परेश रावल की 'द ताज स्टोरी' साबित होगी भारतीय सिनेमा के ऐतिहासिक कोर्टरूम ड्रामा का लैंडमार्क

Updated: 17 Sep, 2025 03:30 PM

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सिनेमाई कोर्टरूम हमेशा केवल कानूनी लड़ाई के मंच नहीं होते, ये ऐसे स्थान होते हैं जहां नैतिकता, न्याय और सामाजिक चेतना एक साथ टकराती हैं और दर्शकों के सामने एक नई तस्वीर पेश करती हैं।

नई दिल्ली/टीम डिजिटल। सिनेमाई कोर्टरूम हमेशा केवल कानूनी लड़ाई के मंच नहीं होते, ये ऐसे स्थान होते हैं जहां नैतिकता, न्याय और सामाजिक चेतना एक साथ टकराती हैं और दर्शकों के सामने एक नई तस्वीर पेश करती हैं। इस 31 अक्टूबर, 2025 को दर्शकों को साल के सबसे चुनौतीपूर्ण और प्रभावशाली कोर्टरूम ड्रामा 'द ताज स्टोरी' का सामना करने को मिलेगा। इस फिल्म में प्रमुख भूमिका में हैं दिग्गज अभिनेता परेश रावल, और इसमें ज़ाकिर हुसैन, अमृता खानविलकर, स्नेहा वाघ और नामित दास जैसे कलाकारों का भी दमदार अभिनय देखने को मिलेगा।

हालांकि 'द ताज स्टोरी' को खास बनाता है इसका साहसिक विषय, जिसमें इतिहास को अदालत के कटघरे में खड़ा किया गया है। इस फिल्म में केंद्रीय प्रश्न उठाया गया है कि ताज महल का निर्माण किसने किया? यह फिल्म एक सशक्त सिनेमाई बहस के रूप में सामने आती है, जो इतिहास और न्याय के बीच के जटिल रिश्ते को उजागर करती है।

ऐसे में आइए एक नज़र डालते हैं उन कोर्टरूम ड्रामा फिल्मों पर, जिन्होंने भारतीय सिनेमा को आकार दिया और गहरे सामाजिक संदेश दिए।

दामिनी
वर्ष 1993 में रिलीज हुई राजकुमार संतोषी की फिल्म 'दामिनी' 1990 के दशक की एक यादगार फिल्म बन चुकी है, जहां फिल्म का सबसे यादगार पल है सनी देओल का कोर्टरूम में "तारीख पे तारीख" का गुस्से से भरा डायलॉग कहना। फिल्म की कहानी दामिनी (मीनाक्षी शेषाद्री) की है, जो अपने ससुरालवालों द्वारा एक घरेलू महिला के साथ हुए बलात्कार को देखकर चुप नहीं रहती। यह फिल्म न केवल महिलाओं के अधिकारों की बात करती है, बल्कि सत्य को दबाने के सामाजिक दबाव को भी उजागर करती है। दामिनी एक ऐसी क्लासिक फिल्म बन गई, जो भावनात्मक गहराई और एक ऐतिहासिक कोर्टरूम सीन को जोड़ती है।

पिंक
वर्ष 2016 में रिलीज हुई शुजित सरकार की 'पिंक' को केवल एक फिल्म के तौर पर नहीं देखा जा सकता, बल्कि यह एक सामाजिक आंदोलन है, जहां अमिताभ बच्चन ने एक थके, किंतु तीव्र कानूनी दिग्गज की भूमिका निभाई थी, जो एक रात बाहर जाने के बाद झूठे आरोपों में फंसी तीन युवतियों का बचाव करते हैं। फिल्म का केंद्रीय विषय है सहमति, और बच्चन का वह संवाद "नो मिन्स नो" भारतीय समाज में लैंगिक समानता पर एक महत्वपूर्ण बयान बन चुका है। इस फिल्म का कोर्टरूम सीन यथार्थवादी और प्रभावशाली था, जिसने सभी पर अपनी छाप छोड़ी।

