दो ही मैडल काफी नहीं

Edited By ,Updated: 23 Aug, 2016 01:53 AM

not quite two medal

बैडमिंटन खिलाड़ी पी.वी. सिंधू, पहलवान साक्षी मलिक और जिमनास्ट दीपा करमाकर कुछ समय पहले तक अज्ञात नाम से थे। वे रियो दि ...

(पूनम आई कौशिश): बैडमिंटन खिलाड़ी पी.वी. सिंधू, पहलवान साक्षी मलिक और जिमनास्ट दीपा करमाकर कुछ समय पहले तक अज्ञात नाम से थे। वे रियो दि जनेरियो ओलिम्पिक 2016 में भारतीय दल की सदस्य मात्र थीं। किन्तु इन खिलाडि़यों द्वारा क्रमश: रजत और कांस्य पदक जीतने तथा चौथे स्थान पर आने से उनका जीवन हमेशा के लिए बदल गया और उनका भविष्य स्वर्णमयी बन गया। 

 
साथ ही उन्होंने भारत को भी गौरवान्वित किया है और उन नियमों को पुन: निर्धारित कर दिया कि आने वाले समय में हम इन खेलों को किस दृष्टि से देखेंगे। 125 करोड़ से अधिक देशवासी भारत की बेटियों ‘स्मैशिंग साक्षी, सिंधू, दीपा’ के नारे लगा रहे हैं और सभी लोग उन्हें बधाई दे रहे हैं किन्तु इस क्रम में लोग इस बात को भूल से गए हैं कि ये तीनों युवा बेटियां इस बात को दर्शाती हैं कि युवा भारत किस तरह संघर्ष कर रहा है और किस तरह सफलता की ओर बढ़ रहा है। इनमें धैर्य, दृढ़ निश्चय, आत्मविश्वास और कुछ करने की तमन्ना है। वे अपने सपने जीते हैं और उनको वास्तविकता बनाते हैं। 
 
आज केन्द्र और विभिन्न राज्य सरकारों ने इन खिलाडि़यों के लिए अपने खजाने खोल दिए और उन्हें करोड़ों के ईनाम दिए हैं किन्तु क्या वे इस बात पर विचार करेंगे कि वे किस चीज का समारोह मना रहे हैं। क्या वे इस बात पर खुश हैं कि देश को इन पदकों को प्राप्त करने में 68 वर्ष लगे? सरकार, खेल संघ, खेल अधिकारी तब कहां थे जब इन खिलाडि़यों को उनकी सर्वाधिक आवश्यकता थी? क्या हम इस बात पर खुश हैं कि भारत की बेटियों की ये जीत सरकार और भारतीय ओलिम्पिक संघ के कारण नहीं है या इस बात पर खुश हैं कि प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद इन खिलाडि़यों ने भारत को गौरवान्वित किया है? 
 
जरा सोचिए। पी.वी. सिंधू अपने अभ्यास के लिए प्रतिदिन 56 किलोमीटर की यात्रा करती थी। अपने पिता के स्कूटर के पीछे बैठकर प्रतिदिन 4 बजे सुबह घर से निकलकर पूर्व बैडमिंटन चैम्पियन गोपीचंद के हैदराबाद स्थित प्रशिक्षण केन्द्र पर पहुंचती थी। अगरतला की दीपा करमाकर घातक प्रोडुनोवा वाल्ट का अभ्यास डक्ट टेप पर हैंड सिं्पग की मदद से करती थी। 
 
हरियाणा के मोखरा गांव की साक्षी मलिक ने 12 वर्ष की उम्र में कुश्ती का प्रशिक्षण शुरू कर दिया था और वह भी एक ऐसे राज्य में जहां पर लड़कियों का खेलकूद करना अच्छा नहीं माना जाता था। ललिता शिवाजी बाबर तीसरी भारतीय महिला हैं जो ओलिम्पिकखेलों में एथलैटिक्स के फाइनल में पहुंची हैं। उन्होंने 3000 मीटर की स्टीपलचेज में भाग लिया। 1984 में पी.टी. ऊषा के फाइनल में पहुंचने के बाद ये पहली भारतीय महिला हैं जो एथलैटिक्स के फाइनल में पहुंची हैं। बाबर नंगे पांव अपने घर से दूर कुएं से पानी लेने जाती थी और उसे तब यह कभी एहसास नहीं हुआ होगा कि पानी लाने के लिए दौड़कर जाना महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित सतारा जिले में उनके 17 सदस्यीय परिवार की सहायता करेगा और इस क्रम में गोल्फ खिलाड़ी अदिति अशोक का संघर्ष भी कम नहीं है। 
 
