13 कजाखस्तानी बच्चों को लग गए नए ‘कान’

Edited By ,Updated: 21 Feb, 2020 06:31 AM

13 kazakhstan children get new ears

ठाणे के श्री महावीर जैन अस्पताल की तीसरी मंजिल का गलियारा कजाखस्तान से आए बच्चों तथा उनके अभिभावकों से भरा पड़ा है। ये अभिभावक भारत के बारे में चर्चा करते नजर आए। इन बच्चों को देख कर यह जान पाना मुश्किल लगता है कि सभी की सर्जरी की गई है। इन सबका...

ठाणे के श्री महावीर जैन अस्पताल की तीसरी मंजिल का गलियारा कजाखस्तान से आए बच्चों तथा उनके अभिभावकों से भरा पड़ा है। ये अभिभावक भारत के बारे में चर्चा करते नजर आए। इन बच्चों को देख कर यह जान पाना मुश्किल लगता है कि सभी की सर्जरी की गई है। इन सबका जन्म बाहरी कान के बिना हुआ था और इस अस्पताल में इनके कानों की सर्जरी कर नए कान लगाए गए। ऐसी हालत को वैज्ञानिक तौर पर माइक्रोशिया-एटरेशिया के नाम से पुकारा जाता है। यह ज्यादातर मध्य एशियाई देशों में व्याप्त है। इन देशों के करीब 10 हजार बच्चे सर्जरी के इंतजार में हैं। 

आनुवांशिक दोष से पीड़ित इन बच्चों के अभिभावकों ने माइक्रोशिया एंड एटरेशिया कजाखस्तान पब्लिक एसोसिएशन के नाम से एक एन.जी.ओ. का गठन किया हुआ है। एक अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रैंस के दौरान एन.जी.ओ. की चेयरपर्सन मल्लिका सुल्तान ने 2017 में डा. आशीष भूमकर से मुलाकात की थी। एन.जी.ओ. का कहना है कि जब सुल्तान ने डा. भूमकर से इस उपचार की लागत के बारे में विचार-विमर्श किया तो तब भूमकर ने बताया कि पहले बच्चों को सर्जरी से लाभ प्राप्त करने दो, उसके बाद देखेंगे। पैसों के बारे में बाद में चर्चा होगी। डाक्टर की ऐसी बात ने अभिभावकों का दिल छू लिया। ऐसी सर्जरी के लिए डा. भूमकर इकलौते भारतीय प्रशिक्षित डाक्टर हैं। उन्होंने कजाखस्तान की कई बार यात्रा की। ऐसे दोष वाले बच्चों की वह 40 सर्जरियां कर चुके हैं। 

यह पहला मौका है कि कजाखस्तान से अभिभावकों का समूह भारत में विशेष सर्जरी हेतु आया है। कुल 14 बच्चों में से 13 की सर्जरी की गई, जबकि एक बच्चे की हृदय की बीमारी के चलते सर्जरी नहीं की जा सकी। सर्जरी वाले सबसे छोटे बच्चे की आयु मात्र अढ़ाई वर्ष है जबकि अधिकतम आयु वाला बच्चा 17 वर्ष का है। कजाखस्तान में सर्जरी करने वाले प्रशिक्षित डाक्टरों की कमी है। बच्चों की सर्जरी के अलावा डा. भूमकर ने कुछ ई.एन.टी. सर्जन्स को भी ट्रेंड किया है। सर्जरी के लिए रोगी की पसलियों में से नरम हड्डी निकाली जाती है तथा कान का बाहरी हिस्सा इससे बनाया जाता है। इसे कई चरणों में किया जाता है। 16 वर्षीय रोगी नियाज की मां गुलनारा का कहना है कि उसका बेटा सुन नहीं सकता था। स्कूल में उसके बेटे को शिक्षकों के निकट बैठाया जाता था। उसे चश्मा भी लगा था मगर सहारे के लिए उसके पास कान नहीं था। इसलिए रबड़ बैंड के सहारे वह चश्मा लगाता था। 

कुछ अभिभावकों ने कहा कि उनके बच्चे आनुवांशिक दोष से पीड़ित हैं। वहीं गुलनारा अपने आपको कोसते हुए कहती है कि आखिर प्रैगनैंसी के दौरान उनसे क्या चूक हो गई कि उसके बच्चे को यह हालत देखनी पड़ी। बच्चों की सुनने की क्षमता भी कम है तथा वे दिखने में भी दूसरे बच्चों से भिन्न हैं। 17 वर्षीय एलज्रिम अब खुश है कि वह अपने दोस्तों की तरह ही दिखेगी और उनकी तरह हैडफोन तथा झुमके भी पहनेगी। इन सबका खर्चा डा. भूमकर ने वहन किया है। 15 बच्चों का अगला बैच अप्रैल में भारत आएगा। 

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