मुल्क
वर्ष 2018 में रिलीज हुई अनुभव सिन्हा की 'मुल्क' एक साहसी फिल्म है, जो धार्मिक भेदभाव और पहचान के मुद्दे को अदालत के कटघरे में लाती है। फिल्म में ऋषि कपूर ने एक मुस्लिम परिवार के प्रमुख की भूमिका निभाई है, जो आतंकवाद के आरोप में फंस जाता है। इस फिल्म में इस फिल्म में तापसी पन्नू ने उसकी हिन्दू बहू की भूमिका निभाई है, जो उनका बचाव करने के लिए अदालत में खड़ी होती है। यह फिल्म यह सवाल उठाती है कि क्या एक व्यक्ति की गलतियों के कारण पूरे समुदाय को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। 'मुल्क' ने बिना डरे हुए कहानी के साथ समाज के ज्वलंत मुद्दों को सामने रखा और आलोचकों से खूब सराहना प्राप्त की।

ओ माय गॉड! 
वर्ष 2012 में रिलीज हुई फिल्म 'ओ माय गॉड!' परेश रावल और अक्षय कुमार द्वारा अभिनीत भले ही एक पारंपरिक कोर्टरूम ड्रामा न हो, लेकिन इस फिल्म में अदालत को एक मंच के रूप में उपयोग करते हुए धर्म और अंधविश्वास को जिस तरह चुनौती दी गयी है, वो इस फिल्म को ख़ास बनाती है। उमेेश शुक्ला द्वारा निर्देशित यह फिल्म स्व-घोषित 'भगवानों' के खिलाफ अदालत में पेश किया गया ऐतिहासिक पन्ना है, जिसने भारत में धार्मिक संस्थाओं और अंधविश्वास के खिलाफ एक मजबूत सवाल उठाया। यह फिल्म सही मायनों में मनोरंजन के साथ-साथ विचारशील संदेश भी देती है।

शाहिद
वर्ष 2012 में रिलीज हुई हंसल मेहता की 'शाहिद' एक गहरे व्यक्तिगत कोर्टरूम ड्रामा का ज्वलंत उदाहरण है, जो असली जीवन के मानवाधिकार कार्यकर्ता शाहिद आज़मी पर आधारित है। राजकुमार राव ने शाहिद की भूमिका निभाई, जिनके कोर्टरूम दृश्य बेहद सटीक और अप्रत्याशित थे। इस फिल्म में उन्होंने दिखाया है कि किस प्रकार न्याय अक्सर पक्षपाती बन जाता है। 'शाहिद' सिनेमा के लिए एक शक्तिशाली गवाही है, जो कानून और मानवता के बीच के रिश्ते को उजागर करता है।

जॉली एलएलबी
वर्ष 2013 में रिलीज हुई फिल्म 'जॉली एलएलबी' की खासियत यह है कि इस फिल्म में कोर्टरूम ड्रामा के साथ व्यंग्य और हंसी का समावेश बेहद खूबसूरती से किया गया है। इस फिल्म ने भारतीय न्याय प्रणाली की भ्रष्टाचार और खामियों पर तीखा कटाक्ष किया, और इसके साथ ही मनोरंजन का स्वाद भी दिया। अरशद वारसी ने इस फिल्म में जगदीश त्यागी के रूप में एक महत्वाकांक्षी वकील की भूमिका अदा की है, जो एक भ्रष्ट न्याय प्रणाली से लड़ने का प्रयास करता है। 'जॉली एलएलबी' ने यह साबित किया कि कोर्टरूम ड्रामा सिर्फ गंभीर नहीं, बल्कि व्यंग्य और मनोरंजन का भी अद्भुत मिश्रण हो सकता है।

फिलहाल जैसे-जैसे 'द ताज स्टोरी' रिलीज़ के करीब आती जा रही है, यह देखना दिलचस्प होगा कि यह फिल्म भारतीय सिनेमा में कोर्टरूम ड्रामा की इस समृद्ध परंपरा में क्या नया जोड़ती है। हालांकि इसमें दो राया नहीं है कि परेश रावल की दमदार उपस्थिति और इसका साहसिक विषय दर्शकों को एक नए दृष्टिकोण से इतिहास और न्याय को देखने का अवसर प्रदान करेगा। यह फिल्म न केवल एक कानूनी लड़ाई की कथा होगी, बल्कि यह न्याय, सत्य और समाज के बीच के रिश्ते पर भी गहरी चर्चा करेगी।

 

 

 

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