कर्म करने से पूर्व ध्यान रखें श्रीकृष्ण की ये बात

Edited By ,Updated: 19 May, 2016 10:51 AM

bhagwad gita

कृष्णभावनाभावित कर्म श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 5 (कर्मयोग) अर्जुन उवाच संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।

कृष्णभावनाभावित कर्म

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 5 (कर्मयोग)

अर्जुन उवाच

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥ 1॥

 

शब्दार्थ :  अर्जुन: उवाच— अर्जुन ने कहा; संन्यासम्—संन्यास; कर्मणाम्—सम्पूर्ण कर्मों के; कृष्ण—हे कृष्ण; पुन:—फिर; योगम्—भक्ति; च—भी; शंससि—प्रशंसा करते हो; यत्—जो; श्रेय:—अधिक लाभप्रद है; एतयो:—इन दोनों में से; एकम्—एक; तत्—वह; मे—मेरे लिए; ब्रूहि—कहिए; सु-निश्चितम्—निश्चित रूप से।

 

अनुवाद : अर्जुन ने कहा हे कृष्ण! पहले आप मुझसे कर्म त्यागने के लिए कहते हैं और फिर भक्तिपूर्वक कर्म करने का आदेश देते हैं। क्या आप अब कृपा करके निश्चित रूप से मुझे बताएंगे कि इन दोनों में से कौन अधिक लाभप्रद है?

 

तात्पर्य : भगवद्गीता के इस पंचम अध्याय में भगवान् बताते हैं कि भक्तिपूर्वक किया गया कर्म शुष्क चिंतन से श्रेष्ठ है। भक्ति पथ अधिक सुगम है क्योंकि दिव्यस्वरूपा भक्ति, मनुष्य को कर्मबंधन से मुक्त करती है। द्वितीय अध्याय में आत्मा तथा उसके शरीर बंधन का सामान्य ज्ञान बतलाया गया है। उसी में बुद्धियोग अर्थात भक्ति द्वारा इस भौतिक बंधन से निकलने का भी वर्णन हुआ है। तृतीय अध्याय में यह बताया गया है कि ज्ञानी को कोई कार्य नहीं करने पड़ते। 

 

चतुर्थ अध्याय में भगवान् ने अर्जुन को बताया है कि सारे यज्ञों का पर्यवसान ज्ञान में होता है किन्तु चतुर्थ अध्याय के अंत में भगवान ने अर्जुन को सलाह दी कि वह पूर्णज्ञान से युक्त होकर, उठ करके युद्ध करे।

 

अत: इस प्रकार एक ही साथ भक्तिमय कर्म तथा ज्ञानयुक्त-अकर्म की महत्ता पर बल देते हुए श्री कृष्ण ने अर्जुन के संकल्प को भ्रमित कर दिया है। अर्जुन यह समझता है कि ज्ञानमय संन्यास का अर्थ है, इन्द्रिय कार्यों के रूप में समस्त प्रकार के कार्यकलापों का परित्याग। किन्तु यदि भक्तियोग में कोई कर्म करता है तो फिर कर्म का किस तरह त्याग हुआ?

 

दूसरे शब्दों में, वह यह सोचता है कि ज्ञानमय संन्यास को सभी प्रकार के कार्यों से मुक्त होना चाहिए क्योंकि उसे कर्म तथा ज्ञान असंगत से लगते हैं। ऐसा लगता है कि वह यह नहीं समझ पाया कि ज्ञान के साथ किया गया कर्म बंधनकारी न होने के कारण अकर्म के ही तुल्य है। इसीलिए वह पूछता है कि वह सब प्रकार से कर्म त्याग कर दे या पूर्णज्ञान से युक्त होकर कर्म करे। 

(क्रमश:) 

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