सरकारें ‘सोशल मीडिया’ से नहीं चलतीं

Edited By Punjab Kesari,Updated: 11 Oct, 2017 02:08 AM

governments do not run social media

बड़ी जंग जीतने के लिए कई बार पीछे भी हटना पड़ता है। दुश्मन को पीठ भी दिखानी पड़ती है। झुकना भी पड़ता है और मोर्चा भी बदलना पड़ता है। पिछले 10 दिनों में मोदी सरकार के दो बड़े फैसले संकेत दे रहे हैं कि या तो बड़ी जंग जीतने की तैयारी हो रही है या फिर...

बड़ी जंग जीतने के लिए कई बार पीछे भी हटना पड़ता है। दुश्मन को पीठ भी दिखानी पड़ती है। झुकना भी पड़ता है और मोर्चा भी बदलना पड़ता है। पिछले 10 दिनों में मोदी सरकार के दो बड़े फैसले संकेत दे रहे हैं कि या तो बड़ी जंग जीतने की तैयारी हो रही है या फिर छोटी लड़ाई में हार के आईने में बड़ी लड़ाई हार जाने की आशंका सता रही है। पैट्रोल-डीजल पर 2 रुपए की छूट पहला फैसला था। जी.एस.टी. में छोटे व्यापारियों को राहत देना दूसरा फैसला है। 

सबसे बड़ी बात है कि पैट्रोल के भाव पर कुछ दिन पहले ही मोदी सरकार के ही एक मंत्री ने देश की जनता को ज्ञान दिया था कि विकास के लिए पैसे का जुगाड़ किस तरह किया जाता है और कैसे पैट्रोल की बढ़ी हुई कीमत को सहन कर सकने वाले भी बेकार का रोना रो रहे हैं। लेकिन इसके तत्काल बाद ही सरकार ने घोषणा कर दी। जी.एस.टी. से कपड़ा व्यापारी दुखी थे। मोदी सरकार के अफसर से लेकर मंत्री तक यही कह रहे थे कि टैक्स के दायरे में पहली बार आने के कारण रोना रोया जा रहा है लेकिन अब जी.एस.टी. में राहत देकर सरकार ने टैक्स के दायरे से बचने वालों के आंसू पोंछने की कोशिश की है। ऐसा मोदी शासन में होता नहीं था। 

पिछले 3 सालों में ऐसा होना, सुना-देखा नहीं था। इससे भी बड़ा बदलाव मोदी सरकार ने अपने ही फैसले को उलट कर किया है। आॢथक सलाहकार परिषद को मोदी ने खत्म कर दिया था लेकिन अब इसका गठन किया गया है। यह बात हालांकि समझ के परे है कि नीति आयोग के ही एक सदस्य को परिषद की कमान क्यों सौंप दी गई। कुछ पर्यवेक्षकों का कहना है कि भाजपा और मोदी हमेशा चुनाव जीतने की फिराक में ही रहते हैं लिहाजा ताजा फैसले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों के संदर्भ में ही देखे जाने चाहिएं। यह बात एक हद तक सही हो सकती है लेकिन मोदी तो जोखिम लेने के लिए जाने जाते हैं। उत्तर प्रदेश का चुनाव याद कीजिए। 

मतदान शुरू होने से कुछ दिन पहले ही घरेलू गैस सिलैंडर 76 रुपए महंगा कर दिया गया था। यू.पी. जीतना मोदी और अमित शाह के लिए जन्म-मरण का सवाल था, लेकिन उसके बावजूद सिलैंडर के दाम बढ़ा दिए गए थे।  यू.पी. की तरह गुजरात जीतना भी मोदी और अमित शाह के लिए बहुत जरूरी है, लेकिन यहां जी.एस.टी. से खाखरा को अलग करने का फैसला मोदी सरकार ने कर लिया। जिन 27 चीजों पर से जी.एस.टी. कम किया गया है, उनमें से 7 का सीधा रिश्ता गुजरात से जुड़ता है। जाहिर है कि आर्थिक मोर्चे पर सरकार की नाकामी पर कभी अपने रहे भाजपा नेता यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी के लेख भारी पड़े हैं। शल्य से लेकर भीष्म पितामह से लेकर दुशासन, दुर्योधन जैसी उपमाओं और तुलनाओं से बात आगे बढ़ चुकी है। 