हमारे खेल प्राधिकारी खिलाडि़यों को उन्हीं के भरोसे छोड़ देते हैं। परिवार और खेल प्रशिक्षकों से मिली थोड़ी सहायता ही उनके काम आती है। हमारे देश  में सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी अक्सर समाज के कमजोर वर्गों से हैं। अन्य देशों में खिलाडि़यों को सम्मान मिलता है, उन्हें वित्तीय  सहायता उपलब्ध कराई जाती है और सांस्कृतिक दृष्टि से उन्हें आदर की दृष्टि से देखा जाता है। हमारे अधिकारियों की उदासीनता इस बात से स्पष्ट हो जाती है कि भारतीय खेल प्राधिकरण ने दीपा करमाकर के इस अनुरोध को ठुकरा दिया था कि उनके फिजियो को उनके साथ रियो जाने दिया जाए। 
 
भारतीय खेल प्राधिकरण ने इसे फिजूलखर्ची माना और जब दीपा फाइनल में पहुंची तो फिर उसके फिजियो को रियो भेजा गया। रियो में खेल मंत्रालय द्वारा आयोजित रात्रि भोज में भी खिलाडिय़ों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया गया। भारतीय व्यंजनों की बजाय उन्हें खाने को मूंगफली दी गई। हमारे खेल अधिकारी खेल मंत्री विजय गोयल की खातिरदारी और उनके साथ सैल्फी खींचने में व्यस्त थे। विजय गोयल ने भी देश को शर्मसार किया और उन्हें रियो प्राधिकारियों से चेतावनी मिली कि यदि वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आए तो उनका पास जब्त कर दिया जाएगा। 
 
इससे स्पष्ट है कि भारतीय खेलों की स्थिति अच्छी नहीं है। हमारे नेता, बाबू और खेल संघों के प्राधिकारी तथा खेल अधिकारी खेलों के प्रति उदासीन रहते हैं और जब कोई खिलाड़ी सफलता प्राप्त करता है तो खुश होकर सारा श्रेय लेना चाहते हैं और वे मानते हैं कि मानो यह जीत उनकी भूमिका के कारण हुई है। हमारे देश में सबसे  बड़ी समस्या यह है कि हम खेलों के प्रति गंभीर नहीं हैं। हम खेलों को एक अतिरिक्त कार्य मानते हैं। इसको केवल बातचीत का हिस्सा बनाते हैं और भीड़ मानसिकता के अनुसार अपनी सोच बदल देते हैं। आज अगर बैडमिंटन लोकप्रिय है तो कल हम फिर से क्रिकेट के गुणगान करने लग जाएंगे और सिंधू, साक्षी और दीपा को भूल जाएंगे तथा फिर से धोनी और कोहली के गुणगान करने लग जाएंगे। 
 
इस परिदृश्य में ओलिम्पिक खेलों के प्रति भी उदासीनता बरती जाती है और एक पखवाड़े के आयोजन के बाद फिर इन खेलों को भुला दिया जाता है तथा इस आयोजन में भी यह नेताओं, नौकरशाहों, खेल प्रबंधकों के लिए सर्व सुविधा युक्त अवकाश होता है। प्रत्येक ओलिम्पिक में भारत की यही स्थिति रही है। 
 
देश में खेलों की अवसंरचना बहुत खराब है। खेल परिसंघों में भ्रष्टाचार, अंतर्कलह व्याप्त है। ओलिम्पिक प्रशिक्षण के लिए निर्धारित राशि पता नहीं कहां उपयोग की जाती है। प्रशिक्षण की सुविधाएं बहुत खराब हैं और उपकरण पता नहीं कहां गायब हो जाते हैं और इसका मुख्य कारण खेल प्रबंधन प्रणाली की विफलता और खराब नियोजन है। हैरानी की बात यह है कि 2010 में कॉमनवैल्थ खेलों के लिए बनाए गए विभिन्न स्टेडियमों को खिलाडि़यों के लिए बंद कर दिया गया है जबकि गैर-खेल कार्यक्रमों के लिए इन्हें खोल दिया जाता है। 
 
