देसी गायधन को संभालना और अमरीकी बैलों को बूचडख़ाने भेजना समय की मांग

Edited By ,Updated: 26 Sep, 2019 03:48 AM

handling of domestic cow and sending american oxen to abattoirs demands time

मुझे इस विषय से संबंधित सभी पहलुओं जैसे कि हमारे हिन्दू धर्म में गाय का महत्व, पशु पालन, डेयरी फाॄमग आदि का पूर्ण ज्ञान तो नहीं है, पर आवारा पशुओं के कारण प्रतिदिन हो रहे सड़क हादसों और बैलों की ङ्क्षहसक  झड़पों के कारण सालाना अकेले पंजाब में ही हो...

मुझे इस विषय से संबंधित सभी पहलुओं जैसे कि हमारे हिन्दू धर्म में गाय का महत्व, पशु पालन, डेयरी फाॄमग आदि का पूर्ण ज्ञान तो नहीं है, पर आवारा पशुओं के कारण प्रतिदिन हो रहे सड़क हादसों और बैलों की ङ्क्षहसक  झड़पों के कारण सालाना अकेले पंजाब में ही हो रही 150 मौतें और किसानों की फसलों के सालाना 200 करोड़ रुपए के उजाड़े से बचाने की जिम्मेदारी के अहसास ने मुझे इस विषय का विद्यार्थी बना कर पहली बार किसी विषय पर लेख लिखने के लिए मजबूर कर दिया है। 

कुछ समय पहले जब मैं अपने शहर सुनाम में आवारा अमरीकी पशुओं की ङ्क्षहसक झड़प में आए आतिश गर्ग और गुरप्रीत गोल्डी नामक नौजवानों के भोग पर श्रद्धांजलि देकर बाहर निकला तो वहां से यह सवाल मैं अपने और सरकारों के लिए लेकर आया कि क्या हम राजनीतिक लोगों का फर्ज सिर्फ श्रद्धांजलि देने से पूरा हो जाता है? आगे से किसी घर का चिराग न बुझे, इसके लिए हम लोग सिर्फ इसलिए कुछ न करें कि कहीं हमारी वोटों का नुक्सान न हो जाए, इसलिए मामला हल करने की बजाय हम चुप्पी धारण कर रखें? यह तर्क मेरी समझ से बाहर था क्योंकि मैं यह मान कर चलता हूं कि ‘राजनीति का धर्म होना चाहिए, न कि धर्म की राजनीति’।  पर बदकिस्मती से हमारे देश में इसके विपरीत हो रहा है। 

फर्क समझने की जरूरत
मुझे संतुष्टि इस बात की है कि पिछले कुछ दिनों से राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक पक्ष से संवेदनशील समझे जाते इस मुद्दे पर कम से कम चर्चा तो शुरू हुई कि क्यों देसी गाय और बैल तथा अमरीकी नस्ल के गाय और बैल में फर्क समझने की जरूरत है। आंखों पर अंधविश्वास और अज्ञानता की पट्टी बांधने की वजह से ही यह समस्या आज इतना विकराल रूप धारण कर चुकी है कि एक रिपोर्ट के मुताबिक अगले 8 सालों में देश की सड़कों पर 27 करोड़ आवारा पशु हो जाएंगे, जिन्हें संभालने के लिए सालाना 5 लाख 40 हजार करोड़ रुपए चाहिए होंगे। बात करें देसी और अमरीकी नस्ल के फर्क की तो देसी को ‘बोस इंडिक्स’ और अमरीकी को ‘बोस टोरस’ कहा जाता है। 

देसी भारतीय नस्ल में साहीवाल, गिर, लाल सिंधी, थ्रपारकर, राठी आदि कुल 37 नस्लें हैं, जबकि अमरीकी या एग्जॉटिक नस्ल में होलस्तियेन फरीएजन (एच.एफ.), जर्सी, ब्राऊन-स्विस, गुरनसे, रैड डेन आदि आती हैं। शुद्ध देसी गाय के दूध में विटामिन ए-2 होता है जोकि ‘परोलिन’ नामक एमिनो एसिड पैदा करने के कारण सेहत के लिए काफी फायदेमंद होता है, जबकि अमरीकी गाय के दूध में विटामिन ए-1 पाया जाता है जोकि ‘परोलिन’ की बजाय ‘हिस्टेडीन’ एमिनो एसिड पैदा करने के कारण बी.सी.एम.7 पैदा करता है, जोकि मनुष्य की सेहत के लिए उतना फायदेमंद नहीं माना जाता। देसी नस्ल यहां की तासीर के शांत होने के कारण हर तरह के मौसम, खास तौर पर मई-जून के महीने की गर्मी को भी आराम से सहन कर सकती है, जबकि विदेशी एच.एफ., जर्सी आदि नस्लें हॉलैंड जैसे ठंडे यूरोपीय देशों से होने के कारण यहां की अत्यंत गर्मी को सहन नहीं कर पातीं और तासीर गर्म होने के कारण अक्सर हिंसक झड़प करते देखी जाती हैं। 