यह बात मोदी समझ गए हैं। जिस दिन रिजर्व बैंक आर्थिक हालात की गमगीन तस्वीर पेश करता है, उसी दिन मोदी एक सम्मेलन में आंकड़ों के साथ पहुंचते और तालियां बजवाने में भी कामयाब हो जाते हैं लेकिन वह खुद जानते हैं कि आंकड़ों से न नौकरी मिलती है और न ही पेट भरता है। जब मनमोहन सिंह सरकार के समय विकास दर 8 प्रतिशत पार कर गई थी तब विपक्ष में बैठी भाजपा ही कहा करती थी कि आंकड़ों से पेट नहीं भरता।  अब जब वह सत्ता में है तो कांग्रेस जैसे विपक्षी दलों के साथ-साथ भाजपा के ही दो नेता यही राग अलाप रहे हैं। यह छवि बनाने और बिगाडऩे की राजनीति है। इस छवि के खेल को मोदी और शाह से ज्यादा और कौन बेहतर ढंग से समझ सकता है। लिहाजा ताबड़तोड़ अंदाज में सारी आलोचना का मुंहतोड़ जवाब देने का फैसला किया लगता है। 

सवाल उठता है कि जो प्रधानमंत्री कड़वी दवा देने और कड़े फैसले लेने की बात करते रहे हों, उन्हें एक-दो बयानों के बाद क्या सीधे बैकफुट पर आ जाना चाहिए था? या कहीं ऐसा तो नहीं कि विजयदशमी के मौके पर संघ प्रमुख मोहन भागवत के भाषण से वह परेशान हो गए हैं। भागवत ने अपने भाषण में रोजगार का जिक्र किया था, छोटे व्यापारियों की तकलीफों की तरफ  ध्यान दिलाया था और कुल मिलाकर असंतोष की बात कही थी। ऐसा लगता है कि मोदी संघ प्रमुख को अर्थशास्त्र समझा नहीं सकते थे और उनके चिंतन को हाशिए पर नहीं छोड़ सकते थे। या कहीं ऐसा तो नहीं कि मोदी भी समझ गए हैं कि जितने आर्थिक सुधार के काम होने थे वे हो लिए ....अब चुनाव जीतने हैं और इसके लिए लोकप्रिय फैसले लेने ही होंगे। इस साल गुजरात और हिमाचल हैं, अगले साल कर्नाटक और फिर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य हैं। 

इस बीच कांग्रेस ने भी अपने तेवर बदले हैं। राहुल गांधी ने पहले विदेशों में जाकर मोदी सरकार पर तंज कसे और अब देश में घूम-घूम कर मोदी सरकार पर रोजगार नहीं देने के गंभीर आरोप लगा रहे हैं। गुजरात में मंदिर-मंदिर जाने के बाद वह मोदी सरकार पर वार करते हैं। वहां भाजपा से नाराज पाटीदारों के नेता हार्दिक पटेल उनका स्वागत करते हैं। खफा दलित समाज के नेता जिग्नेश से भी कांग्रेस चुनावी तालमेल करने की तरफ बढ़ रही है।  कुछ अन्य छोटे दल भी कांग्रेस के साथ आने का संकेत दे रहे हैं। तो क्या गुजरात में 150 प्लस सीटें जीतने का लक्ष्य सामने रखने वाले अमित शाह को अपने ही दावे पर शंका होने लगी है? 

विदेशी एजैंसियां जी.एस.टी. की तारीफ कर रही हैं। विदेशी सरकारों के नुमाइंदे कह रहे हैं कि भारत में भले ही विकास दर के 5.7 फीसदी होने पर बावेला मचा हो, लेकिन वह इसे बहुत गंभीरता से नहीं लेते। उन्हें लगता है कि भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत है और जी.एस.टी. के शुरूआती झटके सहने के बाद स्थिति काबू में आ जाएगी। मोदी सरकार के मंत्री,  खुद मोदी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी यही कुछ कह रहे हैं। लेकिन क्या वजह है कि उन्हें लगता है कि जनता उनके तर्कों से सहमत नहीं है। आत्मविश्वास में यह कमी क्यों देखी जा रही है? ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। पिछले 3 सालों में देखा गया है कि किस तरह से मोदी सरकार ने विपक्ष के हर वार पर पलटवार कर उसे चित्त किया है। 

इस बार ऐसा क्यों हुआ कि राहुल गांधी के विदेशी दौरों पर दिए बयानों का जवाब देने के लिए मोदी सरकार के मंत्रियों को उतरना पड़ा। राहुल के बयानों को प्रतिक्रिया लायक क्यों माना गया? इसकी वजह यही है कि राहुल गांधी ने कांग्रेस की हार के कारण स्वीकारे। राजनीति में अपनी गलती स्वीकार लेना खुद को जनता की नजर में माफी दिलवाना होता है। राहुल का कहना कि यू.पी.ए. सरकार घमंड के कारण हारी, रोजगार नहीं दे पाई इसलिए हारी। उसके बाद राहुल कहते हैं कि कांग्रेस रोजगार नहीं दे सकी तो लोगों ने मोदी को रोजगार के लिए चुना और अब अगर वह भी नहीं दे पा रहे हैं तो जनता उनका भी वही हश्र करेगी जो कांग्रेस का किया था। यह एक ऐसा बयान है जो सीधा-सपाट होते हुए भी राजनीति की उलटबांसियों से युक्त था। 

