रूढि़वादी परम्पराओं को तोड़ती बेटियां

Edited By ,Updated: 19 Dec, 2023 06:40 AM

daughters breaking conservative traditions

महिलाएं अपने प्रियजनों का अंतिम संस्कार नहीं कर सकतीं, इसके पीछे कई तर्क हैं। एक तर्क यह भी है कि उनका तन-मन कोमल और कमजोर है। अंत्येष्टि की क्रियाओं का मन पर बुरा असर पड़ सकता है, लेकिन कई घटनाएं इस बात की पुष्टि करती हैं कि किसी भी काम को पूर्ण...

महिलाएं अपने प्रियजनों का अंतिम संस्कार नहीं कर सकतीं, इसके पीछे कई तर्क हैं। एक तर्क यह भी है कि उनका तन-मन कोमल और कमजोर है। अंत्येष्टि की क्रियाओं का मन पर बुरा असर पड़ सकता है, लेकिन कई घटनाएं इस बात की पुष्टि करती हैं कि किसी भी काम को पूर्ण करने के लिए संवेदनाओं का होना जरूरी है। 

करीब 22 साल पुरानी घटना है। वृंदावन में अमारबाड़ी आश्रम है। यहां की एक विधवा सप्तदल ने होली के दिन प्राण त्यागे। चौकीदार त्यौहार मनाने गया था। आश्रम की 60 से 105 साल तक की 65 विधवाओं के बीच एक भी मर्द मौजूद नहीं था। 105 साल की लखीदासी  ने कहा कि रोना-धोना छोड़ो, चौकीदार कब लौटेगा क्या भरोसा। आगे की सोचो। मौके की नजाकत को  देखते हुए चंद अपाहिज, लाचार बुढिय़ां आश्रम से निकलकर द्वार-द्वार की याचिका बन गईं। किसी ने दरवाजा खोला, किसी ने अंदर से घुड़क दिया। एक द्वार पर लड़की गीता ने द्वार खोला। उसके पिता ने मृतका की जाति पूछी। चुप्पी पर बोला, जात नहीं पता तो दूसरा दरवाजा देखो माई, यह कुलीन ब्राह्मण का घर है। अज्ञात कुल-गोत्र की विधवा के दाह-संस्कार की याचना को सभी वर्णों ने बड़ी निर्ममता से नकार दिया था। गीता का मन संवेदना से भर गया। उसने अपने भाई से मदद मांगी, उसने मना कर दिया। गीता इंटर की छात्रा थी। उसने पड़ोस में रहने वाली 2 सहेलियों अनसूया और दीपा को तैयार किया। मां से बहाना बनाकर कुछ पैसे लिए और तीनों आश्रम की ओर चल पड़ीं। 

3 किशोरियां और शेष बुढिय़ां। काम भी ऐसा, जिसे करने की कल्पना तक नहीं की थी। अनाड़ी हाथों से ज्यादा मेहनत करनी पड़ी। तीनों किशोरियों के साथ शव को चौथा कंधा दिया लखीदासी ने। झुकी कमर और निस्तेज नजर वाली वे दीन-हीन विधवाएं पीछे चल पड़ीं। श्मशान दूर था। हर दस कदम बाद कंधे बदलने पड़े पर हौसला नहीं टूटा। यह सिर्फ शवयात्रा नहीं थी, अल्ट्रासाऊंड के बाद मादा भ्रूण को गर्भ में ही नष्ट करा देने की साजिश से लेकर औरत को चिता पर यह अंगारे न दे सकने की पुरुष वर्ग की खुदगर्जी और संवेदनहीनता के खिलाफ स्त्रियों का एकजुट जातीय प्रदर्शन था। उन सभी को उस वक्त ऐसा ही लगा था। लड़कियों ने शवदाह के लिए लकडिय़ां खरीदीं, सबने चिता सजाई। लखीदासी ने मुखाग्नि दी। वह दोनों हाथ जोड़ चीख पड़ी, सप्तदल तेरी सौगंध आज से कोई औरत अंतिम संस्कार के लिए किसी मर्द की मोहताज नहीं होगी। 

किसी भी इंसान के जीवन-मरण संबंधित प्रक्रियाओं का उल्लेख 18 पुराणों में से एक गरुड़ पुराण में मिलता है। यह एक प्राचीन हिंदू शास्त्र है, जो वेदों की परंपरा का ही हिस्सा है। हालांकि इस ग्रंथ में महिलाओं और दाह संस्कार जैसी किसी व्यवस्था का जिक्र नहीं है। महिलाओं द्वारा अंतिम संस्कार न किए जाने के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि श्मशानघाट पर हमेशा नकारात्मक ऊर्जा फैली होती है। यह उनके शरीर में प्रवेश कर सकती है। अंतिम संस्कार के दौरान शव के कपाल को तोड़ा जाता है, इसके लिए मजबूत शरीर और मन चाहिए। प्रख्यात ज्योतिषी पंडित प्रवीण उपाध्याय के मुताबिक महिलाओं द्वारा अंतिम संस्कार किया जाना पूरी तरह उचित है। किसी के मोक्ष प्राप्ति में भागीदार बनना पुण्य का काम है। अगर किसी के परिवार में पुरुष नहीं है तो महिलाएं अंतिम संस्कार कर सकती हैं। महिलाओं को मुंडन करवाने की आवश्यकता नहीं है। 

हालांकि अनेक साधु, संत, शंकराचार्य और धर्म शास्त्र इस प्रक्रिया को शास्त्र के अनुरूप नहीं मानते। उनका मानना है कि अगर महिला मुखाग्नि देती है तो उस आत्मा को सद्गति प्राप्त नहीं होती। पर अब यह परंपराएं बदल रही हैं और बेटियों के अपने पिता को मुखाग्नि देने के मामले सामने आते रहते हैं। छत्तीसगढ़ की एक घटना में महिला ने मां को मुखाग्नि दी। उसके बाद गुस्साए भाई ने उसे जान से मार डाला।  बहुत से ऐसे लोग हैं, जिनके बेटे नहीं हैं। 

बेटियों को अंतिम संस्कार करने की अनुमति नहीं है। बेटियां भी ऐसा कर सकती हैं और समाज में किसी को भी इससे परेशानी नहीं होनी चाहिए। कोरोना महामारी के दौरान भी ऐसे कई उदाहरण थे, जहां बेटियों ने अपने परिजनों का अंतिम संस्कार किया था।  उसी का परिणाम है कि बदलते दौर में महिला या बालिका द्वारा मुखाग्नि देना और अंतिम संस्कार में महिलाओं का शामिल होना आम होता जा रहा है। अब समय आ गया है कि हम अपनी बेटियों को यह विश्वास दिलाना बंद करें कि वे अपने माता-पिता के मोक्ष में बाधा बन सकती हैं।-गीता यादव

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