Edited By vasudha,Updated: 28 Apr, 2019 10:48 AM
फसल कटाई का मौसम है। खेतों में ज्यादातर महिलायें ही काम करती दिखायी देती हैं। यहां महिलायें ही किसान, महिलायें ही बटाईदार तथा महिलायें ही खेतिहर मजदूर। इन दिनों सभी गेंहू की फसल काटने में व्यस्त हैं...
नेशनल डेस्क: फसल कटाई का मौसम है। खेतों में ज्यादातर महिलायें ही काम करती दिखायी देती हैं। यहां महिलायें ही किसान, महिलायें ही बटाईदार तथा महिलायें ही खेतिहर मजदूर। इन दिनों सभी गेंहू की फसल काटने में व्यस्त हैं। यहां के ज्यादातर पुरुष खेतों में नहीं दिखते क्योंकि नौकरी की तलाश के खातिर वे दिल्ली, कलकत्ता तथा मुंबई जैसे शहरों में गये हुए हैं अथवा पंजाब व हरियाणा जैसे राज्यों में जाकर खेतों में काम करते हैं।
मिथिला कोसी सीमांचल क्षेत्र में बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 20 इसी क्षत्र में हैं। इस इलाके में ज्यादातर लोग लघु किसान अथवा मजदूर है। युवा पुरुषों के बाहर होने के कारण ज्यादातर घरों में खेती किसानी काम करने के लिए महिलायें ही खेतों पर जाती हैं। यहां जो थोड़े किसान मध्यम व बड़ी जोत रखते हैं उनकी अलग समस्या है। उन्हें खेतों में काम करने के लिए ज्यादातर महिला मजदूर ही मिलती हैं। क्योंकि युवा आसपास के शहरों में पढ़ाई करने तथा पुरुष रोजगार की तलाश में गांव से बाहर रहते हैं। दरभंगा से 15 किमी दूर ननौरा गांव की रहने वाली लालो देवी बताती हैं कि परिवार के सभी मर्द दिल्ली मुंबई में नौकरी करने गये हैं। अब सारी खेती वे खुद कराती हैं।
पास के गांव भैरियाही की सुनैना बताती हैं कि गांव में मजदूरी करके तथा कलकत्ता में काम कर रहे पति से मिलने वाले पैसों से वे बच्चों का पालन पोषण कर रही हैं। दुर्भाग्य से यह दोनों ही महिलायें न्यूनतम आय योजना के तहत 6000 रुपये सालाना पाने के लिए अपात्र है। गांव से पलायन कर रहे पुरुषों की यह कहानी दरंभगा के ननौरा तथा भैरियाही गांव तक ही सीमित नहीं है। पूरे इलाके में हजारों लाखों परिवारों का यही किस्सा है। मधुबनी, समस्तीपुर,स्योहर, झांझरपुर, उजियारपुर, सुपौल, अररिया, मधेपुरा, खगडिया, पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज, भागलपुर, मुंगेर, बेगूसराय, सीतामढ़ी, हाजीपुर और मुजफ्फरपुर संसदीय सीट के इलाके में ज्यादातर लोग भूमिहीन अथवा लघु-सीमांत किसान है।
झांझरपुर निवासी ओम प्रकाश दिल्ली में काम करते हैं। इन दिनों वे अपने बीमार पिता को देखने गांव आए हुए हैं। वे कहते हैं कि दिल्ली या मुंबई में आठ दस हजार रुपये की नौकरी के लिए पूरा परिवार छोड़कर जाना पहुत कष्टप्रद लगता है। दिल्ली में हमारे गांव व जान पहचान के बहुत सारे लोग काम करते हैं। केवल छठ पूजा तथा कुछ लोग ईद के मौके पर ही गांव आते हैं। इन इलाकों में जब तक रोजगार के अवसर नहीं मुहैया कराती पलायन को रोका नहीं जा सकता है।