किसानों को ‘सरकार की नीयत’ पर है शक

Edited By ,Updated: 12 Dec, 2020 04:44 AM

farmers doubt the  government s intention

किसान कह रहे हैं कि एम.एस.पी. पर खरीद को लीगल राइट घोषित किया जाए लेकिन सरकार ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया है। सरकार जरूर भरोसा दिला रही है कि एम.एस.पी. पर खरीद बंद नहीं होगी। सरकार यह भरोसा दिला रही है और साथ

किसान कह रहे हैं कि एम.एस.पी. पर खरीद को लीगल राइट घोषित किया जाए लेकिन सरकार ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया है। सरकार जरूर भरोसा दिला रही है कि एम.एस.पी. पर खरीद बंद नहीं होगी। सरकार यह भरोसा दिला रही है और साथ ही यह भी भरोसा दिला रही है कि वह यह बात लिख कर देने को तैयार है लेकिन लिख कर दे नहीं रही है। इसलिए किसान आशंकित हैं। सरकार  ने जो प्रस्ताव मंत्रिमंडल की बैठक के बाद किसानों को भेजा, इसमें भी कहा गया कि आश्वासन ही दिया गया कि सरकार एम.एस.पी. पर खरीद जारी रखेगी। यह बात वो लिख कर देने का आश्वासन देती है। लेकिन फिर वही बात लिख कर नहीं दी, लिखने का भरोसा भर ही दिलाया। इसलिए दूध का जला किसान छाछ भी फूंक-फूंक कर पीना चाहता है। 

किसानों को वैसे समझना चाहिए कि सरकार चाह कर भी एम.एस.पी. पर गेहूं और चावल के साथ-साथ मोटे अनाज (बाजरा मक्का) की खरीद बंद नहीं कर सकती। अभी देश में कुल मिलाकर हर साल औसत रूप से 25 करोड़ टन अनाज पैदा होता है जिसका एक-तिहाई सरकार एम.एस.पी. पर खरीदती है। ये खरीद जारी रहनी ही रहनी है इतना भरोसा किसानों को होना ही चाहिए। 

देश में भोजन के अधिकार के तहत 80 करोड़ की आबादी आती है। इन्हें हर महीने 5 किलो गेहूं (दो रुपए प्रति किलो की दर से) या पांच किलो चावल (तीन रुपए प्रति किलो की दर से) या मोटा अनाज (एक रुपए किलो की दर से) दिया जाता है। इसके लिए साल में जरूरत पड़ती है पांच करोड़ 49 लाख टन अनाज की।

अब भोजन का अधिकार एक कानून है लीगल राइट है यानि यह बंद नहीं हो सकता। तो जब यह बंद नहीं हो सकता तो पांच करोड़ 49 लाख टन अनाज की सरकारी खरीद भी बंद नहीं हो सकती। इसके अलावा सरकार अन्त्योदय योजना के तहत आने वाले अढ़ाई करोड़ लोगों को 35 किलो अनाज हर महीने देती है। देश के 12 करोड़ बच्चों के मिड डे मील के लिए चावल-गेहूं भी एम.एस.पी. पर खरीदा जाता है। आंगनबाड़ी केन्द्रों के छोटे बच्चों के लिए भी अनाज खरीदा जाता है। यह मात्रा कुल मिलाकर 65 लाख टन होती है। तो कुल मिलाकर दोनों का जोड़ बैठता है 6 करोड़ 15 लाख टन। 

कुल मिलाकर किसानों को समझना चाहिए कि कोई भी सरकार चाहते हुए भी जिस तरह आरक्षण को बंद नहीं कर सकती उसी तरह कोई भी सरकार लाख चाहते हुए भी एम.एस.पी. पर खरीद भी बंद नहीं कर सकती। आखिर इस देश में 14 करोड़ किसान हैं। खेतिहर मजदूरों को मिला लिया जाए तो तादाद 18 करोड़ के आसपास पहुंचती है। एक परिवार में 3 वोटर भी हुए तो ये आंकड़ा 50 करोड़ पार करता है।

जाहिर है कि कोई भी  सरकार इतने बड़े वोट बैंक को नाराज करने का सियासी जोखिम नहीं उठा सकती। अभी एम.एस.पी. का फायदा देश के 6 फीसदी किसान ही उठाते हैं।  सरकार चाहे तो इस 6 फीसदी यानि 50 लाख किसानों के लिए गेहूं और चावल की एम.एस.पी. खरीद को लीगल जामा पहना सकती है। वैसे तो एम.एस.पी. के तहत 23 तरह की उपज आती है लेकिन पंजाब की कांग्रेस सरकार के खुद के नए कानून में भी केवल गेहूं और चावल की एम.एस.पी. पर खरीद को ही अनिवार्य किया बनाया गया है। यही काम मोदी सरकार भी किसानों को विश्वास में लेकर कर सकती है। 

60 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति को सफल बनाने में पंजाब के किसानों का खास योगदान है। वहां के किसानों ने इतना अनाज उगाया  कि पूरे देश का पेट पाला। पंजाब में उद्योग नहीं लगे, स्पैशल इकोनॉमिक जोन नहीं बने, आई.टी.  सैक्टर के विस्तार की रफ्तार धीमी रही, सॢवस सैक्टर का विकास नहीं हुआ। अब जब मध्यप्रदेश, यू.पी., राजस्थान जैसे राज्य भी गेहूं उत्पादन में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं तो इसका खामियाजा पंजाब का किसान क्यों भुगते। इसलिए वो एम.एस.पी. को लीगल राइट बनाना चाहता है। 

कुल मिलाकर विश्वास का संकट है। हाल ही में मीडिया में आया था कि नीति आयोग ने एम.एस.पी. धीरे-धीरे कम करने की सिफारिश की है। इससे भी किसान आशंकित हैं। ऐसी ही सिफारिश शांता कुमार कमेटी ने भी की थी। कुछ साल पहले  नागरिक आपूॢत मंत्रालय ने राशन की दुकानों से गेहूं चावल लेने वालों के बैंक खातों में सीधे सबसिडी का पैसा डालने का पायलट प्रोजैक्ट चलाया था। चंडीगढ़ और दादर नागर हवेली में यह चलाया गया था। यह कुछ-कुछ गैस सिलैंडर पर आजकल मिलने वाली सबसिडी जैसा ही है। सरकार चाहती थी कि किसान के खाते में सबसिडी डाल दी जाए ताकि वह बाजार से गेहूं चावल अपनी पसंद का खरीद ले। सरकार को न एम.एस.पी. पर अनाज खरीदना पड़ता, न एफ.सी.आई. के गोदामों में रखना पड़ता और न ही गांव कस्बों की राशन की दुकानों तक ढो कर ले जाना पड़ता। यानी सरकार का खर्चा या यूं कहा जाए कि सबसिडी कम हो जाती। इससे भी किसान डरे हुए हैं। उन्हें सरकार की नीयत पर संदेह है।-विजय विद्रोही

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