प्रवर्तन निदेशालय की संदिग्ध विश्वसनीयता : किसकी लाठी, किसकी भैंस

Edited By ,Updated: 28 May, 2025 05:57 AM

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पिछले  सप्ताह मुख्य न्यायाधीश गवई ने हाल के कुछ मामलों में जांच के संबंध में सारी सीमाएं पार करने के लिए प्रवर्तन निदेशालय (ई.डी.) को फटकार लगाई। यह मामला तमिलनाडु राज्य विपणन निगम द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका के संबंध में था, जिसके अंतर्गत निगम...

पिछले सप्ताह मुख्य न्यायाधीश गवई ने हाल के कुछ मामलों में जांच के संबंध में सारी सीमाएं पार करने के लिए प्रवर्तन निदेशालय (ई.डी.) को फटकार लगाई। यह मामला तमिलनाडु राज्य विपणन निगम द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका के संबंध में था, जिसके अंतर्गत निगम द्वारा मद्रास उच्च न्यायालय के उस आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें राज्य और निगम द्वारा उच्च न्यायालय के समक्ष दायर 3 याचिकाओं को खारिज कर दिया था और आग्रह किया था कि धन शोधन निवारण मामले में प्रवर्तन निदेशालय द्वारा की गई तलाशी और जब्ती को अवैध घोषित किया जाए। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि ‘आप व्यक्तियों के विरुद्ध मामले दर्ज कर सकते हैं किंतु किसी निगम के विरुद्ध ऐसा कैसे कर सकते हैं। अपराध कहां है। प्रवर्तन निदेशालय का हस्तक्षेप अनावश्यक और संघीय सिद्धान्तों का उल्लंघन है। राज्य सरकार ने पहले ही उन अधिकारियों के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर दी है, जो शराब के ठेकों के आबंटन के लिए रिश्वत लेने के आरोपी हैं। प्रवर्तन निदेशालय  इस मामले में क्यों कूदा?’

न्यायालय ने प्रवर्तन निदेशालय के इस मत को अस्वीकार किया कि यह मामला करोड़ों रुपए के कथित धन शोधन निवारण से जुड़ा हुआ है, इसलिए इसमें कुछ भी गलत नहीं। किंतु न्यायालय ने कहा कि लगता है कि हाल के समय में प्रवर्तन निदेशालय अपनी शक्तियों का अतिक्रमण कर रहा है। किंतु ऐसा पहली बार नहीं है और न ही अंतिम बार होगा, जब उच्चतम न्यायालय ने प्रवर्तन निदेशालय को सीमा पार करने और धन शोधन अधिनियम का दुरुपयोग करने के लिए फटकार लगाई। इससे पूर्व भी न्यायालय ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि प्रवर्तन निदेशालय अनेक मामलों में धन शोधन निवारण का आरोप लगा रहा है और वह ऐसे आरोप बिना किसी प्रमाण या साक्ष्यों के लगा देता है। फरवरी में भी न्यायालय ने एक आरोपी को जेल में रखने के लिए धन शोधन निवारण अधिनियम का इस्तेमाल करने के लिए प्रवर्तन निदेशालय की खिंचाई की थी। 

जनवरी में न्यायालय ने हरियाणा के एक पूर्व विधायक से 15 घंटे से अधिक समय तक पूछताछ करने की कार्रवाई को ज्यादती और अमानवीय व्यवहार बताया। पिछले वर्ष न्यायालय ने इस बात को अस्वीकार किया कि इस तरह लंबे समय तक बिना मुकद्दमा चलाए व्यक्तियों को जेल में रखने के लिए धन शोधन निवारण अधिनियम का इस्तेमाल किया जा रहा है। वस्तुत: उच्चतम न्यायालय धीरे-धीरे प्रवर्तन निदेशालय की अत्यधिक शक्तियों को सीमित कर रहा है और यह विपक्षी दलों की राजनीतिक लड़ाई के मद्देनजर है, जिसमें वे भाजपा पर आरोप लगाते हैं कि जांच एजैंसियों का इस्तेमाल राजनीतिक विद्वेष के लिए किया जा रहा है, जबकि सरकार का कहना है कि विपक्षी भ्रष्टाचार के लिए दोषी हैं। गत वर्षों में प्रवर्तन निदेशालय, जो वित्त मंत्रालय के अधीन आता है, छापे मारने, क्लीन चिट देने, राजनीतिक लीपापोती करने और अपराध तथा भ्रष्टाचार को वैध बनाने का साधन बन गया है। 

