अयोध्या मामला: करोड़ों लोगों की आस्था का सम्मान हो

Edited By Punjab Kesari,Updated: 01 Dec, 2017 04:08 AM

ayodhya matter honor of the trust of millions of people

6 दिसम्बर को अयोध्या में रामलला को अस्थायी टैंट में बैठे 25 वर्ष पूरे हो रहे हैं। स्वतंत्र भारत में गत 68 वर्षों से संबंधित मामला अदालत में लंबित है। इसी पृष्ठभूमि में सर्वोच्च न्यायालय में अंतिम सुनवाई 5 दिसम्बर से प्रारंभ हो रही है। ऐसे में...

6 दिसम्बर को अयोध्या में रामलला को अस्थायी टैंट में बैठे 25 वर्ष पूरे हो रहे हैं। स्वतंत्र भारत में गत 68 वर्षों से संबंधित मामला अदालत में लंबित है। इसी पृष्ठभूमि में सर्वोच्च न्यायालय में अंतिम सुनवाई 5 दिसम्बर से प्रारंभ हो रही है। ऐसे में स्वाभाविक है कि उन बिन्दुओं पर चर्चा की जाए जो स्थापित रूप से निर्विवाद हैं। चर्चा उन कारणों की भी होनी चाहिए, जिसने विवाद को जन्म दिया। 

इस बात में कोई संदेह नहीं कि भगवान श्रीराम करोड़ों भारतीयों के लिए न केवल आराध्य हैं, अपितु अनंतकाल से देश के आदर्श पुरुष भी हैं। लोगों की अटूट आस्था है कि पूजनीय श्रीराम का जन्म अयोध्या के उसी स्थान पर हुआ, जिसे विकृत सैकुलरिज्म ने आज विवादित बना दिया है। यूं तो गांधी जी का ‘सत्याग्रह’ आंदोलन ‘सत्यमेव जयते’ से प्रेरित रहा, किन्तु उस सत्य को उन्होंने भगवान श्रीराम में देखा और उनके वनवास को धर्मपालन माना, इसलिए उन्होंने रामराज्य की परिकल्पना की। रामधुन ‘रघुपति राघव राजा राम’ ने उन्हें मृत्यु तक ऊर्जा दी। 

भगवान श्रीराम ही देश की मूल संस्कृति, उसके चरित्र, पारिवारिक और सामाजिक जीवन को परिभाषित करते हैं। यही कारण है कि देश में लोकप्रिय हस्तियों के साथ-साथ अधिकतर लोगों के नामों में ‘राम’ का नाम जुड़ा है। चाहे उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाइक हों, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी, बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक दिवंगत कांशीराम, समाजवादी राम मनोहर लोहिया, स्वतंत्रता सेनानी राव तुला राम और राम प्रसाद बिस्मिल या फिर भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और योगगुरु रामदेव ही क्यों न हों। जब भगवान श्रीराम इस धरती पर जनित संस्कृति के आधार हैं और करोड़ों लोगों की आस्था ने उन्हें सनातनी भारत का आदर्श प्रतिनिधि बनाया है, फिर अयोध्या में उनके जन्मस्थान पर विवाद किस बात का है? 

यह दृष्टांत पूरी तरह से निराधार है कि अयोध्या में विवाद स्वामित्व को लेकर है। यहां अदालती लड़ाई किसी भूमि के टुकड़े पर कब्जे के लिए नहीं है, बल्कि यहां प्रश्न केवल और केवल करोड़ों लोगों की आस्था से जुड़ा है। भारत में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब आस्था के समक्ष संवैधानिक और मौलिक अधिकार आदि सब कुछ गौण हो गए और ऐसा आज भी हो रहा है। 

