‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ लेकिन क्यों

Edited By ,Updated: 23 May, 2015 01:30 AM

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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार का एक वर्ष पूरा होने जा रहा है। इस एक वर्ष में अनेक योजनाओं की शुरूआत हुई,

(पूरन चंद सरीन): प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार का एक वर्ष पूरा होने जा रहा है। इस एक वर्ष में अनेक योजनाओं की शुरूआत हुई, घोषणाएं की गईं और जनमानस में यह विश्वास पैदा करने की कोशिश हुई कि ‘घबराओ मत, सरकार तुम्हारे साथ है।’

इन्हीं घोषणाओं में एक योजना है ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’। कन्या के जन्म को हमारी आबादी का एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी अभिशाप मानता है, उसके जन्म पर खुशी मनाना तो जैसे कोई अनोखी बात हो और उसे ‘बोझ’, ‘पराया धन’ जैसे अलंकारों से सजाना घर-घर की कहानी है।
 
ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का आधार क्या है? इसका सीधा मतलब यही नहीं है कि बेटी असुरक्षित है, अशिक्षित है, इसलिए उस पर इतनी दया तो की ही जाए कि सरकार उसे एक पहचान दिला दे और समाज उसका अस्तित्व स्वीकार कर ले। इस बात पर इसलिए और भी विचार करने की जरूरत है कि बेटी के जन्म लेते ही उसके मां-बाप केवल उसके लिए ही नहीं बल्कि उससे शादी करने वाले उसके पति के लिए भी रुपए-पैसे इकठ्ठा करना शुरू कर देते हैं, जिसे दहेज कहते हैं।
 
दहेज की बलिवेदी
बेटी बच भी गई, पढ़-लिख भी गई और ऊंचे पद पर भी पहुंच गई, फिर भी उसका पिता उसकी शादी उसके बराबर की हैसियत वाले लड़के के साथ लड़के की शिक्षा से लेकर उसके पालने-पोसने तक का खर्चा दिए बिना नहीं कर सकता। पिछले दिनों बहुत ही वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी ने अपनी मार्मिक कथा यूं कही, ‘मेरी 3 बेटियां हैं, एक आई.ए.एस. होकर डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट के पद पर है, दूसरी आई.ए.एस. की परीक्षा दे रही है, वह भी चुन ली जाएगी, तीसरी अभी कालेज में है।
 
मैंने कहा ‘यह तो बहुत अच्छी बात है’ फौरन जवाब मिला, ‘आई.ए.एस.  लड़कों की शादी के बाजार में एक से पांच करोड़ तक की डिमांड है बताइए, कहां से पूरा करूं?’ उनकी बात का जवाब कुछ सूझा नहीं लेकिन हकीकत ने अंदर तक झकझोर दिया। आई.ए.एस., आई.पी.एस, आई.एफ.एस., लड़कों के दाम जब इतने अधिक हैं तो फिर बाकी ओहदेदार क्यों पीछे रहें? इंजीनियर दूल्हा एक करोड़, प्रोफैसर, वकील 50 लाख और शेष का प्राइस टैग कम से कम 10 से 15 लाख का तो है ही।
 
दहेज का धन जुटाना
इसका एक दूसरा पहलू भी है। सरकार चला रहे नेता और नौकरशाह सत्ता और पद पर आसीन होते ही यह हिसाब-किताब लगाना शुरू कर देते हैं कि उनकी बेटियों की शादी कैसे होगी, मसलन इतना धन जमा कर लिया जाए, इतना दायरा बढ़ जाए, इतने लोगों पर एहसान कर दिए जाएं कि बेटी की शादी का खर्चा अपने आप निकल जाए।
 
क्या इस बात पर किसी का ध्यान गया है कि नेताओं और अधिकारियों के बच्चों के जन्म से लेकर शादी तक होने वाले अंतहीन खर्चों का बोझ कौन उठाता है? ऐसे कई मंत्रियों और अधिकारियों के विवरण मिल जाएंगे जिनके घरों में होने वाले पारिवारिक समारोहों का खर्चा उनके कृपापात्र व्यापारी से लेकर अधिकारी तक उठाते हैं।
 
अब यह समझना बहुत आसान है कि जो नेता और अधिकारी रिश्वतखोर हैं, भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं, वे इस पैसे का करते क्या हैं? बच्चों को विलासिता के कुंड में डुबकी लगवाने के लिए कौन उन्हें साधन मुहैया कराता है?
 
एक ओर यह स्थिति है जहां पानी की तरह पैसा बहता है, दूसरी ओर गरीब और उसकी बेटी की जिंदगी सरकारी मदद की आस में ही बीत जाती है। सरकारी मदद से गरीब की बेटी पढ़-लिख गई, नौकरी भी पा ली लेकिन शादी कैसे होगी, यह सोचने का विषय है? हमारे देश में ऐसे परिवार विरले ही हैं जो बिना दहेज लिए अपने लड़के की शादी करने की बात कहें।
 
दूसरा यह है कि अपनी जाति-बिरादरी से  अलग हटकर अंतर्जातीय विवाह सम्पन्न हों। यह भी ज्यादातर संभव नहीं लगता क्योंकि एक-दूसरे के रीति-रिवाज, रहन-सहन, बोलचाल इतने अलग होते हैं कि शादी के बाद क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। एक तथ्य और है, वह यह कि दहेज का दानव हालांकि पूरे देश में पाया जाता है लेकिन कुछ राज्यों जिनमें उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान प्रमुख हैं वहां उसके हृष्ट-पुष्ट बने रहने की संभावनाएं असीमित हैं।
 
जिन राज्यों में दहेज प्रथा सबसे ज्यादा प्रचलित है, वहां के निवासी यदि उन राज्यों में अपनी बेटियों के विवाह की संभावनाएं तलाशें जहां दहेज न के बराबर है, तब इस कुप्रथा का अंत होने की उम्मीद की जा सकती है, बशर्ते कि हम एक-दूसरे की रस्मों और रीति-रिवाजों का सम्मान करते हुए उन्हें भी अपना लें। यह एक सच्चाई है कि हमारे देश में लड़कियों के मुकाबले लड़कों की संख्या हमेशा से ज्यादा रही है तो फिर लड़कियों की हालत इतनी खराब क्यों है?
 
कहने को हमारे देश में दहेज विरोधी कानून है लेकिन उसकी परवाह कितनों को है क्योंकि दहेज लेने वाले और देने वाले को ही इस कुप्रथा को जारी रखने में कोई एतराज नहीं है। कानून का इस्तेमाल ज्यादातर मामलों में इस बात के लिए किया जाता है; जब दहेज को लेकर वर पक्ष से मनमुटाव हो जाए या वधू पक्ष दहेज का वायदा करने के बाद मुकर जाए या फिर तलाक के समय वर पक्ष से दहेज में दी गई चीजों के वापस करने की मांग की जाए।
 
क्या उन दबंग और समर्थ लोगों से तहकीकात करने की हिम्मत किसी में है कि उनके पास बेटी की शादी में पानी की तरह बहाने के लिए धन कहां से आया। क्या वर्तमान सरकार कोई ऐसा कानून बना सकती है जिसमें  ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की नीति पर चलते हुए कोई परिवार सुखपूर्वक अपनी बेटी को घर गृहस्थी का सुख दिलाने योग्य बन सके?
 
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