर कर्म करने में लीन रहता है, वह पूर्ण योगी है। किन्तु ऐसे भी मनुष्य हैं जो देवताओं की पूजा के लिए यज्ञ करते हैं और कुछ परमब्रह्म या परमेश्वर के निराकार स्वरूप के लिए यज्ञ करते हैं। इस तरह यज्ञ की अनेक कोटियां हैं।

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विभिन्न यज्ञकर्ताओं द्वारा सम्पन्न यज्ञ की ये कोटियां केवल बाह्य वर्गीकरण हैं। वस्तुत: यज्ञ का अर्थ है : भगवान विष्णु को प्रसन्न करना और विष्णु को यज्ञ भी कहते हैं। विभिन्न प्रकार के यज्ञों को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है। सांसारिक द्रव्यों के लिए यज्ञ (द्रव्ययज्ञ) तथा दिव्य ज्ञान के लिए किए गए यज्ञ (ज्ञानयज्ञ)।

जो कृष्णभावनाभावित हैं, उनकी सारी भौतिक सम्पदा परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए होती है, किन्तु जो किसी क्षणिक भौतिक सुख की कामना करते हैं, वे इंद्र, सूर्य आदि देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अपनी भौतिक सम्पदा की आहुति देते हैं। किन्तु अन्य लोग, जो निर्विशेषवादी हैं, वे निराकार ब्रह्म में अपने स्वरूप को स्वाहा कर देते हैं।

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देवतागण ऐसी शक्तिमान जीवात्माएं हैं, जिन्हें ब्रह्मांड को ऊष्मा प्रदान करने, जल देने तथा प्रकाशित करने जैसे भौतिक कार्यों की देखरेख के लिए परमेश्वर ने नियुक्त किया है। भौतिक लाभ चाहने वाले वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार विविध देवताओं की पूजा करते हैं। ऐसे लोग बह्वीश्वरवादी कहलाते हैं।

किन्तु जो लोग परमसत्य के निर्गुण स्वरूप की पूजा करते हैं और देवताओं के स्वरूपों की ही आहुति कर देते हैं तथा परमेश्वर में लीन हो जाते हैं, ऐसे निर्विशेषवादी परमेश्वर की दिव्य प्रकृति को समझने के लिए दार्शनिक चिंतन में अपना सारा समय लगाते हैं।
दूसरे शब्दों में, सकामकर्मी, भौतिक सुख के लिए अपनी भौतिक सम्पत्ति का यजन करते हैं, किन्तु निर्विशेषवादी परब्रह्म में लीन होने के लिए अपनी भौतिक उपाधियों का यजन करते हैं।

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निर्विशेषवादी के लिए यज्ञाग्नि ही परब्रह्म है, जिसमें आत्मस्वरूप का विलय ही आहुति है। किन्तु अर्जुन जैसा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति श्री कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए सर्वस्व अर्पित कर देता है। इस तरह उसकी सारी भौतिक सम्पत्ति के साथ-साथ आत्मस्वरूप भी श्री कृष्ण के लिए अर्पित हो जाता है। वह परमयोगी है, किन्तु उसका पृथक स्वरूप नष्ट नहीं होता।

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