अमरीका का अफगानिस्तान से जाना तालिबान के हित में

Edited By ,Updated: 23 Apr, 2021 01:03 AM

america s departure from afghanistan in interest of taliban

अफगानिस्तान में सब कुछ फिर से चौराहे पर है। रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण इस देश ने तालिबान तथा बाहरी ताकतों जैसे विभिन्न आतंकवादी समूहों से आजादी की तलाश में एक बहुत भारी कीमत चुकाई है। काबुल में लगभग 20 वर्षों तक वाशिंगटन की उपस्थिति ने सामान्य...

अफगानिस्तान में सब कुछ फिर से चौराहे पर है। रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण इस देश ने तालिबान तथा बाहरी ताकतों जैसे विभिन्न आतंकवादी समूहों से आजादी की तलाश में एक बहुत भारी कीमत चुकाई है। काबुल में लगभग 20 वर्षों तक वाशिंगटन की उपस्थिति ने सामान्य अफगानियों में कुछ आशा जगाई कि एक दिन वे खुद अपने भाग्य के विधाता होंगे।

महिलाओं तथा लड़कियों को शिक्षा के माध्यम से अपने सशक्तिकरण की आशा थी। हालांकि अमरीकी सेनाओं की प्रस्तावित वापसी (आधिकारिक तौर पर 2500) ने काबुल में तालिबानियों के फिर से सत्ता में लौटने का डर पैदा कर दिया है, जिससे कि स्वतंत्रता तथा बेहतर जीवन की आशाएं समाप्त हो जाएंगी। अमरीकी सेनाओं के अतिरिक्त नाटो की कमान में काम कर रहे हजारों गठबंधन सैनिकों के भी अमरीकियों के साथ वापस लौटने की संभावना है, इससे पहले से ही लडख़ड़ाती गनी सरकार और भी अनिश्चितता की स्थिति में पहुंच गई है। एक बार अमरीकियों के चले जाने के पश्चात अशांत देश में सत्ता का संतुलन तालिबानों के पक्ष में चला जाएगा। अफगानिस्तान के लोगों को अभी भी तालिबान शासन की याद है जब इनका 1996 से 2001 तक अफगानिस्तान पर नियंत्रण था। तालिबानियों के निर्दयी शासन में महिलाओं के नौकरियां करने तथा शिक्षा ग्रहण करने पर प्रतिबंध था। इसने अफगान महिलाओं को वस्तुत: उनके ही घरों में कैदी बना दिया था।

यह 20 वर्ष पूर्व अफगानिस्तान में अमरीकी नीतियों तथा रणनीतियों की असफलता को दर्शाता है जिन्होंने वहां के लोगों को स्वतंत्रता तथा अपने खुद के भाग्य विधाता बनने के सपने दिखाए थे। अब हर आशा मिट्टी में मिल गई है। अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अमरीका की सबसे लम्बी लड़ाई खत्म करने तथा 11 सितम्बर से पहले-पहले  काबुल से सेनाएं वापस बुलाने का फैसला किया है। अफगास्तिान पर तालिबानियों के नियंत्रण में कोई समय नहीं लगेगा। परिणामस्वरूप काबुल अपने दशकों पुराने खूनी इतिहास की पुनरावृत्ति देखेगा।

निश्चित तौर पर अमरीका को इसका भारी मूल्य चुकाना पड़ा है। गृह युद्ध में इसने 2400 से अधिक सैनिक गंवा दिए। ब्राऊन यूनिवॢसटी के ‘कॉस्ट्स ऑफ वॉर प्रोजैक्ट’  के अनुसार सैनिक खर्चे भी 2.26 खरब डालर से अधिक हो गए हैं। काबुल में अमरीका द्वारा शून्य उपलब्धि प्राप्त करने की यह एक बहुत बड़ी कीमत है।राष्ट्रपति बाइडेन की घोषणा के अफगानिस्तान के  विभिन्न  क्षेत्रों  पर  दूरगामी  प्रभाव  होंगे।  सबसे पहले तो यह वस्तुत: तालिबान तथा अफगान सरकार के बीच प्रस्तावित वार्ता पर पूर्ण विराम लगा देगा। दूसरे, इससे अमरीकी विदेश मंत्री एंटनी ङ्क्षब्लकेन के अफगानिस्तान में शांति के एक अध्याय को शुरू करने के कूटनीतिक प्रयास समाप्त हो जाएंगे।

अब सब कुछ अव्यवस्थित हो गया है। अपने नए जोश में तालिबान युद्ध मैदान में झंडे गाडऩे को लेकर विश्वस्त हैं। हम अच्छी तरह से जानते हैं कि तालिबान का मनोबल बहुत ऊंचा है। यह चुनाव की राजनीति में विश्वास नहीं करता है। यह चुनावों को ‘गैर-इस्लामिक’, राष्ट्रपति अशरफ गनी की अफगान सरकार को अमरीका की ‘कठपुतली’ कहता है। निश्चित तौर पर राष्ट्रपति बाइडेन अफगानिस्तान छोडऩे के लिए घरेलू दबाव में हैं। उनके आलोचक अफगानिस्तान के वैश्विक आतंकवाद की प्रजनन स्थली  के रूप में उभरने की आशंका व्यक्त कर रहे हैं। यहां तक कि कश्मीर की स्थिति को ध्यान में रखते हुए भारत के सामने भी इस विषय में ङ्क्षचतित होने के कारण हैं।

पाकिस्तान की अपनी कार्य योजना है। ऐसा ही चीन के साथ भी है। पेइङ्क्षचग बैल्ट एंड रोड इनीशिएटिव के अंतर्गत अफगास्तिान में व्यापक आॢथक स्रोत झोंक सकता है। अफगानिस्तान में हाजरा समुदाय के साथ संबंधों के चलते ईरान इस क्षेत्र में काफी सक्रिय है। जहां तक भारत की बात है, इसे नए सिरे से रणनीति बनानी होगी क्योंकि काबुल में 20 वर्षों तक कारजेई तथा गनी सरकार  के साथ इसके घनिष्ठ संबंधों के समाप्त होने की संभावना है।

इन परिस्थितियों में भारत को पाकिस्तान, ईरान तथा अन्य क्षेत्रीय ताकतों के हितों को मद्देनजर  रखते हुए एक अति सक्रिय रणनीतिक भूमिका निभानी होगी। नि:संदेह अफगानिस्तान एक बार फिर से अनिश्चितता तथा उथल-पुथल की एक दुखद दास्तान है।     

-हरि जयसिंह

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