आखिर कैसे शिव भक्त बन गए राहुल गांधी

Edited By Pardeep,Updated: 18 Nov, 2018 03:40 AM

how rahul became a devotee of rahul gandhi

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी व्यक्तिगत धार्मिक आस्था को लेकर निरंतर विरोधियों के निशाने पर रहते हैं, सवाल उनके हिन्दू होने को लेकर भी पूछा जाता है, उनके मंदिर-मंदिर परिक्रमा पर भी बवाल मचता है और उनकी हालिया शिव भक्ति को लेकर भी उन पर तंज कसा...

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी व्यक्तिगत धार्मिक आस्था को लेकर निरंतर विरोधियों के निशाने पर रहते हैं, सवाल उनके हिन्दू होने को लेकर भी पूछा जाता है, उनके मंदिर-मंदिर परिक्रमा पर भी बवाल मचता है और उनकी हालिया शिव भक्ति को लेकर भी उन पर तंज कसा जाता है।

भगवा विरोधियों की दुखती रग उनकी मानसरोवर यात्रा को लेकर है जिसे वे एक प्रपंच करार देना चाहते हैं। पर राहुल से जुड़े विश्वस्त सूत्र खुलासा करते हैं कि 2013 में केदारनाथ की भयंकर त्रासदी के बाद जब राहुल बाबा केदारनाथ के दर्शन को गए थे तब ही उन्होंने अपने करीबियों के समक्ष यह इच्छा जाहिर की थी कि वह मानसरोवर यात्रा पर जाना चाहते हैं। इसके बाद से ही गाहे-बगाहे उनकी धार्मिक आस्थाएं परिलक्षित होने लगी थीं। 

गांधी परिवार के करीबियों का कहना है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी शिव की अनन्य भक्तों में शुमार होती थीं। उन्होंने अपने परिवार में यह परम्परा डाली थी कि परिवार का हर सदस्य सुबह उठकर गायत्री मंत्र का जाप अवश्य करेगा, हर हिन्दू पर्व-त्यौहार के मौके पर परिवार में पूजा-पाठ जरूर होगी। श्रीमती गांधी ने तो बाकायदा अपने धार्मिक अनुष्ठानों के लिए कई व्यक्तियों को अधिकृत किया हुआ था। जब वह मंदिरों में दर्शन के लिए जाती थीं तो खुले मन से दान-दक्षिणा भी देती थीं। इस दीपावली के मौके पर 10 जनपथ में मां लक्ष्मी की पूजा हुई और सोनिया गांधी ने अपने हाथों से राहुल के माथे पर रोली और अक्षत लगाया। 

राहुल गांधी की धार्मिक आस्थाएं भी यदा-कदा उफान मारने लगती हैं, गुजरात में चुनाव प्रचार के दौरान भी उन्होंने कई मंदिरों में शीश नवाए। सूत्र बताते हैं कि आने वाले दिनों में राहुल भाजपा पर यह कहते हुए हमला साध सकते हैं कि व्यक्तिगत धार्मिक आस्था और धर्म निरपेक्षता के बीच कोई टकराव नहीं है। धर्म का संबंध व्यक्ति से है। धर्म निरपेक्षता खतरे में तब पड़ती है जब धर्म व्यक्ति की परिधि से बाहर निकलकर सत्ता पाने या इसे बनाए रखने का हथियार बन जाता है। यानी यह एक नए राहुल का अभ्युदय है, जो यह समझ चुके हैं कि सिर्फ मुसलमानों को खुश करने से काम नहीं चलेगा,  बहुसंख्यक हिन्दू भावनाओं का भी ख्याल रखना होगा और हिन्दू मान्यताओं के अनुरूप ही पूजा-अर्चना करनी होगी, यानी ‘जाकी रही भावना जैसी, हरि मूरत देखि तिन तैसी।’ 

कुशवाहा कैसे फंसे नीतीश के जाल में उपेन्द्र कुशवाहा की राजनीति और तौर-तरीकों पर लम्बे समय से नीतीश कुमार की नजर थी। नीतीश जानते थे अगर वह सिर्फ कुर्मियों के नेता बनकर रह गए तो बिहार में कुर्मी वोटरों की तादाद महज 2 फीसदी है। अगर उन्होंने कुर्मी, कोइरी और धानुक जाति की लीडरशिप हथिया ली तो बिहार की 10 फीसदी आबादी के नेता बन जाएंगे। सो यकीन मानिए उपेन्द्र कुशवाहा को एन.डी.ए. से बाहर का दरवाजा दिखाने में नीतीश की एक महत्ती भूमिका रही। कुशवाहा को लेकर उन्होंने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से कई दौर की बातचीत की। एक ओर शाह उपेन्द्र कुशवाहा से यह कहते रहे कि वह जैसा चाहेंगे वैसा ही होगा, भाजपा और नीतीश का साथ दिसम्बर तक ही है। दूसरी ओर वे नीतीश के साथ मिलकर सियासी गोटियां भी चलते रहे। 

