Religious Katha- हर पिता को लेनी चाहिए ‘कुरुराज धृतराष्ट्र’ की इस भूल से सीख

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 16 Jul, 2022 02:16 PM

the story of dhritarashtra

महाराज धृतराष्ट्र जन्मांध थे। वह भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा विदुर की सलाह से राज्य का संचालन करते थे। उन्हें कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान तो था परन्तु पुत्र मोह के कारण बहुधा उनका विवेक अंधा हो जाता था और

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The story of Dhritarashtra: महाराज धृतराष्ट्र जन्मांध थे। वह भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा विदुर की सलाह से राज्य का संचालन करते थे। उन्हें कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान तो था परन्तु पुत्र मोह के कारण बहुधा उनका विवेक अंधा हो जाता था और वह बाध्य होकर दुर्योधन के अन्यायपूर्ण आचरण का समर्थन करने लगते थे। जब दुर्योधन के गलत कार्यों का कुफल सामने आता, तब वह तटस्थ होने का दिखावा करते थे। सत्य और असत्य का विवेक छोड़कर पुत्र पर अंधी वात्सल्य रखने वाले पिता की जो गति होती है, वही गति अंत में धृतराष्ट्र की भी हुई। उन्होंने अपने सौ पुत्रों की अत्यंत दर्दनाक मृत्यु का दुख झेला।

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धृतराष्ट्र परोक्ष रूप से पांडवों से जलते थे। पांडवों के बढ़ते हुए ऐश्वर्य और बल को वह सह नहीं सकते थे। दुर्योधन ने पांडवों को छलपूर्वक नीचा दिखाने के उद्देश्य से उन्हें जुआ खेलने के लिए बुलाना चाहा और धृतराष्ट्र ने बिना सोचे-समझे इसके लिए अनुमति दे दी। 

जब महात्मा विदुर ने जुआ खेलने के दोष और परिणाम बताकर इस दुष्कृत्य का विरोध किया, तब धृतराष्ट्र ने कहा, ‘‘विदुर! यहां मैं, भीष्म तथा सभी लोग हैं। देव ने ही द्यूत (जुए) का निर्माण किया है। इसलिए हम इसमें कुछ नहीं कर सकते। मैं देव को ही बलवान मानता हूं और उसी के द्वारा यह सब कुछ हो रहा है।’’ 

द्यूत में जब द्रौपदी दांव पर रखी गई, तब भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और महात्मा विदुर सहित सारी सभा स्तब्ध रह गए, परन्तु धृतराष्ट्र बहुत प्रसन्न हुए और बार-बार पूछने लगे, ‘‘कौन जीता, कौन जीता?’’ धृतराष्ट्र के लिए इससे बड़ी निंदनीय बात और क्या हो सकती थी। 

यदि सर्वसंहारक महाभारत युद्ध का मुख्य कारण धृतराष्ट्र को मानें तो इसमें कोई गलती नहीं है क्योंकि यदि वह भीष्म पितामह, महात्मा विदुर आदि की बात मान कर दुर्योधन को नियंत्रित करते तो महाभारत के महायुद्ध को रोका जा सकता था। महाभारत के कई स्थलों पर धृतराष्ट्र में मानवता के उत्कृष्ट रूप का भी दर्शन होता है। द्रौपदी के साथ पांडवों के विवाह की बात सुन कर धृतराष्ट्र ने अहोभाग्य! अहोभाग्य!! कह कर आनंद प्रदर्शित किया तथा महात्मा विदुर को भेज कर पांडवों को बुलवाया। पांडवों से मिल कर उनमें आत्मीयता जागृत हुई। 

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उन्होंने युधिष्ठिर से कहा, ‘‘मेरे दुरात्मा पुत्र दम्भ और अहंकार से भरे हैं। वे मेरा कहना नहीं मानते, इसलिए तुम आधा राज्य लेकर खांडवप्रस्थ में निवास करो।’’ 

भगवान श्री कृष्ण ने भी धृतराष्ट्र के इस विचार को सर्वथा उत्तम तथा कौरवों की यशवृद्धि करने वाला बतलाया। सभा पर्व में महाराज धृतराष्ट्र ने द्रौपदी के संदर्भ में दुर्योधन को फटकार और द्रौपदी को सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘बहू द्रौपदी! तुम मेरी पुत्रवधुओं में सर्वश्रेष्ठ और धर्मपरायण सती हो। तुम्हारी जो इच्छा हो मुझसे वर मांग लो।’’ 

यह सुनकर द्रौपदी ने युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव को दासभाव से मुक्त करा लिया। महाराज धृतराष्ट्र भगवान श्री कृष्ण के अंतरंग भक्त भी थे। इसलिए उन्होंने अंधे होते हुए भी भगवत्कृपा से दिव्य दृष्टि प्राप्त करके राज्यसभा में भगवान के दिव्य रूप का दर्शन किया था जो संसार में सौभाग्य से विरले ही प्राप्त करते हैं। 

वह केवल पुत्र मोह में पड़कर दुर्योधन के अन्यायों का निराकरण न करने के कारण ही दोष के भागी बने। युद्ध के अंत में कुछ दिन हस्तिनापुर में रहने के बाद उन्होंने अपने जीवन का शेष समय अपनी पत्नी गांधारी के साथ भगवान की आराधना में व्यतीत किया। महाराज धृतराष्ट्र ने अंत में दावाग्नि में भस्म होकर अपनी अनित्य देह का त्याग किया।

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