अध्यक्ष को लेकर कांग्रेस में असमंजस

Edited By ,Updated: 01 Jul, 2019 04:03 AM

confusion in the congress about the president

पार्टी में अध्यक्ष पद को लेकर कांग्रेस असमंजस में है क्योंकि कांग्रेस कार्य समिति ने बैठक में राहुल गांधी के इस्तीफे को अस्वीकार कर दिया और उनसे पार्टी अध्यक्ष बने रहने की अपील की। इस बीच अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कई सचिवों तथा युवा व महिला...

पार्टी में अध्यक्ष पद को लेकर कांग्रेस असमंजस में है क्योंकि कांग्रेस कार्य समिति ने बैठक में राहुल गांधी के इस्तीफे को अस्वीकार कर दिया और उनसे पार्टी अध्यक्ष बने रहने की अपील की। इस बीच अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कई सचिवों तथा युवा व महिला कांग्रेस के बहुत से पदाधिकारियों ने राहुल गांधी के पक्ष में इस्तीफे दे दिए हैं और छत्तीसगढ़ के प्रभारी पी.एल. पूनिया ने भी इस्तीफा दिया लेकिन राहुल गांधी अड़े हुए हैं कि वह पार्टी अध्यक्ष के तौर पर काम नहीं करेंगे। कुछ विकल्पों पर बात हो रही है और अध्यक्ष पद के लिए 3 नाम चर्चा में हैं। वे हैं मल्लिकार्जुन खडग़े, अशोक गहलोत तथा सुशील कुमार शिंदे। 

खडग़े पूर्व लोकसभा में पार्टी के नेता थे और विशेषकर दक्षिण से होने के कारण उन्हें लाभ प्राप्त हैं। इन तीनों नेताओं को गांधी परिवार का वफादार माना जाता है। शनिवार को जिस एक अन्य नाम को उछाला गया वह है मनमोहन सिंह का। इसी बीच राजनीतिक हलकों में सुगबुगाहट है कि एक विकल्प सोनिया गांधी हैं, जो अस्थायी तौर पर पार्टी अध्यक्ष बन सकती हैं ताकि पार्टी को कांग्रेस अध्यक्ष के पद हेतु उपयुक्त उम्मीदवार चुनने के लिए समय मिल सके। इस बीच अधीर रंजन चौधरी, जिन्हें लोकसभा में कांग्रेस का नेता बनाया गया है, का उतना गर्मजोशी से स्वागत नहीं हुआ और लोकसभा में उपनेता की भी घोषणा नहीं हुई। मनीष तिवारी तथा शशि थरूर उनके नीचे काम करना नहीं चाहते। 

अमित शाह अभी भी मार्गदर्शक
जे.पी. नड्डा, जिन्हें वर्तमान में भाजपा का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया है, को इस वर्ष के अंत तक पूर्ण अध्यक्ष बनाए जाने की सम्भावना है। नड्डा वास्तव में कार्यकारी अध्यक्ष हैं, जो असल पार्टी अध्यक्ष के निर्देशानुसार कार्य कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि अमित शाह ने उनकी भूमिका के लिए 120 दिनों की एक सारणी तैयार कर ली है। जारी चर्चा के विपरीत शाह की प्राथमिकता वास्तव में हरियाणा, झारखंड तथा महाराष्ट्र के चुनाव नहीं हैं। वह सोचते हैं कि भाजपा को इन राज्यों में जमीनी स्तर पर सदस्यता अभियान में कुछ चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। जाहिरा तौर पर ध्यान मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ में उन निर्वाचन क्षेत्रों पर है जहां चुनावों में भाजपा हार गई या उसकी मत हिस्सेदारी कम रही। और सभी राज्यों में ऐसे स्थानीय ब्लाक स्तर की प्रसिद्ध हस्तियों तथा सोशल मीडिया में फालोइंग वाले लोगों को भगवा खेमे में लाने का अभियान चलाया जा रहा है जो जन राय को प्रभावित कर सके। 

बिहार में निष्क्रिय राजद
लोकसभा चुनावों के बाद राजद नेता एक महीने से भी अधिक समय से बिहार की राजनीति से परे रह रहे हैं तथा मुजफ्फरपुर में बच्चों की मौत को लेकर कोई प्रतिक्रिया अथवा चिंता नहीं दिखा रहे और यहां तक कि राजद से कोई भी पार्टी नेता मुजफ्फरपुर नहीं गया। चूंकि वरिष्ठ नेता आम चुनावों में पार्टी की पराजय का दोष तेजस्वी प्रसाद यादव को दे रहे हैं, शनिवार को तेजस्वी यादव ने खुद सामने न आकर ट्विटर पर लिखा कि ‘मैं घुटने के अस्थिबंध (लिगामैंट) का उपचार करवा रहा हूं।’ 