देसी टोटकों में हमारे गांवों में ऐसा कहा जाता है कि देसी गाय का बछड़ा अपनी मां को पहचान लेता है जबकि अमरीकी का नहीं। ऐसा देखा जाता है कि शुद्ध देसी नस्ल की गाय गंदे छप्पड़ में जाती नहीं और अमरीकी नस्ल की उसमें से निकलती नहीं। पुराने मुहावरों के मुताबिक ऐसा कहा जाता है कि ‘धन्य गाय का जाया, जिसने सारा जगत बसाया’ क्योंकि गाय के दूध से बच्चे और परिवार पलते थे और बैल खेतों में पुत्र और ट्रैक्टर का काम करता था, पर समय के साथ हुए आधुनिकीकरण ने खेतों में बैलों की जरूरत को खत्म कर दिया है और सफेद क्रांति के समय दूध की जरूरत को पूरा करने और ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाने के मकसद से देश में लाए अमरीकी/विदेशी नस्ल की गाय और बैलों को कुछ सियासी या तथाकथित धर्म के ठेकेदारों द्वारा हजारों साल पुराने हिन्दू धर्म के साथ बेवजह जोड़ी गई भावनाएं मेरी समझ से बाहर हैं। 

अत: समय की मांग है कि हिन्दू धर्म की धार्मिक भावनाओं के मुताबिक देसी गाय को संभाला जाए और अमरीकी नस्ल जिसके साथ हमारा कोई धार्मिक, भावनात्मक या सामाजिक संबंध नहीं है, उसको बूचडख़ाने भेजा जाए ताकि वह भी सड़क हादसों या कूड़े के ढेरों से प्लास्टिक खा कर रोज-रोज मरने से बच सके। उल्लेखनीय है कि गाय को काटने की तथाकथित पाबंदी के बावजूद भारत गऊ मांस के निर्यात में ब्राजील के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है, जोकि सारी दुनिया के निर्यात का कुल 20 प्रतिशत करता है। चाहे मैं निजी तौर पर किसी भी जीव हत्या को प्रोत्साहित नहीं करता परन्तु कुछ दिन पहले आवारा बैल की टक्कर से मारे गए गांव जवाहरके जिला मानसा के 24 साल के दलित नौजवान सन्नी सिंह की विधवा और 2 छोटे-छोटे बच्चों की नम आंखों से उठे प्रश्नों के उत्तर ढूंढे नहीं मिलते। 

आज जहां इस समस्या का हल करने से राजनीतिक दल पैर पीछे खींचते हैं, वहीं इस समस्या के उभार में भी असर और रसूखदार लोग जिम्मेदार हैं, क्योंकि 1968 में 3 करोड़ 32 लाख 50 हजार एकड़ क्षेत्र गऊ चरागाहों के लिए सुरक्षित रखा गया था जिसको भारत सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के नियमों मुताबिक न तो बेचा जा सकता था, न ही किसी और मकसद के लिए उपयोग किया जा सकता था, पर राजनीतिक और सरकारी मिलीभगतों के कारण इन जमीनों के खत्म होने के कागज भी सामने आए हैं जिसके परिणामस्वरूप आज जहां प्रति पशु के चरने के लिए अमरीका में 12 एकड़, जर्मनी में 8 एकड़, जापान में 6.7 एकड़ क्षेत्र सुरक्षित रखा गया है, वहीं भारत में 1 एकड़ में 11 पशु चरते हैं। 

कानून में हो संशोधन
अत: केन्द्र और पंजाब सरकार को चाहिए कि संबंधित कानून में संशोधन कर अमरीकी/विदेशी नस्ल के बैल को हमारे गऊधन में से निकाल कर उनको दूसरे जानवरों की तरह ट्रांसपोर्ट करने, खरीद-फरोख्त तथा काटने की इजाजत दें और देसी नस्ल की गाय व बैल को संभालने के लिए सियासी रसूखदारों के प्रभुत्व से नाजायज कब्जे वाले गाय चरागाह क्षेत्र को छुड़वा कर उनको वहां संभालें ताकि किसी की धार्मिक भावना को भी ठेस न पहुंचे और अमरीकी नस्ल जोकि आज पंजाब की सड़कों पर घूमते लगभग 2.5 लाख आवारा पशुओं का 80 प्रतिशत है, से जानी और फसली नुक्सान बचाया जा सके क्योंकि लोगों से 9 वस्तुओं पर करोड़ों रुपए गऊ सैस लेकर सरकार अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग सकती। अत: सरकार को इसके पक्के हल के लिए ‘द पंजाब प्रोहिबिशन ऑफ काऊ स्लॉटर एक्ट 1955’ में मामूली संशोधन करने की जरूरत है।-अमन अरोड़ा (विधायक, आम आदमी पार्टी)

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