कल्हण और उनकी राजतरंगिणी

Edited By Riya bawa,Updated: 30 May, 2020 01:42 PM

kalhan and his royal lady

कल्हण बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। उसका अध्ययन काफ़ी विस्तृत था। राजतरंगिणी में उसने महाभारत और रामायण की घटनाओं का प्रचुर मात्रा में उल्लेख किया है । इन दो महाकाव्यों की तुलना उसने राजतरंगिणी में की है। कल्हण ने कश्मीर के प्राचीनतम पुराण नील मुनि...

कश्मीर का अतीत गौरवशाली रहा है । अपनी इस गौरवशाली और बेजोड़ परम्परा के लिए कश्मीर का इतिहास समूचे भारतीय इतिहास में अपने विशेष महत्त्व रखता है । यह इतिहास जितना प्राचीन है, उतना ही समृद्ध और विविधतापूर्ण भी है । इस अनमोल परम्परा को जिस महापुरुष ने बड़े ही सिलसिलेवार तरीके से लिखकर काल के गर्भ में तिरोहित होने से बचाया है, उसका नाम है कल्हण । कल्हण का यह इतिहास “राजतरंगिणी” कहलाता है । संस्कृत साहित्य में ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य में “राजतरंगिणी” की गिनती एक उच्चकोटि के इतिहास-ग्रंथ के रूप में की जाती है ।

कश्मीर निवासी कल्हण जाति से ब्राह्मण था और उसका जन्म परिहासपुर में हुआ था । “राजतरंगिणी” की रचना कल्हण ने ११४८-११४९ में प्रारंभ की थी । कल्हण के पिता का नाम चम्पक था जो राजा हर्ष (१०८९-११०१) के समय द्वारपति,  मंत्री आदि महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके थे । यह मंत्री-पुत्र कल्हण की प्रखर प्रतिभा और गहरी सूझ-बूझ का परिणाम है कि उसने अपने इतिहास का नाम “राजतरंगिणी” रखा । कल्हण एक कुशल इतिहासकार ही नहीं, एक कुलीन कवि भी था । उसने एक सफल कवि की तरह तरंगिणी अथवा नदी की तुलना राज्य से की है । नदी के जल के समान देश में राजा आते हैं, जाते हैं, किंतु राजसिंहासन खाली नहीं रहता । जल की धारा राज का प्रवाह है जो न कभी सूखता है और न लौटकर ही आता है । तरंगिणी की यह धारा अविछिन्न रूप में बहती रहती है । तरंगिणी की इस धारा को कल्हण के बाद १६ वीं शताब्दी  तक जोनराज, श्रीवर शुक आदि ऐतिहासिक कवियों ने भी सूखने नहीं दिया । उसमें जल बह रहा है, बहता रहेगा-भले ही देशकाल वातावरण के अनुसार उसके रूप-रंग और स्वाद में अन्तर क्यों न पड गया हो । कल्हण के लगभग ३०० वर्ष पश्चात जोनराज ने सन १४७१-१४७२ में राजतरंगिणी लिखी । श्रीवर ने जैनराजतरंगिणी सन १४८६ में कश्मीर के बादशाह जैन उलाबद्दीन बडशाह के समय में लिखी । इसके बाद राजतरंगिणी की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए शुक पंडित ने अपनी राजतरंगिणी सन १५९६ में लिखी । शुक प्राचीन शैली का अन्तिम लेखक था जिसने राजतरंगिणी लिखने की परम्परा का कुशलतापूर्वक निर्वाह किया है ।

