मुंबई महानगरपालिका चुनाव शिव सेना और भाजपा की रणनीति विफल

Edited By ,Updated: 23 Feb, 2017 11:35 PM

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महाराष्ट्र में देश के सर्वाधिक अमीर नगर निगम बृहन्मुम्बई महानगर पालिका

महाराष्ट्र में देश के सर्वाधिक अमीर नगर निगम ‘बृहन्मुम्बई महानगर पालिका’ (बी.एम.सी.) सहित 10 नगर निगमों, 26 जिला परिषदों और 283 पंचायत समितियों के चुनावों में मतदाताओं ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इन चुनावों में अब तक का सर्वाधिक रिकार्ड मतदान हुआ है। चुनावों में मतदान हेतु लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए एक एन.जी.ओ. ने लोगों की मुफ्त शेव और बालों की कटिंग तक की योजना चलाई। 

‘बृहन्मुम्बई महानगर पालिका’ (बी.एम.सी.) का वार्षिक 37,052 करोड़ रुपए का बजट देश के 16 राज्यों के वार्षिक बजट से भी अधिक है। इन राज्यों में केरल, ओडिशा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड और उत्तराखंड जैसे राज्य शामिल हैं। इस कारण इसके चुनावों में विधानसभा चुनावों जैसी गहमागहमी रहती है तथा इस पर कब्जा करने के लिए प्रत्येक राजनीतिक दल प्रयत्नशील रहता है। 

बी.एम.सी. में अब तक भाजपा-शिवसेना गठबंधन का बहुमत था परंतु दो दशक से अधिक समय तक सहयोगी रहे इन दोनों दलों के संबंधों में खटास के चलते शिवसेना द्वारा भाजपा से गठबंधन समाप्त करने के कारण इस बार दोनों दलों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा। इससे यह चुनाव काफी दिलचस्प हो गया और दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहे थे।शुरूआती रुझानों में बेशक शिवसेना की भारी सफलता के संकेत मिल रहे थे परंतु दोनों पार्टीयां 227 सदस्यों वाले बी.एम.सी. में इस बार 114 का जादुई आंकड़ा छू कर पूर्ण बहुमत पाने में विफल रहीं। 

हालांकि 227 सीटों के नतीजों में शिवसेना ने 84 सीटों पर कब्जा जमाया तथा भाजपा के खाते में 82 सीटें आईं लेकिन अपने दम पर बी.एम.सी. पर कब्जा करने का शिवसेना और भाजपा दोनों का ही सपना अधूरा रह गया। शिवसेना केवल मुम्बई तथा ठाणे में अपना दबदबा कायम रख पाई जबकि अन्य 8 नगर निगमों के चुनावों में भाजपा ने शिवसेना से बेहतर प्रदर्शन करके अपनी स्थिति सुधारने में सफलता प्राप्त कर ली है जबकि पिछली बार भाजपा ने केवल एक नगर निगम की सीट पर ही विजय प्राप्त की थी। 

जहां तक बी.एम.सी. का सम्बन्ध है, इस पर कब्जा करने के लिए शिवसेना को या तो भाजपा से या किसी अन्य दल से गठबंधन करना होगा। राज ठाकरे की पार्टी ‘मनसे’ के साथ गठबंधन भी एक विकल्प हो सकता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में भाजपा के गठबंधन सहयोगियों का तेजी से विस्तार हुआ था और किसी को शिकायत का मौका न देने वाले श्री वाजपेयी ने एन.डी.ए. के सदस्यों की संख्या मात्र 3 से बढ़ाकर 26 तक पहुंचा दी थी। 

परंतु बीमारी के कारण श्री वाजपेयी के सक्रिय राजनीति से हटने के बाद भाजपा के शीर्ष नेतृत्व द्वारा गठबंधन सहयोगियों की उपेक्षा कर देने से इनकी संख्या अब मात्र 3-4 दलों तक सिमट गई है। 

यहां तक कि अपने सबसे पुराने गठबंधन सहयोगियों में से 20 वर्षों से साथ चल रही शिवसेना तथा 17 साल पुराने साथी जद (यू) को भी भाजपा नेतृत्व अपने मनमाने और एकतरफा निर्णय लेने की प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप अपने साथ जोड़ कर नहीं रख पाया। भाजपा  और शिवसेना की आपसी कलह के चलते जहां इन दोनों ही दलों को महाराष्ट्र में सर्वाधिक प्रतिष्ठाजनक माने वाले बी.एम.सी. के चुनावों में अकेले दम पर बहुमत हासिल न कर पाने के कारण निराशा हुई, वहीं दोनों दलों को जग हंसाई का सामना भी करना पड़ा है। 

अत: यदि दोनों दल आपस में मिल कर चुनाव लड़ते तो न सिर्फ उन्हें चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करने का अवसर मिलता बल्कि इनकी प्रतिष्ठा में भी वृद्धि होती और वे जनता का काम बेहतर ढंग से कर पाते। —विजय कुमार 

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