‘दाम्पत्य-विवादों और महिलाओं पर अपराध’ ‘के बारे में अदालतों के चंद निर्णय’

Edited By ,Updated: 14 Apr, 2024 04:50 AM

a few decisions of the courts regarding crimes on women

इन दिनों न्यायपालिका महत्वपूर्ण मुद्दों पर अनेक जनहितकारी निर्णय ले रही है। इसी संदर्भ में देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा हाल ही में सुनाए गए 4 जनहितकारी निर्णय निम्न में दर्ज हैं :

इन दिनों न्यायपालिका महत्वपूर्ण मुद्दों पर अनेक जनहितकारी निर्णय ले रही है। इसी संदर्भ में देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा हाल ही में सुनाए गए 4 जनहितकारी निर्णय निम्न में दर्ज हैं : 

* 2 अप्रैल, 2024 को ‘बांबे उच्च न्यायालय’ ने एक कामकाजी महिला को आदेश दिया कि वह बीमारी के कारण अपने जीवनयापन का खर्च उठाने में असमर्थ अपने पूर्व पति को 10,000 रुपए मासिक गुजारा भत्ता अदा करे। यह फैसला सुनाते हुए ‘न्यायमूर्ति शर्मिला देशणु’ ने कहा,‘‘हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों में शब्द ‘स्पाऊस’ (जीवनसाथी) का उल्लेख है जिसमें पति और पत्नी दोनों आते हैं। महिला ने इस बात से इंकार नहीं किया है कि उसका पूर्व पति अपनी अस्वस्थता के कारण जीवनयापन के लिए आय अर्जित करने में अक्षम है। अत: जब पति अपना गुजारा करने में सक्षम नहीं है और पत्नी की आय का स्रोत है तो वह उसे गुजारा भत्ता देने के लिए जवाबदेह है।’’ 

* 12 अप्रैल को पीड़िता का पक्ष सुने बिना ही उससे बलात्कार करने के आरोपी को जमानत देने के निचली अदालत के आदेश को दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति नवीन चावला ने रद्द कर दिया। 
जमानत का विरोध करते हुए पीड़ित महिला ने कहा कि न तो उसे आरोपी द्वारा जमानत आवेदन की प्रति दी गई और न ही निचली अदालत ने आदेश पारित करने से पहले उसे सुनवाई की तारीख के बारे में सूचित किया तथा बलात्कारी खुला घूम रहा है। न्यायमूर्ति नवीन चावला ने निचली अदालत द्वारा जून, 2022 के जमानत के आदेश को रद्द करते हुए कहा, ‘‘यह सुप्रीमकोर्ट के निर्देशों का उल्लंघन है तथा इससे न्याय की गंभीर हानि होगी। अत: आरोपी 2 सप्ताह के भीतर ट्रायल कोर्ट के समक्ष नई जमानत याचिका दायर करे।’’  

* 12 अप्रैल को ही कर्नाटक उच्च न्यायालय ने 75 प्रतिशत दिव्यांगता वाले व्यक्ति को उसकी अलग रह रही पत्नी को भरण-पोषण का खर्च देने के लिए बाध्य करने से इंकार करते हुए उसकी गिरफ्तारी या उस पर जुर्माना लगाने संबंधी निचली अदालत के आदेश को पलट दिया। न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना की एकल पीठ ने पुरुष की शारीरिक बाध्यता पर जोर देते हुए कहा, ‘‘पति बैसाखी की मदद से चलता है। अत: भरण-पोषण के खर्च का भुगतान करने के लिए उससे रोजगार की उम्मीद करना अव्यावहारिक है।’’ 

* 12 अप्रैल को ही इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति सुरेंद्र सिंह ने एक पुर्नविचार याचिका को स्वीकार करते हुए पति या पत्नी की आय की गणना को लेकर बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा कि :
‘‘दोनों ही पक्ष अपनी वास्तविक आय छिपाने के इच्छुक होते हैं, इसलिए पति या पत्नी की आय की गणना गणित के आधार पर नहीं की जा सकती। लिहाजा अदालतें भरण-पोषण की रकम तय करते हुए पति या पत्नी की आय का अपने तौर पर अनुमान लगाती हैं।’’ इसी के अनुरूप हाईकोर्ट ने पति की मासिक आय का अनुमान 60,000 रुपए मानते हुए पत्नी को प्रति मास 15,000 रुपए और उसके 2 बच्चों को 6000-6000 रुपए मासिक भरणपोषण की राशि का भुगतान करने का आदेश दिया। जबकि इससे पहले मुजफ्फरपुर की फैमिली कोर्ट ने याचिकाकत्र्ता महिला को 7000 रुपए और उसके दोनों बेटों को 2000-2000 रुपए प्रति मास देने का आदेश पारित किया था। इसके विरुद्ध महिला ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। 

दाम्पत्य विवाद में भरण-पोषण के दावों और बलात्कार में पीड़िता के पक्ष को सुने बिना आरोपी को जमानत देने जैसे मामलों से संबंधित उक्त आदेश न सिर्फ जनहितकारी बल्कि न्यायसंगत भी हैं, जिनके लिए उपरोक्त उच्च न्यायालयों के मान्य न्यायाधीश बधाई के पात्र हैं।—विजय कुमार

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