कल्हण ने राजतरंगिणी इस उद्देश्य से लिखी थी कि लोग उससे लाभ उठाएं । उसे सुने, उसके पात्रों तथा उसमें वर्णित चरित्रों से प्रेरणा लेकर उन्हें याद रखें । राजतरंगिणी धार्मिक नहीं बल्कि एक राजनैतिक अथवा ऐतिहासिक कथा है । धार्मिक कथा के कारण जिस प्रकार चरित्र विकसित होता है, आत्मा का विस्तार होता है, ठीक उसी प्रकार इस राजनीतिक कथा के कारण राजाओं और देश का चरित्र सुधरेगा, यही कल्हण की मंशा थी । राजतरंगिणी लिखने का कल्हण का दूसरा कारण यह भी था कि उसने अनुभव किया था कि कितने ही कश्मीर के राजा विस्मृति के सागर में डूब गए थे ।कतिपय कवियों की रचनाओं के कारण कुछेक राजाओं की ही स्मृति शेष रह गई थी । कल्हण का मानना है कवि अपनी रचनाओं की वजह से स्वयं जीवित तो रहता ही है, दूसरों को भी जीवित रखता है । राजकीय पदों पर रहने वाले मंत्री, सभासद, सेनानायक सबके सब काल के गाल में समा गए किंतु कल्हण अपनी बेमिसाल और बेजोड़ राजतरंगिणी की वजह से अमर हो गया । कल्हण इसलिए भी जीवित रह गया कि उसने विश्व में भारतीयों को इस कलंक से मुक्त किया कि भारतीयों का इतिहास नहीं है । कल्हण ने कश्मीर के इतिहास को लुप्त होने से बचाया है । हजारों वर्षों के प्राचीन कालीन इतिहास को उसने आज तक जीवित रखा यह उसका हम पर ऋण है ।

पहले कहा जा चुका है कि कल्हण कवि भी था और इतिहासकार भी । इस दृष्टि से “राजतरंगिणी” काव्य और इतिहास का अदभुत सम्मिश्रण है । कल्हण ने इतिहास जैसे शुष्क और नीरस विषय को भी काव्यमय बनाने की कोशिश की है और इसमें वह सफल भी हुआ है । कश्मीर के ही नहीं, भारत के इतिहास में उसका योगदान महत्वपूर्ण है । विलक्षण प्रतिभा के धनी उस महापंडित ने राजाओं के काल, स्थान आदि जो अस्थिर, अनियमित और अनिश्चित थे, स्थिर किए । पाठकों की उद्दात भावनाओं को जागृत किया तथा नीति वचनों का प्रयोग कर अपने काव्य को गरिमायुक्त बनाया ।

कल्हण को अपनी मातृभूमि कश्मीर से बेहद प्यार था । उसकी आत्मा कश्मीर के कण-कण में बसी हुई थी । उसने जहाँ भी कहीं कश्मीर का उल्लेख किया है, वहां उसकी भक्ति और श्रृद्धा पूर्ण गरिमा के साथ प्रकट हुई है । कश्मीर के लिए कल्हण ने माता शब्द का प्रयोग किया है । उसकी देशभक्ति अथवा स्वदेश प्रेम की भावना उस समय पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है, जब भगवन श्रीकृष्ण के मुख से वह कहलवाता है: कश्मीर पार्वती स्वरुप है और वहां का राजा शिव (हर) का अंश है । कश्मीर की अजेय शक्ति पर गर्व करता हुआ कल्हण का एक अन्य स्थान पर कहता है-“कश्मीर पर बल द्वारा नहीं केवल पुण्य द्वारा विजय प्राप्त की जा सकती है । वहां के निवासी केवल परलोक से भयभीत होते है, न की शस्त्रधारियों से.....।”

कल्हण बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। उसका अध्ययन काफ़ी विस्तृत था। राजतरंगिणी में उसने महाभारत और रामायण की घटनाओं का प्रचुर मात्रा में उल्लेख किया है । इन दो महाकाव्यों की तुलना उसने राजतरंगिणी में की है। कल्हण ने कश्मीर के प्राचीनतम पुराण नील मुनि द्वारा रचित ‘नीलमतपुराण’ का विशेष अध्ययन किया था। इसके अलावा ऐसा लगता है कि उसने कालिदास के रघुवंश, मेघदूत, बाण के हर्षचरित आदि का भी अध्ययन किया था । वेद, पुराण, व्याकरण, अर्थशास्त्र, स्मृति, आयुर्वेद का उसका अध्ययन भी कम न था। दामोदर गुप्त के ‘कुट्टनीमतम’ तथा भरत के ‘नाट्यशास्त्र’ का भी उसने अध्ययन किया था। ज्योतिष का भी उसे खासा ज्ञान था। उसने राजा हर्ष की कुंडली राजतरंगिणी में दी है। हर्ष के क्रूर ग्रहों की तुलना उसने धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन से की है।

कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ कश्मीर की प्राचीन सामाजिक और संस्कृति विरासत का बहुमूल्य दस्तावेज है । कल्हण ने प्रत्येक राजा के समय के रीति-रिवाजों, खान-पान, संस्कारों, अंधविश्वासों, जनश्रुतियों, परम्पराओं, शकुन-अपशकुनों का प्रसंग आते ही उल्लेख किया है । नारी के प्रति कल्हण का दृष्टिकोण सम्मानजनक था । नारी को उसने जननी, माता और प्रकृति का अंग माना है । शीलवती नारियों की उसने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है । पुरुष और स्त्री दोनों का समाज में समान स्थान है, यह कल्हण बराबर मानता रहा है । सिंहासन को सुशोभित करने वाली रानियों को उसने ‘प्रजानाम मातरम’ जैसे पूजनीय शब्दों से संबोधित किया है ।

कल्हण स्पष्टवादी था । उसने उत्तरकालीन कश्मीरी नरेशों की भीरुता, पक्षपात, दुराग्रह, कलह, क्षुद्रता, सैनिकों की कायरता, विश्वासघात का खुलकर वर्णन और निंदा की है । ब्राह्मणों के दोषों की भी निंदा की है तथा राजपूतों के शौर्य की प्रशंसा की है। कुल मिलाकर कल्हण एक प्रगतिशील कवि और इतिहासज्ञ था। वह धार्मिक संकीर्णता तथा जातीय असहिष्णुता से ऊपर था ।

उसने घटना चक्रों से व्यापक निष्कर्ष निकाल कर  व्यापक सिद्धांतों को काव्यमयी भाषा में निरूपित किया। कल्हण को विश्वास था कि उसके इतिहास के पठन-पाठन से भविष्य के राजाओं की परम्परा अच्छी होगी । वे आदर्श राजा होगे तथा जनता का मनोबल बढ़ेगा। कल्हण की राजतरंगिणी को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने विश्वसाहित्य का एक मूल्यवान ग्रंथ स्वीकार करते हुए उसे राजनीतिक, सामाजिक तथा कुछ हद तक आर्थिक सूचनाओं का भंडार माना है । उनके अनुसार राजतरंगिणी मात्र इतिहास नहीं बल्कि एक उत्तम कलाकृति है । कश्मीर के प्रजावत्सल शासक जैनुलाबद्दीन (बडशाह) (१५वीं शताब्दी) ने इस अनुपम इतिहास-ग्रंथ का फारसी में अनुवाद कराया था ।

बाद में शहंशाह अकबर के आदेश पर अबुल फजल ने अपनी ‘आई-ने-अकबरी’ में इस ग्रंथ के कई सारे विवरण समाविष्ट किए । विदेशी विद्वान मूरक्राफ्ट जब १८२३ में कश्मीर आया तो वह इस ग्रंथ की एक प्रति अपने साथ ले गया । जिसका बाद में फ्रेंच भाषा में एम. ट्रोयर ने अनुवाद किया । १९०० में डॉ. स्टेन ने राजतरंगिणी का प्रामाणिक पाठ अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रकाशित कराया । आगे चलकर १९३५ श्री आरएस पंडित ने ‘राजतरंगिणी’ का एक और अनुवाद प्रस्तुत किया। अंग्रेजी भाषा में किए श्री पंडित के इस अनुवाद का मुख्य लक्ष्य कल्हण की काव्यगत विशेषताओं को उजागर करना था । हिन्दी में ‘राजतरंगिणी’ का सुन्दर अनुवाद करने वालों में सर्वश्री गोपीकृष्ण शास्त्री, श्रीराम तेज शास्त्री तथा डॉ. रघुनाथ सिंह के नाम उल्लेखनीय है । इन में डॉ. रघुनाथसिंह का अनुवाद सटीक ही नहीं, ज्ञानगर्भित और प्रमाण-पुष्ट भी है।

 (डॉ० शिबन कृष्ण रैणा) 

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