प्रश्न यह भी उठता है कि जब हमारे विभिन्न खेल परिसंघों पर नेताओं और बाबुओं का नियंत्रण होगा तो फिर आप क्या अपेक्षा कर सकते हैं। ये लोग पंचसितारा उपभोक्तावाद और निहित स्वार्थों में विश्वास करते हैं, ये लोग अच्छे सम्पर्कों वाले होते हैं और इनका खेलों में कोई योगदान नहीं होता अपितु खेल परिसंघों से वे सब कुछ प्राप्त करते हैं। इन खेल परिसंघों के माध्यम से वे अपने अहम की तुष्टी करते हैं, पैसा बनाते हैं और संरक्षण देते हैं। अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धाओं में वे अपने साथ सामाजिक मित्रों को लेकर जाते हैं। खिलाड़ी डॉरमिटरी में रहते हैं और उन्हें प्रतिदिन केवल 25 रुपए का भत्ता मिलता है जबकि हरियाणा के एक मंत्री ने अपनी रियो यात्रा पर एक करोड़ रुपए खर्च किए। 
 
खेल संघों का प्रबंधन भी बहुत खराब है और इनमें भाई-भतीजावाद का बोलबाला है। खेल अधिकारी खेलकूदों में सुधार की बजाय अपने पुन: चुनाव पर ध्यान देते हैं। उन्हें प्रतिभाओं की पहचान व उनको आगे बढ़ाने से कोई लेना-देना नहीं है और आज जो भी खिलाड़ी आ रहे हैं वे अपनी योग्यता और निजी प्रशिक्षण के बल पर आगे आ रहे हैं जबकि जिन देशों के खिलाड़ी भारी संख्या में ओलिम्पिक खेलों में जीत रहे हैं, वहां स्थिति बिल्कुल अलग है। वहां पर खेलों का प्रबंधन 2 श्रेणी के प्रबंधकों द्वारा किया जाता है और निहित स्वार्थी तत्वों को दूर रखा जाता है। इन प्रबंधकों में पहली श्रेणी में पूर्व चैम्पियन होते हैं और दूसरी श्रेणी में खेलकूदों को संरक्षण देने वाले व्यक्ति होते हैं जो इन खेलों से कुछ भी प्राप्त नहीं करते हैं अपितु उन्हें कुछ देते हैं।
 
यदि हम ईमानदारी से इन देशों की प्रणाली अपनाएं और खिलाड़ी की पहचान कम उम्र में करें तो फिर हमारे देश के खिलाड़ी भी स्वत: ही ओलिम्पिक पदक जीतने लगेेंगे। रूस में प्रशिक्षक 3 साल की उम्र से ही तैराकों और जिमनास्टों की पहचान कर लेते हैं। प्रसिद्ध टैनिस खिलाड़ी मोनिका सैलेस ने 3 वर्ष की उम्र से खेलना शुरू कर दिया था और इसका श्रेय उनके प्रशिक्षक को जाता है जिन्होंने इतनी छोटी उम्र में उनकी पहचान कर दी थी। 
 
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि सरकार देश को इस स्थिति से कैसे बाहर निकालेगी और इसकी शुरूआत वह नेताओं और बाबुओं को खेल परिसंघों से अलग करके कर सकती है। खेलकूदों को निहित स्वार्थी तत्वों के शिकंजे से मुक्त कराना, उन्हें कुप्रबंधन, खराब नियोजन आदि से मुक्त कराना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। 
 
इस संबंध में तुरंत कदम उठाए जाने चाहिएं और हमें  स्पष्ट लक्ष्य निर्धारित करने चाहिएं कि हम क्या प्राप्त करना चाहते हैं और कैसे। इन 2 पदकों की विरासत यह होगी कि सभी खेलों और खिलाडि़यों को धन और प्रशिक्षण सुविधाएं उपलब्ध कराई  जाएं और कम उम्र से ही प्रतिभावान खिलाडिय़ों को बढ़ावा दिया जाए। कुल मिलाकर भारत में स्वस्थ खेलकूदों की अत्यावश्यकता है। क्या हम खेलकूदों को स्वच्छ बना पाएंगे या यही स्थिति जारी रहेगी? और यही स्थिति जारी रहेगी तो आगे भी यही हश्र होगा। 
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