दम तोड़ती मानवता का ‘विलाप’ कब तक सुनते रहेंगे हम

Edited By Punjab Kesari,Updated: 12 Dec, 2017 04:36 AM

how long will we keep listening to the mourning of humanity

‘‘अपना दर्द तो एक पशु भी महसूस कर लेता है लेकिन जब आंख किसी और के दर्द में भी नम होती हो तो यह मानवता की पहचान बन जाती है।’’ मैक्स अस्पताल का लाइसैंस रद्द करने का दिल्ली सरकार का फैसला और फोर्टिस अस्पताल के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने का हरियाणा...

‘‘अपना दर्द तो एक पशु भी महसूस कर लेता है लेकिन जब आंख किसी और के दर्द में भी नम होती हो तो यह मानवता की पहचान बन जाती है।’’ मैक्स अस्पताल का लाइसैंस रद्द करने का दिल्ली सरकार का फैसला और फोर्टिस अस्पताल के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने का हरियाणा सरकार का निर्णय देश में प्राइवेट अस्पतालों की मनमानी रोकने के लिए इस दिशा में किसी ठोस सरकारी पहल के रूप में दोनों ही कदम बहुप्रतीक्षित थे। इससे पहले इसी साल अगस्त में सरकार ने घुटने की सर्जरी की कीमतों पर सीलिंग लगाकर उसकी कीमत 65 प्रतिशत तक कम कर दी थी। 

इसी प्रकार दिल के मरीजों के इलाज में प्रयुक्त होने वाले स्टैंट की कीमतें भी सरकारी हस्तक्षेप के बाद 85 प्रतिशत तक कम हो गई थीं। एन.पी.पी.ए. पर मौजूद डाटा के मुताबिक अस्पताल इन पर करीब 654 प्रतिशत तक मुनाफा कमाते थे। लेकिन एडमिशन चार्ज, डाक्टर चार्ज, इक्विपमैंट चार्ज, इन्वैस्टिगेशन चार्ज, मैडीकल सर्जीकल प्रोसीजर, मिसलेनियस जैसे नामों पर अब भी मरीजों से किस प्रकार और कितनी राशि वसूली जाती है, फोर्टिस अस्पताल का यह ताजा केस इसका उदाहरण मात्र है। चिकित्सा के क्षेत्र में इस देश के आम आदमी को बीमारी की अवस्था में उसके साथ होने वाली धोखाधड़ी और ‘लापरवाही’ पर ठोस प्रहार का इंतजार आज भी है। 

वैसे तो हमारे देश के सरकारी अस्पतालों की दशा किसी से छिपी नहीं है लेकिन जब भारी-भरकम फीस वसूलने वाले प्राइवेट अस्पतालों से मानवता को शर्मसार करने वाली खबरें आती हैं तो मानव द्वारा तरक्की और विकास के सारे दावों का खोखलापन ही उजागर नहीं होता बल्कि बदलते सामाजिक परिवेश में कहीं दम तोड़ती इंसानियत का रुदन भी सुनाई देता है। एक व्यक्ति जब डाक्टर बनता है तो वह मानवता की सेवा की शपथ लेता है जिसे ‘हिप्पोक्रेटिक ओथ’  कहते हैं। वह अपने ज्ञान के बल पर ‘धरती का भगवान’ कहलाने का अधिकार प्राप्त करता है, लेकिन जब वह ही मानवता की सारी सीमाएं तोड़ दे तो इसे क्या कहा जाए? सवाल तो कई और भी हैं। जो चिकित्सा कभी एक  ‘सेवा’ का जरिया थी, वह पैसा कमाने वाला एक ‘पेशा अर्थात प्रोफैशन’ क्यों और कैसे बन गई? 

वह चिकित्सक जिसे कभी भगवान की नजर से देखा जाता था, आज संदेह की नजर से क्यों देखा जाता है?  वे जांचें जो बीमारी का पता लगाने के उद्देश्य से करवाई जाती थीं आज वे कमीशन के उद्देश्य से क्यों करवाई जा रही हैं? एक मरीज जिसे सहानुभूति की नजर से देखा जाना चाहिए उसे पैसा कमाने का जरिया क्यों समझा जाता है? आखिर हम दम तोड़ती मानवता का विलाप कब तक सुनते रहेंगे। इस देश का एक मिडल क्लास आदमी आखिर क्या करे जब हमारे देश के सरकारी अस्पताल इस स्थिति में हैं नहीं कि वह इलाज के लिए वहां जाए और उसकी आॢथकस्थिति ऐसी नहीं है कि प्राइवेट अस्पतालों में जो रकम इलाज के नाम पर उससे मांगी जाती है उसे वह भुगता पाए। 

क्या जो पैसा इन प्राइवेट अस्पतालों द्वारा फीस और इलाज के नाम पर वसूला जाता है और मरीज के परिजनों द्वारा इतनी बड़ी रकम के लिए असमर्थता जताने के बाद जिस प्रकार का बर्ताव इनके द्वारा मरीजों से किया जाता है यह  किसी भी दृष्टि से उचित ठहराया जा सकता है? आखिर वह जिसके हाथों में किसी के जीवन की डोर को एक बार फिर थाम लेने की ताकत हो, वह इतना कठोर और भावनाशून्य कैसे हो सकता है कि पैसा न मिलने की अवस्था में बिना ई.सी.जी. या फिर अन्य कोई जांच किए बिना ही एक जीवित बच्चे को  ‘मृत’ बताकर पॉलीथीन में लपेट कर उसके परिजन को दे दे? क्या यह पैसे के लालच में एक नन्ही-सी जान की ‘हत्या, एक कोल्ड ब्लडिड मर्डर’ नहीं है जिसे समुचित देखभाल और इलाज से बचाया भी जा सकता था? 

आखिर वह जिसकी तरफ एक माता-पिता अपनी बीमार बच्ची के इलाज के लिए आखिरी उम्मीद की नजर से देखते हैं इतना बेरहम कैसे हो सकता है कि लगभग 15 दिनों तक अस्पताल में ‘इलाज’ के बावजूद जब वह पिता को उसकी बेटी की लाश सौंपता है तो उसे 15,79,000 रुपए का बिल भी थमा देता है? इतनी बेशर्मी कि बच्ची के तन पर पहने कपड़ों के 900 रुपयों के अलावा ‘कफन’ तक के 700 रुपए वसूले जाते हैं? क्या प्रसव कराने वाले ये ‘भगवान’ इस बात को समझते हैं कि एक मां प्रसव पीड़ा का दर्द तो हंसते-हंसते सह लेती है लेकिन अपने बच्चे को खोने की पीड़ा कैसे सहती है यह तो उसका दिल ही जानता है।

क्यों न ऐसे लापरवाह और लालची चिकित्सकों की डिग्री वापस ले ली जाए ताकि समाज में किसी और परिवार का नुक्सान न हो। समय आ गया है कि सरकार लालच में बेकाबू होते जा रहे इन अस्पतालों को मरीजों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और दायित्व जिन्हें वे भूल चुके हैं, कठोर कानूनों के दायरे में लाकर समझाए।-डा. नीलम महेंद्र

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