कहां है परमात्मा का वास?

Edited By ,Updated: 25 Mar, 2015 08:59 AM

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साफ मन में ही परमात्मा का वास होता है। जब तक हम अपने मन को साफ नहीं करते, तब तक परमात्मा के आने का स्थान नहीं बनता। अब देखने वाली बात यह है कि हमारा मन गंदा कैसे होता है। हमारे मन में ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, वैर-विरोध जैसे...

साफ मन में ही परमात्मा का वास होता है। जब तक हम अपने मन को साफ नहीं करते, तब तक परमात्मा के आने का स्थान नहीं बनता। अब देखने वाली बात यह है कि हमारा मन गंदा कैसे होता है। हमारे मन में ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, वैर-विरोध जैसे विकार भरे पड़े हैं। इन विकारों से छुटकारा पाने के लिए हमें अहंकार को छोडऩे की आवश्यकता है और अहंकार को छोडऩे के लिए परमात्मा की इच्छा को मानना जरूरी है।

जैसे ही हम स्वीकार भाव में आ जाते हैं तो हमारा मन साफ होना शुरू हो जाता है। फिर यह शैतान का घर न रहकर परमात्मा का मंदिर बन जाता है। फिर हमें किसी धर्मस्थान पर जाकर पूजा-पाठ करने की आवश्यकता नहीं रहती बल्कि हम अपने मन में ही अपने मीत की छवि देखकर उसकी पूजा करनी शुरू कर देेते हैं। जैसा कि मीरा बाई ने भी बताया है-

तेरे पूजन को भगवान, बना मन मंदिर आलीशान।

यह तो स्वाभाविक बात है कि जब भी हम किसी भी रास्ते पर चलते हैं तो उसमें रुकावटें और कठिनाइयां तो स्वाभाविक रूप से आती ही हैं। हमने इन सबको स्वीकार करना है और इस आशा के साथ आगे बढऩा है कि हम इन रुकावटों और कठिनाइयों से पार निकल जाएंगे। अगर हमारी सोच सकारात्मक होती है तो स्थितियां भी अनुकूल होनी शुरू हो जाती हैं।

हमारा मन हमें बार-बार कठिनाइयों की याद दिलवाकर परेशान करता है और हम हिम्मत हार कर रुक जाते हैं। हमने मन की इस शरारत को समझना है और हिम्मत रखकर निरंतर चलना है। इसी से हमें सफलता मिलेगी और हम अपनी मंजिल तक पहुंच पाएंगे। जब हम आध्यात्मिक मार्ग पर चलते हैं तो इसकी अलग-अलग मंजिलें आती हैं, जिन्हें आध्यात्मिक मार्ग के पद कहा गया है।  

कुल 11 पद बताए गए हैं और प्रेम चौथे पद पर है अर्थात जब हम चलते हैं तो हमें अलग-अलग मंजिलों को पार करना पड़ता है। प्रेम चौथी मंजिल है। एक सांसारिक प्राणी के लिए चौथे पद पर पहुंच जाना ही काफी है क्योंकि जो प्रेम तक पहुंच जाता है, उसका आगे का सफर अपने आप तय होना शुरू हो जाता है। प्रेम धारकर मनुष्य परमात्मा का ही रूप हो जाता है, फिर उसे कुछ और करने की आवश्यकता ही नहीं रहती।

प्रेम हमारे अंदर नवजीवन का संचार करता है परन्तु प्रेम का संचार तभी होता है जब हम अपनी सुरती को बाहर से मोड़कर अंदर की ओर कर लेते हैं। सुरती का काम ऊर्जा देना है। जब सुरती बाहर होती है तो यह हमारे मन को बल देती है और मन सक्रिय होकर अपना खेल खेलता है। जब हम मन से पार निकल कर अपनी सुरती को दिल में ले जाते हैं तो यह हमारे दिल को सबल करती है और हमारी चेतना का विस्तार शुरू हो जाता है। चेतना का विस्तार होते ही हमें अपने अंदर दिव्य शक्तियों के भंडार दिखाई देने लगते हैं और हमारी क्षमताएं जाग जाती हैं। 

फिर हमें पता चल जाता है कि परमात्मा ने हमें कितना श्रेष्ठ जीवन दिया है। हम यह भी जान जाते हैं कि हम शरीर नहीं, मन नहीं बल्कि आत्मा हैं। इस बात का एहसास होते ही हम मन के पार चले जाते हैं। हमारा अहंकार मिट जाता है और प्रेम के रूप में हमारी आत्मा जाग जाती है। हमारे सारे भ्रम और भय मिटने शुरू हो जाते हैं और हम आत्मिक तौर पर जागृत होकर परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं। हम जान जाते हैं कि हमारा होना ही परमात्मा के होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। इस बात का एहसास करना ही दशम द्वार में पहुंचना है।     

                                                                                                                    संकलन : प्रो. जवाहर लाल अग्रवाल

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