इतिहास के सुनहरे अक्षरों में लिखा है वीरांगना अवंतीबाई लोधी का नाम

Edited By ,Updated: 20 Mar, 2017 04:18 PM

history is written in the name of veerangana avantibai lodhi

भारत में पुरुषों के साथ आर्य ललनाओं ने भी देश, राज्य और धर्म, संस्कृति की रक्षा के लिए आवश्यकता पडने पर अपने प्राणों की बाजी लगाई है ...

भारत में पुरुषों के साथ आर्य ललनाओं ने भी देश, राज्य और धर्म, संस्कृति की रक्षा के लिए आवश्यकता पडने पर अपने प्राणों की बाजी लगाई है। गोंडंवाने की रानी दुर्गावती और झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई के चरण चिन्हों का अनुकरण करते हुए रामगढ (जनपद मंडला- मध्य प्रदेश) की रानी वीरांगना महारानी अवंतीबाई लोधी ने सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अग्रेंजो से खुलकर लोहा लिया था और अंत में भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने जीवन की आहुति दे दी थी। वीरांगना महारानी अवंतीबाई लोधी का जन्म 16 अगस्त 1831 को मनकेहणी के जमींदार राव जुझार सिंह के यहां हुआ था। 20 मार्च 1858 को इस वीरांगना ने रानी दुर्गावती का अनुकरण करते हुए युध्द लड़ते हुए अपने आप को चारो तरफ से घिरता देख स्वंय तलवार भोंक कर देश के लिए बलिदान दे दिया।

उन्होंने अपने सीने तलवार भोकते वक्त कहा कि ‘‘हमारी दुर्गावती ने जीते जी वैरी के हाथ से अंग न छुए जाने का प्रण लिया था। इसे न भूलना बड़ों‘‘। उनकी यह बात भी भविष्य के लिए अनुकरणीय बन गई। वीरांगना अवंतीबाई का अनुकरण करते हुए उनकी दासी ने भी तलवार भोक कर अपना बलिदान दे दिया और भारत के इतिहास में इस वीरांगना अवंतीबाई ने सुनहरे अक्षरों में अपना नाम लिख दिया। आज उसी वीरांगना की शहादत की उपेक्षा देखकर दुख होता है। कहा जाता है कि वीरांगना अवंतीबाई लोधी 1857 के स्वाधीनता संग्राम के नेताओं में अत्यधिक योग्य थीं कहा जाए तो वीरांगना अवंतिबाई लोधी का योगदान भी उतना ही है, जितना 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में वीरांगना झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का था। लेकिन हमारे देश की सरकारों ने चाहे केंद्र की जितनी सरकारे रही हैं या राज्यों की जितनी सरकारें रही है उनके द्वारा हमेशा से वीरांगना अवंतीबाई लोधी की उपेक्षा होती रही है। वीरांगना अवंतीबाई जितने सम्मान की हकदार थी वास्तव में उनको उतना सम्मान नहीं मिला। यह देश के लिए बहुत ही दुर्भाग्य की बात है। इससे देश के इतिहासकारों और नेताओं की पिछड़ा विरोधी मानसिकता झलकती है।

वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने वीरांगना झांसी की रानी की तरह ही अपने पति विक्रमादित्य के अस्वस्थ होने पर ऐसी दशा में राज्य कार्य संभाल कर अपनी सुयोग्यता का परिचय दिया और अंग्रेंजों की चूलें हिला कर रख दी। सन 1857 में जब देश में स्वतंत्रता संग्राम छिड़ा तो क्रान्तिकारियों का सन्देश रामगढ भी पहुंचा। रानी तो अंग्रेजो से पहले से ही जली भुनी बैठी थी। क्योंकि उनका राज्य भी झांसी की तरह कोर्ट कर लिया गया था। और अंग्रेज रेजिमेंट उनके समस्त कार्यो पर निगाह रखे हुई थी। रानी ने अपनी ओर से क्रान्ति का सन्देश देने के लिए अपने आसपास के सभी राजाओं और प्रमुख जमीदारों को चिट्ठी के साथ कांच की चूड़ियां भिजवाई उस चिट्ठी में लिखा था। ‘‘देश की रक्षा करने के लिए या तो कमर कसो ऐ चूड़ी पहनकर कर मैं बैठो तुम्हे धर्म ईमान की सौगंध जो इस कागज का सही पता बैरी को दो‘‘

सभी देश भक्त राजाओं और जमीदारों ने रानी के साहस और शौर्य की बड़ी सराहना की और उनकी योजनानुसार अंग्रेंजों के खिलाफ विद्रोह का झंडा खडा कर दिया। जगह-जगह गुप्त सभाएं कर देश में सर्वत्र क्रान्ति की ज्वाला फैला दी। रानी ने अपने राज्य से कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधिकारियों को भगा दिया और राज्य एवं क्रान्ति की बागडोर अपने हाथो में ले ली। आज ऐसी आर्य वीरांगना का बलिदान और जन्मदिवस उनकी जाति (लोधी) के ही कार्यक्रम बनकर रह गए हैं। जो कि बहुत दुर्भाग्यपूर्ण हैं। वीरांगना अवंतिबाई किसी जाति विशेष के उत्थान के नहीं लडी थी। बल्कि वो तो अंग्रेजों से अपने देश की स्वतंत्रता और हक के लिए लड़ी थी। जब रानी वीरांगना अवंतीबाई अपनी मृत्युशैया पर थी तो इस वीरांगना ने अंग्रेज अफसर को अपना बयान देते हुए कहा कि ‘‘ग्रामीण क्षेत्र के लोगो को मैंने ही विद्रोह के लिए उकसाया, भड़काया था उनकी प्रजा बिलकुल निर्दोष है‘‘। ऐसा कर वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने हजारो लोगों को फांसी और अंग्रेजों के अमानवीय व्यवहार से बचा लिया। मरते-मरते ऐसा कर वीरांगना अवंतिबाई लोधी ने अपनी वीरता की एक और मिसाल पेश की। ब्रह्मानंद राजपूत निसंदेह वीरांगना अवंतीबाई का व्यक्तिगत जीवन जितना पवित्र, संघर्षशील तथा निष्कलंक था, उनकी मृत्यु (बलिदान) भी उतनी ही वीरोचित थी।

धन्य है वह वीरांगना जिसने एक अद्वितीय उदहारण प्रस्तुत कर 1857 के भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में 20 मार्च 1858 को अपने प्राणों की आहुति दे दी। ऐसी वीरांगना का देश की सभी नारियो और पुरुषों को अनुकरण करना चाहिए और उनसे सीख लेकर नारियो को विपरीत परिस्थतियो में जज्बे के साथ खड़ा रहना चाहिए और जरूरत पड़े तो अपनी आत्मरक्षा अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए वीरांगना का रूप भी धारण करना चाहिए। 20 मार्च 2017 को ऐसी आर्य वीरांगना के 159वें बलिदान दिवस पर उनको शत्-शत् नमन और श्रद्धांजलि।
 
                                                                  ये लेखक के अपने विचार है। 
                                                                           ब्रह्मानंद राजपूत

 

  

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