अगर कुशवाहा ने केन्द्र में मंत्रिपद का लालच न किया होता और वह दो-तीन महीने पहले ही भाजपा का साथ छोड़ राजद के पाले में आ गए होते तो लालू उन्हें 5 से 6 सीटें दे सकते थे। अब लालू की मुश्किल यह है कि उन्हें कांग्रेस के लिए भी सीटें छोडऩी हैं, सी.पी.आई. जीतन मांझी, शरद यादव, पप्पू यादव जैसों के लिए भी सीटें छोडऩी होंगी। सबसे बड़ा पेंच तो पप्पू यादव ने फंसा रखा है। वह सुपौल के साथ मधेपुरा की भी सीट मांग रहे हैं। मधेपुरा  के लिए ही शरद यादव का भी दावा है। अगर पेंच फंसा, बात नहीं बनी तो शरद यादव दीपांकर भट्टाचार्य और उपेन्द्र कुशवाहा के साथ मिलकर अपना एक अलग ग्रुप बना सकते हैं। अगर उपेन्द्र कुशवाहा इस गठबंधन के साथ या अकेले भी चुनाव लड़ते हैं तो इससे लालू को नुक्सान नहीं होगा बल्कि कुशवाहा भाजपा-जे.डी.यू. के ही वोट काटेंगे। कुशवाहा को जल्द ही अपनी रणनीतियों को अंतिम रूप देना होगा। 

संबित पात्रा की पात्रता पर सवाल
कभी नरेन्द्र मोदी और अमित शाह दोनों के आंखों के तारे रहे भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा के अच्छे दिन अब जैसे उनसे रूठ गए हैं। नहीं तो अब तक भाजपा हाई कमान उनकी लच्छेदार भाषा और उग्र तेवरों की दीवानी थी। पर हालिया दिनों में पात्रा ने विभिन्न टी.वी. चैनलों की डिबेट में जिस नाटकीयता, आक्रामकता और शब्दों की मारकता का इस्तेमाल किया है, पार्टी नेतृत्व को लगता है कि इससे भाजपा की गरिमा को आघात पहुंचा है। सूत्रों की मानें तो पार्टी हाईकमान  ने उन्हें सचेत किया और चेतावनी दी है कि वह डिबेट में शब्दों के चयन और अपनी भाव-भंगिमाओं को लेकर और मर्यादित रहें। सीधे शब्दों में उनसे ‘डिगनिफाइड’ दिखने और रहने को कहा गया है। सो, पहले जहां उन्हें राज्यसभा में भेजा जाना लगभग तय था अब उनसे ओडिशा से लोकसभा चुनाव लडऩे को तैयार रहने को कहा गया है, जबानी जंग में वे माहिर हैं, जम्हूरियत की जंग उनकी असली परीक्षा होगी। 

पी.एम. की रेस में पवार 
सूत्रों की मानें तो अपने कोर ग्रुप की बैठक में राहुल गांधी ने साफ कर दिया है कि 2019 में वह प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं। कहते हैं राहुल ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि 2019 में उनका असली इरादा मोदी और भाजपा को पुन: सत्ता में आने से रोकना है और इसके लिए वह महागठबंधन के किसी योग्य उम्मीदवार का पी.एम. पद के लिए समर्थन कर सकते हैं। इस कड़ी में कई नाम उमड़-घुमड़ कर रहे हैं। सबसे बड़ा नाम शरद पवार का है। दूसरा नाम चंद्रबाबू नायडू का है। 

मायावती और ममता बनर्जी का है। मराठा दिग्गज शरद पवार सबसे ज्यादा राजनीतिक रिश्तों में निवेश करते हैं। एक ओर जहां वह किसानों का मुद्दा उठाते हैं तो कार्पोरेट जगत में भी उनके मित्रों की कमी नहीं है। सियासी दलों से भी उनके तार बखूबी जुड़े हैं। ममता बनर्जी से लेकर नवीन पटनायक से उनके मधुर रिश्ते हैं। अकाली दल के सुखबीर सिंह बादल भी उनके निरंतर संपर्क में बताए जाते हैं। चंद्रबाबू नायडू भले ही यह कह चुके हैं कि वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हैं पर वे अपनी गोटियां चतुराई से खेल रहे हैं। ममता बनर्जी के लिए दिल्ली में उनके सांसद डेरेक ओ ब्रायन लाबिंग कर रहे हैं तो मायावती का भी इन दिनों अन्य पार्टी के नेताओं से मेल-जोल बढ़ गया है। 