प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार से सम्मानित लेखक सलमान रुश्दी के उपन्यास ‘सैटेनिक वर्सेज’ (1988) को भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया। तर्क था-यह पुस्तक मुस्लिम समाज की आस्था और भावनाओं को ठेस पहुंचा रही है। देश में मुस्लिम जनसंख्या 14 प्रतिशत है अर्थात् उनकी आस्था को ध्यान में रखते हुए देश के 86 प्रतिशत नागरिकों के ‘पढऩे के अधिकार’ का गला घोंट दिया गया। इसी प्रकार भारतीयों को तसलीमा नसरीन की ‘लज्जा’ पुस्तक को पढऩे से भी वंचित कर दिया गया। यहां तक कि उन पर मुस्लिम कट्टरपंथियों ने हमला कर दिया, जिसे ‘आस्था से खिलवाड़’ के नाम पर उचित ठहराने का भी प्रयास हुआ। 

जनवरी 2015 में मुम्बई पुलिस ने एक उर्दू अखबार के सम्पादक को इसलिए गिरफ्तार कर लिया था,  क्योंकि उसने फ्रैंच पत्रिका ‘चार्ली एब्दो’ में छपे विवादित मोहम्मद पैगम्बर साहब के कार्टून को दोबारा छाप दिया था। आस्था पर प्रहार के कारण ही उर्दू अखबार के संपादक के ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के संवैधानिक और मौलिक अधिकार को छीन लिया गया था। मान्यता के अनुसार, इस्लाम में पैगम्बर साहब की मूॢत या तस्वीर बनाना वॢजत है। यह अलग बात है कि तुर्की के एक बड़े संग्रहालय में 13वीं-14वीं शताब्दी में बनी पैगम्बर साहब की पेंटिंग आज भी मौजूद है। 

इतिहास, परम्परा और करोड़ों लोगों की आस्था है कि अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि ही भगवान श्रीराम की जन्मस्थली है। इस पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय 30 सितम्बर 2010 को अपनी मोहर भी लगा चुका था,  जिसे अगले वर्ष 9 मई 2011 में शीर्ष अदालत में चुनौती दी गई और उच्च न्यायालय के निर्णय पर रोक लगा दी गई। हाल के घटनाक्रमों से फिर स्पष्ट हुआ है कि करोड़ों हिन्दुओं की भांति मुस्लिम समाज का एक बड़ा पक्ष भी अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण चाहता है। कई तथाकथित सैकुलरिस्ट, उदारवादी और प्रगतिवादी भगवान श्रीराम के अस्तित्व और अयोध्या में उनके जन्म के साक्ष्य की मांग करते हैं। क्या वे इस बात का कोई सबूत दे पाएंगे कि हजरतबल दरगाह में रखी गईं पवित्र निशानियां पैगम्बर साहब की ही हैं? या फिर पैगम्बर साहब के येरूशलम के अल-अक्सा मस्जिद में जन्नत से अवतरण का कोई प्रमाण दे सकते हैं? 

स्थापित सत्य है कि 1528 ई. में जलालुद्दीन बाबर के आदेश पर रामजन्म भूमि अयोध्या में मंदिर को मीर बाकी ने ध्वस्त कर मस्जिद का निर्माण किया। इस ढांचे को खुदा की इबादत के लिए नहीं बनाया गया, अपितु पराजित हिन्दुओं को नीचा दिखाने और उन्हें अपमानित करने के लिए एक विजय स्मारक के रूप में खड़ा किया गया था। लगभग 450 वर्ष पश्चात 6 दिसम्बर 1992 को हजारों हिन्दुओं की कई दशक पुरानी आहत भावना एकाएक अनियंत्रित हो गई और ढांचा जमींदोज हो गया। 