उल्लेखनीय है कि गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने सी.बी.आई. का दुरुपयोग करने की आलोचना की थी और कहा था कि इसका इस्तेमाल गुजरात के लोगों को निशाना बनाने के लिए किया जा रहा है। उन्होंने कहा था कि हमारे साथ दुश्मन राज्य की तरह क्यों व्यवहार किया जा रहा है। आज स्थिति दूसरी है। आज प्रधानमंत्री के रूप में उन पर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को निशाना बनाने का आरोप लगाया जा रहा है। इससे भ्रष्टाचार समाप्त करने के बारे में प्रवर्तन निदेशालय की ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के बारे में संदेह पैदा होता है। सभी लोग जानते हैं कि प्रवर्तन निदेशालय अपने राजनीतिक माई बाप की धुन पर नाचता है क्योंकि यह अपने मित्रों को सहायता पहुंचाने और विपक्षियों के साथ हिसाब चुकता करने का औजार बन गया है। राजनीतिक पक्षपात से लेकर विपक्षी नेताओं पर छापेमारी, यह सब सांझीदार प्रवर्तन निदेशालय और आय कर विभाग की सहायता से किया जाता है। गत 10 वर्षों में प्रवर्तन निदेशालय द्वारा दायर मामलों में दोष सिद्धि दर 5 प्रतिशत से भी कम है। एक रिपोर्ट के अनुसार, गत वर्षों में विपक्ष के नेताओं को चुन-चुनकर निशाना बनया गया है। हाल की एक रिपोर्ट बताती है कि राजनेताओं से जुड़े 95 प्रतिशत मामलों में नेता विपक्ष के हैं।  

सरकार का कहना है कि हमने धन शोधन निवारण अधिनियम या प्रवर्तन निदेशालय नहीं बनाया, यह उन्हीं ने बनाया है। कांग्रेस सरकार के दौरान प्रवर्तन निदेशालय ने मात्र 34-36 लाख रुपए की राशि जब्त की थी। हम विपक्ष में थे किंतु जब से राजग सत्ता में आया है तब से 22,000 करोड़ रुपए की राशि जब्त की गई है। वे प्रवर्तन निदेशालय को किस तरह बदनाम कर सकते हैं जब नोटों के ढेर पकड़े जा रहे हैं और टी.वी. पर दिखाए जा रहे हैं। प्रवर्तन निदेशालय के अनुसार धन शोधन निवारण अधिनियम के अंतर्गत 775 मामले दर्ज किए हैं। 333 में दोषारोपण मामला दर्ज किए हैं, 1773 मामले विचाराधीन हैं और इस वर्ष 34 मामलों में दोषसिद्धि हो गई है। निदेशलय ने 461 मामलों में जब्ती के आदेश जारी किए हैं। इससे प्रश्न उठता है कि क्या प्रवर्तन निदेशालय को उससे अधिक दोष दिया जाता है, जितना कि वह दोषी है? क्या राजनेता मुख्य रूप से दोषी हैं? क्या यहां चोर-चोर मौसेरे भाई की कहावत लागू होती है? सच्चाई इसके बीच की है। दोनों अपने-अपने हितों के लिए मिलकर कार्य करते हैं और इसलिए व्यवस्था में विकृति आती है। 

गत वर्षों में राजनेताओं ने अपनी मनमर्जी चलाने के लिए प्रवर्तन निदेशालय को अधिक शक्तियां दी हैं। एजैंसी की योग्यता और जांच कुशलता महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि वह नेता के प्रति निष्ठावान और उसका विश्वासपात्र बना रहे। जांच बाधित होती है क्योंकि जांच वैज्ञानिक तरीके से नहीं होती। हाल की रिपोर्ट से पता चलता है कि गत 10 वर्षों में दोष सिद्धि दर 1 प्रतिशत से कम है और इसका इस्तेमाल दंड देने की प्रक्रिया के रूप में किया जाता है, जिससे एजैंसी की प्रतिष्ठा धूमिल हो रही है और वह अक्सर साक्ष्यों के साथ आरोपों को सिद्ध करने में विफल रहती है। नि:संदेह भ्रष्टाचार के लिए जवाबदेही निर्धारित हो तथापि प्रक्रिया का पूर्ण पालन किया जाना चाहिए और पारदर्शिता अपनायी जानी चाहिए, किंतु हमारी राजनीतिक और उसकी दोगली संस्कृति को देखते हुए हम इस बारे में शोर सुनते रहेंगे और यहां तक कि दिखाने के लिए कुछ उपाय भी किए जाएंगे। प्रधानमंत्री मोदी अक्सर कहते हैं कि शासन में पारदर्शिता लाई जा रही है। समय आ गया है कि प्रवर्तन निदेशालय का इस्तेमाल अपने स्वामी की आवाज बनने और उसकी शक्ति का दुरुपयोग रोका जाए। नि:संदेह एजैंसी में ‘यस मैन’ होने और पिछले दरवाजे से निर्देश लेने के मद्देनजर यह एक कठिन कार्य है।  

देश में वित्तीय अपराध की जांच करने वाली प्रमुख जांच एजैंसी के मद्देनजर वह भ्रष्टाचार के मामलों की बिना किसी भय के जांच करे। निश्चित रूप से कुछ बड़े मामलों में झटके लगेंगे, किंतु आज राजनीतिक पक्षपात की धारणा उसके प्रयासों को कमजोर कर रही है। पक्षपातपूर्ण जांच के आरोपों को दूर करने के लिए उसे और अधिक पारदर्शिता से कार्य करना चाहिए। समय आ गया है कि वह सुधार के लिए कदम उठाए। कुल मिलाकर सरकार को प्रवर्तन निदेशालय के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। उसे दो महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर देना चाहिए कि क्या प्रवर्तन निदेशालय केवल कानून के अनुसार निर्देशित होगा या सरकार के अनुसार। प्रश्न उठता है कि कौन पहले पत्थर उठाएगा। किसकी लाठी, किसकी भैंस?-पूनम आई. कौशिश
 

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