गुजरात में बहुत कम फर्क से होगा हार-जीत का फैसला

Edited By Punjab Kesari,Updated: 04 Dec, 2017 03:03 AM

gujarats decision to win defeat will be very low

गुजरात में जो चुनावी अभियान इस समय नए-नए आयामग्रहण कर रहा है उसमें कौन-कौन से मुद्दे हैं? 22 वर्ष से गुजरात में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का कहना है कि उसके चुनावी अभियान का केन्द्रीय मुद्दा विकास है। ऐसा लगता है जैसे इस शब्द का कापीराइट करवाया...

गुजरात में जो चुनावी अभियान इस समय नए-नए आयामग्रहण कर रहा है उसमें कौन-कौन से मुद्दे हैं? 22 वर्ष से गुजरात में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का कहना है कि उसके चुनावी अभियान का केन्द्रीय मुद्दा विकास है। 

ऐसा लगता है जैसे इस शब्द का कापीराइट करवाया गया हो क्योंकि विकास ऐसी चीज के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है जो केवल भाजपा (और खास तौर पर नरेन्द्र मोदी) के अंतर्गत ही हासिल किया जा सकता है और शेष पाॢटयां जो भी कर रही हैं वे भ्रष्टाचार, परिवारवाद और न जाने कौन-कौन-से वाद हैं। यह सूत्रकारिता बिल्कुल बचकाना किस्म की है। फिर भी इसके बारे में उल्लेखनीय बात यह है कि भाजपा इसी के बूते अपने विरोधियों को ‘खुड्डे लाइन’ लगा रही है।

यदि हम यह मान भी लें कि भाजपा जिस विषय में बोलना चाहती है वह सचमुच विकास ही है (जिसका तात्पर्य यह है कि ऐसे आंकड़ों और ऐसी नीतियों पर चर्चा कर रही है जो आर्थिक और सामाजिक विकास को आगे बढ़ाते हैं) तो भी इस पार्टी का ध्यान कहीं भटक जाता है। यह जानना चाहती है कि राहुल गांधी का मजहब कौन-सा है। प्रधानमंत्री झूठ बोलते हैं और कहते हैं कि कांग्रेस ने हाफिज सईद को जमानत मिलने का जश्र मनाया था। भला इस आरोप का विकास से क्या लेना-देना है? स्वाभाविक है कि कुछ भी लेना-देना नहीं। जहां भाजपा विकास के पक्ष में खड़े होने का दावा करती है, वहीं कांग्रेस को तो यह स्पष्ट नहीं हो रहा कि चुनाव में कौन-सा मुद्दा होना चाहिए। यह तो भाजपा की विकास की बातों की तरह कोई एक ङ्क्षबदू प्रस्तुत नहीं कर रही।

कांग्रेस पार्टी के युवराज राहुल गांधी एक दिन राफेल सौदे में हुए भ्रष्टाचार पर चर्चा करना चाहते हैं (हालांकि इस मामले में उन्हें मीडिया से कोई समर्थन नहीं मिला) और अगले दिन इसके स्थान पर जी.एस.टी. या नोटबंदी का मुद्दा आ सकता है। फोकस की इस कमी का अर्थ यह है कि भाजपा के विरुद्ध यह कोई भली-भांति एकाग्र संदेश नहीं दे पा रहे। मुद्दों के बाद अगली बात है संगठन की। इस मामले में भाजपा एक विराट शक्ति है। यह लोकतांत्रिक जगत में सबसे सशक्त पार्टियों में से एक है।

जमीनी स्तर पर इसकी बहुत व्यापक उपस्थिति है जिसका प्रबंधन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा किया जाता है जोकि विश्व का सबसे बड़ा स्वयं सेवी संगठन (एन.जी.ओ.) है तथा जिसके लाखों सदस्य हैं। वे सभी अत्यंत समर्पित और प्रशिक्षित लोग हैं तथा हाल ही के वर्षों में मोदी के करिश्माई नेतृत्व के कारण वे बहुत अधिक उत्साह से भरे हुए हैं। उल्लेखनीय यह है कि जमीन से जुड़े संघ के कार्यकत्र्ता मोदी के बहुत जबरदस्त समर्थक हैं। गुजरात में मुकाबला कांटे का है इसलिए कोई भी यकीन से यह नहीं कह सकता कि वर्तमान चुनाव में क्या गुजरात में भाजपा की संगठनात्मक बढ़त के कारण मैदान उसके हाथ रहेगा? 

दूसरी ओर चूंकि गुजरात में केवल दो पाॢटयों में ही मुकाबला होता है, ऐसे में जिन्हें भाजपा पसंद नहीं वे केवल कांग्रेस की ही बाट जोह सकते हैं लेकिन यह तो अवश्य ही मानना होगा कि चुनावी अभियान के वर्तमान स्तर पर कांग्रेस में प्रतिस्पर्धा करने जैसी कोई शक्ति दिखाई नहीं देती। कांग्रेस सेवा दल या यूथ कांग्रेस से संंबंधित कांग्रेस के पुराने वर्कर कहीं दिखाई नहीं देते। इसका ढांचा क्षत-विक्षत हो चुका है और अब कांग्रेस उम्मीदवारों की यह व्यक्तिगत जिम्मेदारी है कि वे ऐसी श्रम शक्ति उपलब्ध करवाएं जो इन कामों को अंजाम दे। इस काम के लिए पैसे की जरूरत है और बहुत से कांग्रेस नेता अब चुनावों में पैसा नहीं झोंकते क्योंकि उनकी पार्टी एक के बाद एक बाद चुनाव में पराजित हो रही है। मुद्दों और संगठन दोनों के ही सवाल पर मेरा दृष्टिकोण यह है कि भाजपा बहुत आगे है। ऐसा चाहे कांग्रेस की कमजोरी के कारण हो रहा हो या भाजपा की अपनी मजबूतियों के कारण या फिर दोनों ही कारणों से लेकिन एक बात तय है कि ऐसा हो रहा है। 