ब्रितानी राजकाल के दौरान राम गोपाल सिंह द्वारा न्यायालय में वाद दाखिल किए जाने पर ब्रिटिश सरकार ने 1936 में विवादित स्थल पर नमाज पढऩे पर पाबंदी लगा दी थी। इसके पश्चात स्वतंत्र भारत में कांग्रेसी सरकार ने विवादित स्थल के 100 मीटर की परिधि में मुसलमानों का प्रवेश निषेध कर दिया। बाबर के नाम पर खड़े उस ढांचे में 1936 के बाद से कभी नमाज नहीं पढ़ी गई। 1949 में इस बंद ढांचे में रामलला की मूॢत प्रकट हुई। तब अदालत के आदेश पर विवादित ढांचे के बाहर से 6 दिसम्बर 1992 तक निरंतर पूजा-अर्चना होती रही। विवादित ढांचा गिरने के बाद विवादित स्थल के संदर्भ में दायर सभी मुकद्दमों को एक ही अदालत में समायोजित कर दिया गया। तब मुस्लिम समुदाय की ओर से यह वायदा किया गया कि यदि यह प्रमाणित हो जाए कि उक्त विवादित स्थल पर पहले मंदिर था, तो वे अपना दावा वापस ले लेंगे। ध्वस्त ढांचे के मलबे से निकले एक मोटे पत्थर के खंड के अभिलेख से उस स्थल पर एक पुराने हिन्दू मंदिर के पैलियोग्राफी (प्राचीन शिलालेखों का अध्ययन) प्रमाण प्राप्त हुए। 

विध्वंस के बाद 260 से अधिक अन्य कलाकृतियां और प्राचीन मंदिर होने के तथ्य सामने आए। शिलालेख में 20 पंक्तियों में 30 श्लोक गढ़े मिले, जिसे संस्कृत में 11वीं-12वीं शताब्दी की प्रचलित नागरी लिपि में लिखा गया था। प्रारंभ के 20 छंद राजा गोविंद चंद्र गढ़वाल (1114-1154 ई.) और उनके वंश की प्रशंसा करते हैं। 21वां छंद इस प्रकार है ‘‘वामन अवतार (बौने ब्राह्मण के रूप में विष्णु के अवतार) के चरणों में शीश झुकाने के बाद अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए राजा (गोविंद चंद्र गढ़वाल)ने अयोध्या में विष्णु हरि (श्री राम) के सोने के शिखर वाले अद्भुत मंदिर का निर्माण करवाया। यह एक ऐसा भव्य मंदिर है जिसे इतिहास में पहले किसी राजा ने नहीं बनाया। 

विवादित स्थल पर मंदिर के होने का प्रमाण मिलने के बाद बाबरी एक्शन कमेटी ने सुर बदलते हुए यह दावा करना शुरू किया कि उसे विवादित स्थल का मालिकाना हक चाहिए। राम जन्मभूमि विवाद का सर्वमान्य हल निकलने में कथित सैकुलर और तुष्टीकरण की राजनीति बड़ा अवरोधक है। यह स्थिति वामपंथियों के भ्रामक प्रचार और साक्ष्यों को नकारने के कुप्रयासों के कारण उत्पन्न हुई है। गत वर्ष देश के प्रसिद्ध पुरातत्वशास्त्री और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में उत्तर क्षेत्र के पूर्व निदेशक डा. के.के. मोहम्मद ने दावा किया था कि अयोध्या में सन् 1976-77 में हुए उत्खनन के समय मंदिर वाले स्थान पर 14 स्तंभ मिले थे, जिनसे स्पष्ट हो गया था कि बाबरी मस्जिद एक मंदिर के मलबे पर खड़ी की गई थी। 

यदि भारत में एक अल्पसंख्यक संप्रदाय की मजहबी भावनाओं, मान्यताओं और आस्था को ध्यान में रखने का तर्क देकर ‘लज्जा’ ‘सैटेनिक वर्सेज’ और पैगम्बर साहब के कार्टून पर प्रतिबंध को न्यायोचित ठहराया जा सकता है, तो यही तर्क करोड़ों बहुसंख्यक हिन्दुओं के लिए अयोध्या, मथुरा और काशी में लागू क्यों नहीं होता है? इस विकृति के लिए हिन्दू समाज का वह वर्ग व्यापक रूप से उत्तरदायी है, जो अपनी हिन्दू-विरोधी मानसिकता के कारण देश के मुस्लिम समाज को गुमराह कर रहा है।-बलबीर पुंज

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