हरियाणा में सत्ताधारी पार्टी के ‘कमजोर जनाधार’ में मजबूती के कोई संकेत नहीं

Edited By ,Updated: 30 Aug, 2015 12:40 AM

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परिस्थितियां कभी भी जड़वत नहीं रहतीं। राजनीति और गवर्नैंस भी इस मामले में कोई अपवाद नहीं। इसका सबसे ताजा-तरीन उदाहरण है

(बी.के. चम)- परिस्थितियां कभी भी जड़वत नहीं रहतीं। राजनीति और गवर्नैंस भी इस मामले में कोई अपवाद नहीं। इसका सबसे ताजा-तरीन उदाहरण है हरियाणा। बेशक अक्तूबर 2014 में सत्तासीन हुई मनोहर लाल खट्टर नीत भाजपा सरकार की कारगुजारी पर कोई फतवा सुनाने के लिए 10 माह की अवधि बहुत कम है। फिर भी सत्तारूढ़ पार्टी की कार्यशैली के साथ-साथ इसकी राजनीति में भी पीछे की ओर फिसलन शुरू होने के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। 

हरियाणा अपनी राजनीतिक अनिश्चितताओं के लिए विख्यात है। राज्य विधानसभा चुनाव में भाजपा की आश्चर्यजनक जीत और खट्टर के मुख्यमंत्री का पदभार संभालने के जल्दी ही बाद पार्टी के अंदर कुछ ऐसे नेताओं ने असहमति के स्वर बुलंद करने शुरू कर दिए जिनका विधानसभा के परिचालन के संबंध में लंबा अनुभव है और जो खुद को मुख्यमंत्री की कुर्सी की पात्रता के दावेदार मानते हैं। 
 
लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने पहली बार विधायक बने खट्टर को पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में व्यक्तिगत पसंद बना लिया तो इस पद के अन्य अभिलाषियों की आशाओं पर पानी फिर गया। इस परिप्रेक्ष्य में खट्टर को पार्टी के अंदर वर्तमान में किसी प्रकार की चुनौती का सामना नहीं। फिर भी सत्तारूढ़ पार्टी की सेहत मुख्यमंत्री के लिए निश्चय ही चिन्ता का विषय होनी चाहिए। 
 
भाजपा के केन्द्रीय और प्रादेशिक नेतृत्व को इस तथ्य के प्रति अवश्य ही सजग होना चाहिए कि हरियाणा में उनकी पार्टी सदा ही हाशिए पर रही है और कभी भी अकेले दम पर सत्ता में नहीं रही। जब भी इस पार्टी के लोगों को मंत्री पदों पर सुशोभित होने का मौका मिला तो ऐसा गठबंधन सरकारों के कनिष्ठ सहयोगियों के रूप में ही हुआ। पार्टी की कमजोर सेहत का मुख्य कारण है इसका कमजोर संगठनात्मक ढांचा और नाममात्र का जनाधार, जोकि गत कई वर्षों से लगातार सिकुड़ता आ रहा है। इन कमियों के बावजूद इसने 2014 के विधानसभा चुनाव में मोदी लहर पर सवार होकर अकेले दम पर बहुमत हासिल किया लेकिन अब मोदी लहर काफी हद तक अपना जलवा खो चुकी है। 
 
प्रदेश में सत्तासीन होने के बाद भी पार्टी के संगठनात्मक ताने-बाने और उस कमजोर जनाधार को मजबूती प्रदान करने के कोई संकेत दिखाई नहीं देते, जिनकी बदौलत इसे सत्तासीन होने में सहायता मिली थी। बेशक भाजपा द्वारा हाल ही में चलाए गए राष्ट्रव्यापी सदस्यता अभियान के दौरान रिकार्ड संख्या में नए सदस्य भर्ती करने के अपुष्ट दावे किए जा रहे हैं, फिर भी पार्टी के संगठन और जनाधार को विस्तार देने के किसी प्रयास के संकेत दिखाई नहीं दे रहे। 
 
इन त्रुटियों के बीच भाजपा केवल इस तथ्य से सांत्वना हासिल कर सकती है कि विपक्षी पाॢटयां भी बुरी तरह अस्त-व्यस्त हैं। चौटाला परिवार के नेतृत्व वाला इनैलो भी प्रभावी नेतृत्व की कमी से जूझ रहा है क्योंकि वोटें बटोरने वाले इसके प्रमुख नेता ओम प्रकाश चौटाला और मजबूत संगठनकत्र्ता अजय चौटाला बदनाम जे.बी.टी. अध्यापक भर्ती घोटाले में 10 वर्ष की सजा भुगत रहे हैं। वरिष्ठ चौटाला और उनके दोनों बेटे अजय और अभय चौटाला  स्रोतों से अधिक सम्पत्ति के मामले में भी गंभीर आरोपों का सामना कर रहे हैं। यदि इस मामले में अदालत का विपरीत फैसला आता है तो इससे इनैलो के खुद में नए प्राण फूंकने तथा निकट भविष्य में प्रदेश की राजनीति में कोई प्रभावी भूमिका अदा करने के प्रयासों पर प्रश्र चिन्ह लग जाएगा। 
 
