भौतिक आंखों से नहीं होते इनके दर्शन, ऐसे करें इनका ध्यान होगी मुक्ति की प्राप्ति

Edited By ,Updated: 04 Jan, 2017 03:22 PM

sri krishna

वेदों में कहीं मुख्य या अभिधावृत्ति के योग से, कहीं गौण या कहीं लक्षणा वृत्ति के योग से, कहीं साक्षात तो कहीं व्यतिरेक वाक्यों से एकमात्र श्रीकृष्ण की ही व्याख्या की गई है।

वेदों में कहीं मुख्य या अभिधावृत्ति के योग से, कहीं गौण या कहीं लक्षणा वृत्ति के योग से, कहीं साक्षात तो कहीं व्यतिरेक वाक्यों से एकमात्र श्रीकृष्ण की ही व्याख्या की गई है।

 

एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्। (श्रीमद् भागवत् 7-3-28)

 

अर्थात पहले जिन अवतारों का वर्णन किया गया है, उनमें कोई-कोई उनके अंश के अंश हैं या कोई-कोई आवेशावतार हैं, किन्तु वृजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण ही स्वयं भगवान हैं।
श्रीमद भगवद गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण को ही परम तत्त्व कहा गया है।

 

मत्तः परतरं नान्यत्किन्चिदस्ति धनन्जय। अथवा वेदैश्च सर्वेरहमेव वेद्यः, इत्यादि। (श्रीगीता 7-7 और 15-15)

 

अर्थात- हे धनन्जय! मुझसे बढ़कर कोई भी तत्त्व नहीं है। सभी वेदों का मैं ही ज्ञातव्य विषय हूं।

 

श्रीगोपालोपनिषद् में कहा गया है --
तस्मात् कृष्ण एव परो देवस्तं ध्यायेत्। तं रसेत् त भजेत् तं यजेत्।
एको वशी सर्वगः कृष्ण ईड्य, एकोपि सन् बहुधा यो विभाति।
त पीठस्थं ये तु भजन्ति, धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्॥ (श्रीगोपाल तापिनी 27 मन्त्र)

 

इसलिए श्रीकृष्ण ही परमेश्वर हैं। उन श्रीकृष्ण का ही ध्यान करो, उनके ही नाम का संकीर्तन करो, उनका ही भजन करो और उनका ही पूजन करो। सर्वव्यापी सर्ववशकर्त्ता कृष्ण ही सभी के एकमात्रा पूज्य हैं। वे एक होकर भी मतस्य, कूर्म, वासुदेव, संकर्षण, आदि अनेक रूपों में प्रकटित हैंं। श्री शुक देव आदि की भांति जो धीर पुरुष उनके पीठस्थित श्रीमूर्ति की पूजा करते हैं, वे ही नित्य सुख लाभ कर सकते हैं। दूसरे कोई भी ब्रह्म-परमात्मा आदि की उपासना से सुख प्राप्त करने में समर्थ नहीं हो सकते।

 

सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। या वेद निहितं गुहायाम। परमे व्योमन्। सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्म्ना विपश्चिता॥ (तै उ 2/7)

 

सत्यस्वरूप, चिन्मय और असीमतत्व ही ब्रह्म है। चित्त्गुहा में अन्तर्यामी रूप में अवस्थित तत्व ही परमात्मा हैं। परव्योम अर्थात् वैकुण्ठ में विराजमान तत्व ही नारायण हैं, जो ऐसा जान लेते हैं, वे 'विपश्चित ब्रह्म' अर्थात परब्रह्म श्रीकृष्ण के साथ सम्पूर्ण कल्याण गुण को प्राप्त करते हैंं।

 

श्यामाच्छबलं प्रपद्ये। शबलाच्छ्यामं प्रपद्ये॥ (छान्दोग्य 8 -13-7)

 

श्रीकृष्ण की विचित्र स्वरूपशक्ति का नाम शबल है। श्रीकृष्ण के शरणागत होकर उस शक्ति के ह्लादिनी-सार भाव का आश्रय करें। ह्लादिनी के सार भाव का आश्रय कर पुनः श्रीकृष्ण के प्रति शरणागत हों। ॠग्वेद संहिता में आरुणेयुपनिषद् के 5वें मन्त्र में कहा गया है -

 

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः।
दिवीव चक्षुराततं विष्णोर्यत् परमं पदम्॥ (7-22-23 ॠक्)

 

पण्डितजन नित्य विष्णु जी के परम पद का दर्शन करते हैं। वह विष्णुपद चिन्मय नेत्रों से दिखलाई पड़ने वाला श्रीकृष्ण रूप परम तत्व हैं।

 

अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम्।
स सघ्रीचीः स विषूचीर्वसान आवरीवर्ति-भूवनेष्वन्तः॥ (ॠग्वेद 7-22-164, सूक्त 37 ॠक्)

 

मैंने देखा एक गोपाल, उनका कभी पतन नहीं है, कभी निकट और कभी दूर, नाना पथों में विचरण कर रहे हैं। वे कभी नाना प्रकार के वस्त्रों से आच्छादित हैं। वे इसी रूप में विश्वसंसार में पुनः आया जाया करते हैं।

 

ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गाओ भूरिशृंगा अयासः।
अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि॥ (1/54  सूक्त 6 ॠक्)

 

तुम्हारे (श्रीराधाकृष्ण) के उन गृहों को प्राप्त करने की अभिलाषा करता हूं, जहां कामधेनुएं प्रशस्त शृंग विशिष्ट हैं और मनोवांच्छित अर्थ को प्रदान करने में समर्थ हैं।

 

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ (वृहदारण्यक, 5 अध्याय)

 

पुर्णरूप अवतारी से पूर्णरूप अवतार स्वयं प्रादुर्भूत होते हैं। पूर्ण अवतारी से लीला की पूर्ति के लिए पूर्ण अवतार निकलने पर भी अवतारों में पूर्ण ही अवशिष्ट रहता है। तनिक भी वह घटता नहीं। पुनः अवतार की प्रकट लीला समाप्त होने पर (जब अवतार, अवतारी में मिल जाता है), तब भी अवतारी की पूर्णता में वृद्धि नहीं होती। इस कारिका में भी कहते हैं,

 

देह-देहि-भिदा-नास्ति धर्म-धर्मि-भिदा तथा।
श्रीकृष्ण-स्वरूपे पूर्णेऽद्व्यज्ञानात्मके किल॥

 

श्रीकृष्ण स्वरूप सच्चिदानन्द-विग्रह में जड़ीय शरीरधारी जीव की भांति देह-देही का तथा धर्म-धर्मी का भेद नहीं होता। अद्वय-ज्ञान स्वरूप में जो देह है, वही देही है, जो धर्म है, वही धर्मी है। श्रीकृष्ण स्वरूप एक स्थान में स्थित मध्यमाकार होने पर भी सर्वत्र पूर्णरूप से व्याप्त है।

 

न सन्दृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्।    
हृदा हृदिस्थं मनसा य एनमेवं विदूरमृतास्ते भवन्ति॥ (श्वेताश्वतर 4-20)

 

इनका रूप प्राकृत इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आ सकता। भौतिक आंखों से उनको कोई देख नहीं सकता है। जो इस हृदय में स्थित पुरुष को विशुद्ध चित्त से ध्यान द्वारा जान लेते हैं, वे ही मुक्ति लाभ करते हैं। वेदों में अनेक स्थानों पर इसी प्रकार से गौण और व्यतिरेक रूप से श्रीकृष्ण का वर्णन है। केवल चित्शक्ति के प्रकाश के समय मुख्य और अन्वयरूप में वर्णन देखा जाता है।

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