रोजगार का मतलब नौकरी होता है, सरकारी नौकरी होता है। भाजपा  ने भी अपने चुनाव अभियान में नौकरियां देने का वायदा किया था। हर साल एक करोड़ नौकरियां लेकिन अब वही भाजपा कह रही है कि उसने रोजगार के मौके प्रदान करने की बात कही थी और यह काम मुद्रा और अन्य योजनाओं के जरिए हो रहा है।  लेकिन उसका यह तर्क शायद जनता के गले नहीं उतर रहा है या यूं कहा जाए कि भाजपा नेताओं को ही लग रहा है कि यह तर्क काम नहीं कर रहा है। इस सबके बावजूद विपक्ष बिखरा है, राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता सवालों के घेरे में है, कांग्रेस के पास विकल्प का अभाव है और आम वोटर का मोदी में विश्वास कम नहीं हुआ है। (हालांकि यही बात भाजपा की राज्य सरकारों के बारे में नहीं कही जा सकती)। 

गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों को गैस कनैक्शन देने की ‘उज्जवला योजना’ हो या बिजली से वंचित घरों तक उजाला फैलाने की ‘सौभाग्य योजना’, मोदी अपने नए वोट बैंक का निर्माण कर रहे हैं और उसका लगातार विस्तार भी कर रहे हैं। इसका तोड़ अभी तक विपक्ष नहीं निकाल सका है। लेकिन फिर वही सवाल उठता है कि जब चुनावी मोर्चे पर वोटों का गणित पक्ष में है तो फिर कड़े आॢथक सुधारों से परहेज क्यों किया जा रहा है? सोशल मीडिया के कमैंट पढ़ कर देश को नहीं चलाया जा सकता, न ही चलाया जाना चाहिए। 

यह सही है कि पिछले कुछ समय से कांग्रेस ने सोशल मीडिया पर ध्यान देना शुरू किया है। गुजरात में विकास को पागल बताने वाला अभियान चल निकला है। इतना चल निकला कि खुद अमित शाह को कहना पड़ा कि लोगों को सोशल मीडिया के फेर में नहीं पडऩा चाहिए। सोशल मीडिया पर भाजपा सिरमौर रही है। उसके बाद केजरीवाल की पार्टी का नंबर आता है, लेकिन इस मामले में फिसड्डी कांग्रेस ने सबको हैरानी में डाल दिया है। यह एक ऐसी लड़ाई है जिसे हास्य-व्यंग्य और उपहास प्रहसन से ज्यादा नहीं लिया जाना चाहिए। 

चुटकी लेने में और किसी भी विषय पर गंभीर चिंतन करने में फर्क होता है लेकिन खुद भाजपा ने 2014 के चुनावों के नतीजे आने के बाद ऐलान किया था कि सोशल मीडिया से 115 लोकसभा सीटों पर प्रभाव देखा गया था और उनमें से 112 सीटें भाजपा की झोली में गिरी थीं। तब कहा गया था कि 2019 के चुनावों में लोकसभा की 250 सीटों पर सोशल मीडिया का असर दिखेगा,  लेकिन क्या यह असर निर्णायक  होगा,  इसका अभी तक किसी ने भी विश्लेषण नहीं किया है। क्या वोटर अपनी जिंदगी में आए बदलाव, नौकरी की स्थिति और विकास को अनदेखा करके सिर्फ इसलिए उस पार्टी को वोट दे आएगा, जिसके कसीदे सोशल मीडिया पर चंद लोग गा रहे होंगे? इसमें संदेह है। 

इसके साथ ही गौरक्षकों की गुंडागर्दी हो या फिर बड़े नेताओं के यह खाओ, यह मत खाओ, यह पहनो, यह मत पहनो, यह बोलो, यह मत बोलो जैसे अनर्गल बयान, इन पर भी रोक लगाना जरूरी है। हो सकता है कि अभी भाजपा को लगे कि ऐसे बयानों से राज्य जीते जा सकते हैं लेकिन राज्य और देश के चुनावों में फर्क होता है। कई बार बड़ा मुद्दा सामने नहीं होने पर छोटे-छोटे मुद्दे ही एक होकर माहौल बिगाडऩे का काम कर देते हैं। लाख टके की एक बात-सबका साथ, सबका विकास ही सत्ता दिलाएगा।
 

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!