धरती पर ये तीन हैं प्रत्यक्ष देव, इनकी कृपा से मिलेगी अप्रत्यक्ष देवों की कृपा

Edited By Punjab Kesari,Updated: 12 Oct, 2017 05:54 PM

these three are the real god on earth

हमारे धर्म शास्त्रों में मनुस्मृति का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है और इसके रचयिता राजऋषि मनु के विचार सर्वमान्य हैं। माता-पिता, गुरुजनों एवं श्रेष्ठजनों को सर्वदा प्रणाम, सम्मान और सेवा करने के संबंध में मनुस्मृति का (2/121) का यह श्लोक अनुकरणीय है-

हमारे धर्म शास्त्रों में मनुस्मृति का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है और इसके रचयिता राजऋषि मनु के विचार सर्वमान्य हैं। माता-पिता, गुरुजनों एवं श्रेष्ठजनों को सर्वदा प्रणाम, सम्मान और सेवा करने के संबंध में मनुस्मृति का (2/121) का यह श्लोक अनुकरणीय है-


अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:। चत्वारि तस्य वद्र्धन्ते आयुर्विद्या यशोवलम्।।


अर्थात वृद्धजनों (माता-पिता, गुरुजनों एवं श्रेष्ठजन) को सर्वदा अभिवादन प्रणाम तथा उनकी सेवा करने वाले मनुष्य की आयु, विद्या, यश और बल ये चारों बढ़ते हैं। 


मनुस्मृति के एक अन्य श्लोक (2/145) में माता-पिता और आचार्य को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।


उपाध्यायान् दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता। सहस्रं तु पितृन् माता गौरवेणातिरिच्यते।

 

अर्थात दस उपाध्यायों से बढ़कर एक आचार्य होता है, सौ आचार्यों से बढ़कर पिता होता है और पिता से हजार गुणा बढ़कर माता गौरवमयी होती है।


उक्त दोनों श्लोकों में माता-पिता, गुरु एवं श्रेष्ठजनों की महिमा स्पष्ट होती है। ये तीनों हमारे प्रत्यक्ष देवता हैं। इसलिए इन विभूतियों की तन-मन-धन से सेवा करना हमारा कर्तव्य है, इनको सदैव संतुष्ट और प्रसन्न रखना ही हमारा धर्म है।


मनुस्मृति के अतिरिक्त हमारे अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी माता-पिता, गुरु एवं श्रेष्ठजनों को पूजनीय माना गया है। इन तीनों को सदैव सुखी रखना ही हम सभी का कर्तव्य है। गरुड़ पुराण (2/21/28-29) में कहा है-


पितृमातृसमंलोके नास्त्यन्यद दैवतं परम्। तस्मात सर्वप्रयत्नेन पूजयते् पितरौ सदा।। हितानमुपदेष्टा हि प्रत्यक्षं दैवतं पिता। अन्या या देवता लोक में देहेप्रभवो हिता :।।


संसार में माता-पिता के समान श्रेष्ठ अन्य कोई देवता नहीं है। अत: सदैव सभी प्रकार से अपने माता-पिता की पूजा करनी चाहिए। हितकारी उपदेश देने वाला होने से पिता प्रत्यक्ष देवता है। संसार में जो अन्य देवता हैं, वे शरीरधारी नहीं हैं। इन प्रत्यक्ष देवताओं की सदैव पूजा करना अर्थात सेवा करना और सुखी रखना ही हमारा सर्वोपरि धर्म है।


श्री वाल्मीकि रामायण में भी माता-पिता और गुरु को प्रत्यक्ष देवता मानकर सेवा और सम्मान करने का उपदेश दिया गया है। इस विषय में निम्र दो श्लोक दृष्टव्य हैं-

 

अस्वाधीनं कथं दैवं प्रकारैरभिराध्यते। स्वाधीनं समतिक्रम्य मातरं पितरं गुरुम्।। यत्र त्रयं त्रयो लोका: पवित्रं तत्समं भुवि। नान्यदस्ति शुभाङ्गे तेनेदमभिराध्यते।।


भगवान श्री राम सीता जी से कहते हैं कि हे सीते! माता-पिता और गुरु ये तीन प्रत्यक्ष देवता हैं, इनकी अवहेलना करके अप्रत्यक्ष देवता की आराधना करना कैसे ठीक हो सकता है? जिनकी सेवा से अर्थ, धर्म और काम तीनों की प्राप्ति होती है, जिनकी आराधना से तीनों लोकों की आराधना हो जाती है, उन माता-पिता के समान पवित्र इस संसार में दूसरा कोई भी नहीं है। इसलिए लोग इन प्रत्यक्ष देवता (माता-पिता, गुरु) की आराधना करते हैं।
 

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