चिदम्बरम पर और कसेगा ई.डी. का शिकंजा 
यू.पी.ए. शासनकाल में भाजपा को पानी पी-पीकर कोसने वाले और कम्बल ओढ़कर घी पीने वाले पी. चिदम्बरम की मुश्किलें हैं कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहीं। सही मायनों में वह मोदी और शाह दोनों के निशाने पर हैं और भाजपाध्यक्ष की भाव-भंगिमाएं पिता-पुत्र यानी चिदम्बरम और उनके पुत्र कार्ति को लेकर कुछ ज्यादा ही सख्त हैं। प्रवर्तन निदेशालय यानी ई.डी. के मुखिया करनैल सिंह के रिटायर होने के बाद आनन-फानन में भारतीय राजस्व सेवा के संजय कुमार मिश्रा को ई.डी. का नया अंतरिम निदेशक नियुक्त किया गया, इसकी वजह बड़ी साफ है। 

मिश्रा न सिर्फ भगवा शीर्ष के मुफीद बैठते हैं बल्कि वे कालांतर में प्रणव मुखर्जी और ओमिता पॉल के भी बेहद भरोसेमंद रह चुके हैं। सबको मालूम ही है कि प्रणव मुखर्जी और चिदम्बरम के आपसी रिश्ते कभी मधुर नहीं रहे हैं। वैसे भी मिश्रा गांधी परिवार के हेराल्ड मामले की जांच से जुड़े रहे हैं और उन्होंने मायावती की आय से अधिक सम्पत्ति की जांच में भी निर्णायक भूमिका निभाई है। मिश्रा पहले भी अपने को प्रूफ कर चुके हैं, चिदम्बरम मामले में भी उन्हें अपनी वैसी ही कुशलता दिखानी होगी। 

राहुल गांधी का नया हिंदी प्रेम
राहुल गांधी और हिंदी एक बेमेल-सी तुकबंदी लगती है, पर आश्चर्यजनक तौर पर इन दिनों राहुल का नया-नवेला हिंदी प्रेम हिलोरें मार रहा है। उनके भाषणों में जहां हिंदी की सेहत दुरुस्त दिख रही है, वहीं वह इन दिनों अपने कथनों में राष्ट्रकवि दिनकर समेत कई अन्य प्रतिष्ठित हिंदी कवियों को उद्धृत कर रहे हैं। राहुल का यह बदलाव चौंकाने वाला है क्योंकि न केवल उनकी भाषा शैली किंचित काव्यात्मक हो गई है, बल्कि वह दनादन हिंदी में ट्वीट भी दागने लगे हैं। राहुल को हिंदी की ओर ले जाने में उनकी टीम से नए-नए जुड़े जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़े-लिखे मूलरूप से बिहार के रहने वाले संदीप सिंह की एक महत्ती भूमिका है। कौन हैं यह संदीप सिंह, यह तो राहुल विरोधियों को ही ढूंढना होगा। 

रायबरेली से प्रियंका
गांधी परिवार की ओर से इस बात के साफ तौर पर संकेत मिलने लगे हैं कि अपनी स्वास्थ्य गत समस्याओं की वजह से सोनिया गांधी शायद 2019 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ पाएंगी। संकेत इस बात के भी मिल रहे हैं कि सोनिया रायबरेली में बंधे रहने की बजाय देश भर में घूम-घूमकर कांग्रेस और कांग्रेस समर्थित विपक्षी उम्मीदवारों के पक्ष में चुनाव प्रचार करेंगी। ऐसे में इस बात के कयास लगने शुरू हो गए हैं कि सोनिया की रायबरेली सीट से 2019 में प्रियंका गांधी वाड्रा चुनाव लड़ सकती हैं। पर प्रियंका ने इस बात का फैसला पूरी तरह से मां सोनिया और भाई राहुल पर छोड़ दिया है। वहां से ग्रीन सिग्नल मिलने के बाद ही प्रियंका सक्रिय राजनीति में कदम ताल करती नजर आ सकती हैं।-त्रिदीब रमण

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