गत लोकसभा चुनावों में उनकी बहन मीसा भारती, जो राज्यसभा सांसद हैं, ने तेजप्रताप के व्यवहार को लेकर पार्टी मामलों में दखलअंदाजी की थी, जो यह संकेत दे रहे हैं कि वह ‘तेज सेना’ नामक एक नई पार्टी बनाएंगे, जिसके परिणामस्वरूप तेजस्वी यादव दिल्ली में रह रहे हैं और अब उनके समर्थक यह दावा कर रहे हैं कि वह एक-दो दिन में पटना आ रहे हैं और बिहार की समस्याओं के लिए लड़ेंगे। लालू के जेल जाने के बाद राजद अपनी प्राकृतिक मौत की ओर बढ़ रही है और 30 वर्षों के बाद पहली बार राजद का लोकसभा में कोई सांसद नहीं है। 

मनमोहन सिंह राजस्थान से राज्यसभा आएंगे
इन संकेतों के बीच कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जो 14 जून को सेवानिवृत्त हो गए हैं, को ऊपरी सदन में वापस लाने के लिए पता चला है कि कांग्रेस ने अपने सहयोगी द्रमुक को राज्यसभा के लिए एक सीट रखने को कहा है। तमिलनाडु से 3 पद रिक्त हैं तथा एक रिपोर्ट के अनुसार द्रमुक कांग्रेस को अतिरिक्त वोटें देने को मान गई लेकिन गत सप्ताह राजस्थान से भाजपा राज्यसभा सांसद मदन लाल सैनी के अचानक निधन से कांग्रेस अब चाहती है कि मनमोहन सिंह को राजस्थान से चुना जाए। 

मायावती के अवसरवादी गठजोड़
गठजोड़ बनाना तथा उसे तोड़ देना मायावती के लिए नया नहीं है। इस लोकसभा चुनाव में मायावती ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ गठजोड़ किया था लेकिन परिणाम आने के तुरंत बाद उन्होंने गठबंधन तोड़ दिया। चुनावों के पहले तथा बाद बसपा का यह नियमित कार्य है। बसपा ने सपा के साथ पहली बार 1993 में गठजोड़ किया था और अनुकूल परिणाम आने पर दोनों ने भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई लेकिन 1995 में बसपा ने गठजोड़ तोड़ दिया और भाजपा के बाहरी समर्थन से सरकार बना ली। 

फिर 1996 में बसपा ने कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव लड़ा और शीघ्र ही उसके साथ गठजोड़ तोड़ कर एक बार फिर भाजपा के साथ इस शर्त पर गठजोड़ कर लिया कि दोनों पाॢटयां 6-6 महीनों बाद बारी-बारी से सरकार चलाएंगी लेकिन जब 6 महीनों बाद भाजपा सत्ता में आई तो मायावती ने समर्थन वापस ले लिया मगर कल्याण सिंह ने बसपा को दो हिस्सों में बांट कर अपनी सरकार बचा ली। तब मायावती ने घोषणा की थी कि वह कभी भी भाजपा के साथ गठजोड़ नहीं करेंगी। मगर 5 वर्षों बाद 2002 में मायावती भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बनीं। 

यह तथ्य है कि यदि मायावती ने इस बार सपा के साथ कोई गठजोड़ नहीं किया होता तो बसपा का परिणाम 2014 वाला ही रहता। सपा के साथ गठजोड़ ने मुसलमानों को बसपा उम्मीदवारों के लिए बड़ी संख्या में वोट करने के लिए बाध्य किया, जिसके परिणामस्वरूप बिजनौर से बसपा उम्मीदवार जीत गए जहां बसपा का हिन्दू उम्मीदवार कांग्रेस के मुसलमान उम्मीदवार के खिलाफ लड़ रहा था तथा यदि बसपा ने मेरठ में मुस्लिम उम्मीदवार के स्थान पर एक हिन्दू उम्मीदवार को टिकट दिया होता तो बसपा का उम्मीदवार अवश्य जीत जाता। यह सब बसपा को सपा वोटों के समर्थन के कारण था और सपा अपने पारिवारिक झगड़े व विवादों के कारण हार गई तथा मायावती ने हमेशा की तरह सपा को छोड़ दिया और अब वह अगले चुनावों में एक नया गठजोड़ बनाएंगी।-राहिल नोरा चोपड़ा
 

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