तीसरी बात है चुनावी अभियान की रणनीति। भाजपा ने अपना तुरूप का पत्ता यानी खुद प्रधानमंत्री प्रयुक्त किया है और दर्जन भर रैलियों में उन्हें मंच पर उतारा है। पाठकों को शायद यह सुविदित होगा कि अनेक वर्षों से वह केवल हिंदी में ही भाषण करते आ रहे हैं, यहां तक कि गुजरात में भी हिंदी में ही भाषण करते रहे हैं। फिर भी आजकल उन्होंने गुजराती में बोलना शुरू कर दिया है। मुझे ऐसा लगता है कि यह काम करके वह आम लोगों तक अपना संदेश पहुंचाना चाहते हैं। जैसा कि ओपिनियन पोल से जाहिर हो रहा है गुजरात चुनाव में शायद बहुत कम फर्क से हार-जीत का फैसला होगा। मोदी नि:संदेह एक बहुत उच्च पाय के वक्ता हैं और वे जिस ढंग से अपना एजैंडा आगे बढ़ाते हैं, राहुल वैसे करने की क्षमता ही नहीं रखते। जब मोदी कोई बड़ा भाषण करते हैं तो वह आमतौर पर किसी पुराने मुद्दे को नए ढंग से इतनी अच्छी तरह प्रस्तुत करते हैं कि सुर्खियों के लिए तरस रहा मीडिया इसकी रिपोॄटग किए बिना रह ही नहीं सकता। 

एक उदाहरण देखिए : ‘‘मैंने चाय बेची है, लेकिन देश कभी नहीं बेचा।’’ इस तरह की स्पष्ट और सरल सूत्रबंधी किसी नेता के लिए बहुत अनमोल निधि सिद्ध होती है। दूसरी ओर कांग्रेस ने चुनाव का एजैंडा तो क्या तय करना था, यह तो महत्वहीन सी बातों पर अपना बचाव करने को मजबूर है, जैसे कि अहमद पटेल का किसी अस्पताल में न्यासी बनना सही था या नहीं; या फिर राहुल गांधी कैथोलिक हैं या नहीं। फिर भी कांग्रेस ने एक काम पूरी प्रतिस्पर्धात्मक दक्षता से अंजाम दिया है। इसने गुजरात सरकार से असहमत चल रहे तीन बड़े गुटों को गत कुछ महीनों दौरान एकजुट करके चुनावी अभियान में उतारा है। 

हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी एवं अल्पेश ठाकोर क्रमश: पटेलों, दलितों और ओ.बी.सी. क्षत्रियों के नेता हैं। तीनों समूहों की मांगें क्योंकि आपस में टकराती हैं इसलिए उन्हें एकजुट करना कोई आसान काम नहीं था। वैसे कांग्रेस के साथ इन तीनों गुटों का कतारबद्ध होना भी स्वाभाविक नहीं है क्योंकि तीनों ही आंदोलन गैर राजनीतिक होने के साथ-साथ स्वत:स्फूर्र्त भी थे। फिर भी कांग्रेस ने जोड़-तोड़ करके अपने साथ चला दिया। मेरा अनुमान है कि यह मुख्य तौर पर अहमद पटेल की ही कारस्तानी है। इस घटनाक्रम से भाजपा चिंतित है और इसके नेताओं के कई बयानों, खास तौर पर मुख्यमंत्री के बयानों में हम इसकी झलक देख सकते हैं। यह बयान मुख्य तौर पर उक्त गठबंधन को खंडित करने पर लक्षित है। 

सवाल पैदा होता है कि क्या भाजपा को पराजित करना ही काफी होगा। मेरा मानना है कि इस चुनाव के नतीजे इस बात से निर्धारित होंगे कि कितने लोग मतदान के लिए पहुंचते हैं। गुजरात ऐसा राज्य है जहां मतदान प्रतिशत काफी ऊंचा होता है। बेशक भाजपा जनमत सर्वेक्षण में आगे है तो भी इसे अवश्य ही यह सुनिश्चित करना होगा कि इसके समर्थक घरों से निकलें और मतदान करें। यह कोई आसान काम नहीं होगा क्योंकि गुजरात में भाजपा बचाव की मुद्रा में अभियान चला रही है। कांग्रेस आत्मविश्वास से सराबोर हो सकती है। इसका जनाधार बेशक छोटा है तो भी इसके समर्थक भारी संख्या में मतदान के लिए आएंगे क्योंकि वे नाराजगी से भरे हुए हैं। इस नाराजगी की दृष्टि से देखा जाए तो गुजरात चुनाव के असली मुद्दे रोजगार तथा अर्थपूर्ण आॢथक विकास हैं। ये मुद्दे सत्तारूढ़ पार्टी के विरुद्ध जाएंगे, बेशक यह इन्हीं मुद्दों पर चुनाव लडऩे का बहाना क्यों न कर रही हो।-आकार पटेल

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