‘युद्धा’ के रूप में जहरीले कीड़ों का प्रयोग

Edited By ,Updated: 29 May, 2015 11:45 PM

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भारत युद्ध हेतु अपने हथियारों को बना पाने में इतना असफल रहा है कि मैं आश्चर्यचकित हो जाती हूं कि हम अपने पड़ोसियों से लोहा लेने के लिए नूतन तरीकों को ढूंढना प्रारंभ क्यों नहीं करते।

(मेनका संजय गांधी): भारत युद्ध हेतु अपने हथियारों को बना पाने में इतना असफल रहा है कि मैं आश्चर्यचकित हो जाती हूं कि हम अपने पड़ोसियों से लोहा लेने के लिए नूतन तरीकों को ढूंढना प्रारंभ क्यों नहीं करते। हम पर एक ओर पाकिस्तान व चीन हमला करते हैं, बंगलादेशी बिना रुके हमारे सीमावर्ती जिलों में घुसते चले आ रहे हैं, नेपाल से माओवादी आ रहे हैं, पूर्वोत्तर में म्यांमार से आतंकवादी आ-जा रहे हैं। संभवत: अब समय आ गया है जब हमारी सीमाओं की रक्षा के लिए विदेशी एलोपैथिक के बजाय अनूठे भारतीय आयुर्वैदिक समाधानों पर ध्यान दिया जाए।
 
वर्ष 2002 में रक्षा मंत्रालय ने रासायनिक हथियारों के रूप में उपयोग किए जा सकने वाले प्राकृतिक पदार्थों की पहचान करने के लिए प्राचीन ग्रंथों के एक अध्ययन का वित्त-पोषण किया था। मैं उस अध्ययन को देखना चाहूंगी और यह जानना चाहूंगी कि क्या वह अभी भी चल रहा है।
 
5वीं सदी में टेसियस नामक एक यूनानी चिकित्सक ने भारत में मिलने वाले एक ऐसे जहर का वर्णन किया था, जो इतना घातक था कि उसकी एक बूंद भी मनुष्य को मार सकती थी। 700 वर्षों तक रोमन तथा यूनानियों ने इस जहर को ढूंढने का प्रयास किया, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका उपयोग भारत के राजाओं द्वारा आत्महत्या या हत्या करने के लिए किया जाता था। इसके पीछे विचार रोमन तीरंदाजों द्वारा इसका उपयोग करना था। 
 
यह माना जाता था कि यह जहर एक छोटे हिमालयी पक्षी डिकैरोन का मल है जिसका आकार एक बड़े अंगूर जैसा होता है। यह खोज सदियों तक जारी रही। किसी ने भी कभी भी इस पक्षी को नहीं देखा परंतु 20वीं सदी में वैज्ञानिकों ने पडेरस बीटल की खोज की जो डिकैरोन के वर्णन के अनुसार ही था। यह बीटल पेडरिन नामक एक बैक्टीरिया को पोषित करता है जो ब्लैक विडो मकड़ी तथा कोबरा के जहर से भी अधिक शक्तिशाली होता है। ये काले तथा संतरी बीटल उत्तरी भारत में पाए जाते हैं और कुछ उड़ भी सकते हैं। भारी वर्षा से बड़े पैमाने पर प्रजनन होता है।
 
चीनियों को सदियों से पडेरस बीटल के बारे में पता था। वे दाद को मारने और टैटुओं को हटाने के लिए इसके स्राव का उपयोग किया करते थे। यद्यपि पडेरस बीटल काटता या डंक नहीं मारता है, पडेरिन नामक मादाओं में पाया जाने वाला एक विष मुख्यत: तब छोड़ा जाता है जब उसे खाल के साथ रगड़ा जाता है, भले ही आंशिक रूप से। 12-36 घंटों के भीतर एक लाल-सा छाला निकल कर आता है जो फोड़ा बन जाता है। खुजली तथा पपड़ी दो से तीन सप्ताह तक रहती है और शरीर के अन्य भागों में भी फैल जाती है। भारत के गांवों में वे इस कीड़े के संपर्क में आने से बचते हैं क्योंकि इसकी हत्या करते समय स्राव से पस से भरे हुए घाव बन जाते हैं जिन्हें भरने में महीनों लगते हैं और अत्यधिक दर्द देते हैं। 
 
क्या यह बीटल ही एकमात्र ऐसा कीड़ा है, जिसका उपयोग हथियार के रूप में किया जा सकता है। मध्य अमरीका में बुलेट चींटी पैरापोनेरा क्लावाटा पाई जाती है। प्रत्येक चींटी लगभग .7 से 1.2 इंच की होती है और एक मोटी, लाल-काली, पंख रहित ततैया जैसी लगती है। शमिट स्टिंग पेन इंडैक्स के अनुसार इस कीड़े के डंक से होने वाला दर्द विश्व में सबसे दर्दनाक होता है। 
 