जहां तक गुटबंदी से त्रस्त कांग्रेस की सेहत का सवाल है, इसके बारे में जितना कम कहा जाए, उतना ही अच्छा है। पार्टी लंबाकार और क्षितिजाकार दोनों ही रूपों में बंटी हुई है। हाल ही में ऐसे संकेत मिले थे कि पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व आपस में लड़ रहे गुटों को एक-दूसरे के विरुद्ध सार्वजनिक रूप में विपरीत टिप्पणियां करने से रोकने के लिए शांति स्थापित करने में सफल हो गया है। लेकिन पार्टी के अंदर फिर से विद्रोह के स्वर सुनाई देने लगे हैं। सक्रिय राजनीति से कुछ माह के ‘अज्ञातवास’ दौरान नई शक्ति से सरोबार होने के राहुल गांधी के दावों के बावजूद वह पार्टी को ‘आई.सी.यू.’ में से बाहर नहीं खींच पाए हैं। 
 
इस बात में तनिक भी संदेह नहीं कि नेहरू-गांधी परिवार के इस युवराज को पार्टी के मामलों में जो शक्ति हासिल है, उसे किसी प्रकार की चुनौती नहीं मिल रही और वह विभिन्न राज्यों में पार्टी का कामकाज चलाने के लिए युवा लोगों पर आधारित नेतृत्व की दूसरी कतार खड़ी करने का प्रयास कर रहा है। लेकिन यदि राहुल गांधी इस भ्रम में हों कि वह राज्य के अनुभवी और सुस्थापित नेताओं की अनदेखी करके अपने उद्देश्य में सफल हो जाएंगे तो यह उनकी बहुत भारी भूल होगी। केवल दो ही उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाएगी : क्या व्यापक जनाधार रखने वाले हरियाणा और पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्रियों भूपेन्द्र सिंह हुड्डा और कैप्टन अमरेन्द्र सिंह, जोकि सार्वजनिक रैलियों में भीड़ जुटा कर इसका प्रमाण दे चुके हैं, के स्थान पर उन लोगों में से किसी को खड़ा किया जा सकता है, जिनको उभारने का राहुल गांधी असफल प्रयास कर रहे हैं? 
 
इनैलो और कांग्रेस के अलावा हरियाणा में व्यापक जनाधार वाली कोई भी ऐसी पार्टी नहीं, जो भाजपा को किसी प्रकार की चुनौती दे सके। कुलदीप बिश्रोई नीत हरियाणा जनहित कांग्रेस पार्टी बेशक हिसार जैसे कुछ छिटपुट क्षेत्रों में अपने जनाधार का दावा करती है लेकिन यह आधार लगातार सिकुड़ता जा रहा है। 
 
खट्टर सरकार के सामने अभी 4 वर्ष का कार्यकाल शेष पड़ा है और इस दौरान चूंकि हरियाणा की कोई भी मुख्यधारा पार्टी इस सरकार को चुनौती देने के योग्य नहीं होगी, ऐसे में कालांतर में यदि इस सरकार की विश्वसनीयता का क्षरण होता है तो यह केवल इसकी घटिया कारगुजारी का ही परिणाम होगा। गवर्नैंस की घटिया गुणवत्ता दो उदाहरणों से ही स्पष्ट हो जाती है कि गहराई तक मगजपच्ची किए बिना और नकारात्मक नतीजों की चिन्ता किए बिना इस सरकार ने कुछ फैसले लिए हैं। 
 
आगामी पंचायत चुनाव लडऩे के लिए पुरुषों के 10वीं कक्षा और महिलाओं के मामले में 8वीं कक्षा पास होने की न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय करने का फैसला भी इसी श्रेणी में आता है। इस फैसले के पीछे कार्यरत इरादा प्रशंसनीय है। लेकिन प्रदेश की जमीनी हकीकतों की अनदेखी करना और स्पष्ट रूप में इसके नतीजों व कार्यान्वयन के संबंध में गहराई से विश्लेषण न करने का परिणाम यह होगा कि इसे ‘तुगलकी’ फैसला कह कर इसकी आलोचना होगी। इसके अलावा भारतीय लोकतंत्र के लिए भी बहुत विडम्बनापूर्ण स्थिति पैदा हो जाएगी क्योंकि इसके न्यूनतम निकायों में तो सदस्य आठवीं और दसवीं कक्षा पास होंगे, जबकि संसद और राज्य विधानसभाओं जैसे शीर्ष प्रतिनिधित्व निकायों में कुछ सदस्य कम योग्यता वाले और यहां तक कि अनपढ़ भी हैं। 
 
हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने कहा है कि पूर्व पंचायत चुनावों के आंकड़ों के मद्देनजर यदि न्यूनतम योग्यता के फैसले को कार्यान्वित किया जाता है तो जनरल कैटागिरी के 60 प्रतिशत पुरुष और 81 प्रतिशत महिला उम्मीदवार चुनाव लडऩे का अधिकार ही खो बैठेंगे। 
 
भाजपा शासन के दौरान एक अन्य विवादित घटनाक्रम जो सामने आया है, वह है राज्यपाल कप्तान सिंह सोलंकी द्वारा रामदेव को डाक्ट्रेट  की उपाधि प्रदान करना। इस मुद्दे पर अनेक लोगों की भौंहें तन गई हैं। रामदेव ने नि:संदेह योग को बहुत लोकप्रिय बनाया है, लेकिन उनकी कुछ कार्रवाइयों और कुछ वरिष्ठ राष्ट्रीय नेताओं के विरुद्ध उनकी टिप्पणियों ने जिन विवादों को जन्म दिया है, उनसे न केवल रामदेव की छवि आहत होगी बल्कि उनको उभारने वाली भाजपा भी दागदार होगी।
 
‘‘कुछ लोग इतिहास का सृजन करते हैं तो कुछ केवल सुर्खियां ही बटोरते हैं।’’ हरियाणा के सत्तारूढ़ अभिजात्य वर्ग को फैसला करना है कि वह किस श्रेणी में खड़ा होना चाहता है? 

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