पीड़ितों के अनुसार 24 घंटे तक रहने वाला दर्द गोली लगने के समान होता है इसलिए इसका नाम बुलेट रखा गया है। डंक में पोनेराटॉक्सिन नामक एक अवरुद्ध कर देने वाला न्यूरोटॉक्सिन होता है। ब्राजील में एक जनजाति चींटियों का उपयोग मर्दानगी की रस्म के लिए करती है, जिसमें कोई लड़का चींटियों से भरे हुए दस्ताने को दस मिनट तक अपने हाथ में पहनता है। यह क्रिया समाप्त होने पर लड़के का हाथ और उसकी बाजू का कुछ हिस्सा अस्थाई रूप से पक्षाघात से ग्रसित हो जाते हैं और कुछ दिनों तक वह अनियंत्रित होकर कांपता रहता है।
 
जापानी  जाएंट  हॉरनेट  (वेस्पा  मैंडारीनिया जपोनिका) युद्ध खेलों हेतु एक अन्य उम्मीदवार हो सकता है। आपके अंगूठे के आकार का यह कीड़ा मांस को गला देने वाला जहर छोड़ सकता है। इस जहर में एक ऐसा फैरोमोन भी होता है जो छत्ते के प्रत्येक ततैये को बुला कर  आपको  डंक  मरवाता है।  वे  कितने  शक्तिशाली  होते  हैं?  तीस वेस्पा जपोनिका  हॉरनेट  30,000 मधुमक्खियों के छत्तों को उखाड़ कर उन सभी को मार सकते हैं। 
 
अफ्रीकी मधुमक्खी (एपिस मेल्लीफेरा स्कूटलाटा) एक पागल मानव वैज्ञानिक का आविष्कार है जिसने यूरोप तथा अफ्रीका की मधुमक्खियों की संकर प्रजाति विकसित की थी। दक्षिणी तथा उत्तरी अमरीका में पाई जाने वाली ये प्रजातियां लाखों की संख्या में झुंड बना कर घूमती हैं, पागलपन की हद तक अपने क्षेत्र की रक्षा करती हैं, बेतुकी हसक होती हैं और कुछेक हजार लोगों की मृत्यु का कारण बनी हैं। ये जंगल या रेगिस्तान में रह सकती हैं।
 
आर्मी या सोल्जर चींटी (एसीटन ब्रूचेल्ली) अमेजन बेसिन में रहती है परंतु इसके उप-परिवार एशिया और अफ्रीका में रहते हैं। प्रत्येक चींटी की लंबाई आधा इंच होती है जिसका जबड़ा काफी बड़ा, शक्तिशाली और चाकू जैसा तथा सिपाही चींटी की लंबाई का आधा होता है। उन्हें ‘सेना’ चींटियां इसलिए कहा जाता है क्योंकि एक मिलियन कीड़ों तक उनकी समूची कालोनी एक चल बटालियन होती है। वे अन्य चींटियों की तरह स्थाई घोंसले नहीं बनातीं। वे एक स्थान पर अस्थाई रूप से रानी द्वारा अंडे दिए जाने तक रहती हैं और इस दौरान सिपाही भोजन की तलाश में फैले हुए होते हैं, और अपने सामने आने वाले प्रत्येक जीव की हत्या करते हुए उसे खंडित कर देते हैं। 
 
उनके द्वारा घोड़ों के आकार के पशुओं तक को खंडित कर दिए जाने की सूचनाएं मिली हैं। कालोनी के भले के लिए चींटियां आवश्यक होने वाले किसी ढांचे के निर्माण हेतु अपने शरीर का उपयोग करती हैं, मौसम, पुल या नाव के प्रकोप से बचने के लिए एक-दूसरे के साथ चिपक कर रक्षात्मक दीवारें तथा छत बना लेती हैं।
 
ऐसे किसिंग बग्स होते हैं, जो चगास फैलाते हैं, पिस्सू बूबोनिक प्लेग फैलाते हैं और यदि अन्य सभी विफल हो जाएं तो एक ऐसा कीड़ा तो है ही जिसके कारण विश्व में सभी युद्धों से अधिक मौतें हुई हैं- वह है मच्छर।
 
इन कीड़ों से लडऩे के लिए आने  वाली कोई आक्रमणकारी सेना  शीघ्र  ही उल्टे पांव लौट जाएगी। वर्षों से रूसी, जापानी, जर्मन, फ्रांसीसी, अमरीकी तथा ब्रिटिश इस पर प्रयोग कर रहे हैं कि कीड़ों का रक्षात्मक या आक्रमणकारी हथियारों के रूप में कैसे उपयोग किया जाए। क्या हमें इस बारे में नहीं सोचना चाहिए?
 
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