भारतीय अर्थव्यवस्था : समस्या और समाधान

Edited By ,Updated: 23 Aug, 2019 01:13 AM

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हाल के दिनों में भारत की अर्थव्यवस्था अपने तथाकथित निराशाजनक प्रदर्शन को लेकर सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में है। कई स्वघोषित विशेषज्ञों का आरोप है कि यह स्थिति मोदी सरकार की नीतियों के कारण हुई है। क्या वाकई ऐसा है? निॢववाद रूप से विनिर्माण...

हाल के दिनों में भारत की अर्थव्यवस्था अपने तथाकथित निराशाजनक प्रदर्शन को लेकर सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में है। कई स्वघोषित विशेषज्ञों का आरोप है कि यह स्थिति मोदी सरकार की नीतियों के कारण हुई है। क्या वाकई ऐसा है?

निॢववाद रूप से विनिर्माण मैन्युफैक्चरिंग, ऑटोमोबाइल उद्योग सहित कई परम्परागत उद्योगों की रफ्तार विगत कुछ समय से कुंद हुई है और सच यह भी है कि वित्त वर्ष 2018-19 की पहली तिमाही में आर्थिक विकास दर 8.2 प्रतिशत से घटकर अंतिम तिमाही में 5.8 प्रतिशत पर आ गई है। अब ऐसा क्यों हुआ? क्या भारतीय अर्थव्यवस्था में इस प्रतिकूल स्थिति के  लिए- अंतर्राष्ट्रीय और स्थानीय कारण, संयुक्त रूप से जिम्मेदार नहीं हैं, जिन पर स्वयंभू अर्थशास्त्रियों के एक वर्ग द्वारा या तो मुखर रूप से चर्चा नहीं की जा रही है या फिर उनसे राजनीतिक, वैचारिक और व्यक्तिगत कारणों से बचने का प्रयास किया जा रहा है। 

वैश्विक स्थिति क्या है?
वर्तमान समय में दुनिया की क्या स्थिति है। इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने वैश्विक आॢथक वृद्धि दर के अनुमान को गत वर्ष 3.6 प्रतिशत की तुलना में घटाकर 3.2 प्रतिशत कर दिया है, जो वैश्विक मंदी का एक बड़ा सूचक है। सिंगापुर और दक्षिण कोरिया जैसे बड़े निर्यातक देशों की भी निर्यात वृद्धि दर नकारात्मक हो गई है। इस वैश्विक गिरावट के लिए अमरीका-चीन के बीच का व्यापार युद्ध मुख्य रूप से जिम्मेदार है। इस टकराव के कारण ही चीन आर्थिक रूप से इस समय अपने न्यूनतम दौर से गुजर रहा है, जिसका प्रभाव शेष विश्व में भी दिखने लगा है। 

चीन के हालिया आंकड़ों के अनुसार, दूसरी तिमाही में चीन की वृद्धि दर गिरकर 6.2 प्रतिशत पर आ गई, जो पहली तिमाही में 6.4 प्रतिशत थी। इस तरह चीन वर्ष 1992 के बाद सबसे न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया है। चीन की इस स्थिति के लिए अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की संरक्षणवादी नीतियां जिम्मेदार हैं, जिसके कारण चीन पर निवेशकों का विश्वास कम होता जा रहा है। ट्रम्प पहले ही चीन से आयात होने वाली 250 अरब डॉलर की वस्तुओं पर कर बढ़ा चुके हैं और वह अगले माह से इसमें और भी बढ़ौतरी करने वाले हैं। हाल ही में ट्रम्प ने ट्वीट करते हुए कहा था, ‘‘अमरीका चीन से हमारे देश में आ रहे 300 अरब डॉलर के बाकी सामानों और उत्पादों पर एक सितम्बर से 10 प्रतिशत अतिरिक्त शुल्क लगाना शुरू करेगा।’’ इस व्यापारिक.युद्ध के कारण ही विगत माह जुलाई में चीन की औद्योगिक उत्पादकता भी घट गई है, जो पिछले 17 वर्षों में सबसे कम है। 

बात चीन तक सीमित नहीं है। यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और चार-पहिया वाहन उत्पादन के लिए प्रसिद्ध देश जर्मनी पारम्परिक रूप से निर्यात पर निर्भर है, किंतु आज वह भी गहरे संकट में है। पहली तिमाही के आंकड़ों के हिसाब से जर्मनी की वाॢषक वृद्धि दर 0.9 प्रतिशत से कम होकर 0.4 प्रतिशत पर आ गई है और पूरे 2019 के लिए इसके 0.5 प्रतिशत होने का अनुमान है, जो वर्ष 2018 में 1.5 प्रतिशत थी। चालू वित्त वर्ष में ब्रितानी अर्थव्यवस्था की दूसरी तिमाही में गिरावट दर्ज की गई है। बैंक ऑफ इंगलैंड के अनुसार, ‘‘ब्रेग्जिट सुगमता से होने के बाद भी ब्रिटेन 2020 की शुरूआत में मंदी की चपेट में आ सकता है।’’ यदि अमरीका की बात करें तो वहां के अर्थशास्त्रियों का मानना है कि वहां अगले वर्ष 2020 या 2021 या बाद में बड़ी मंदी आ सकती है। अमरीकी आॢथक विशेषज्ञों के बीच एक सर्वेक्षण हुआ था, जिसमें बहुमत की राय थी कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था मंदी के कगार पर खड़ी है। 

अब इस पृष्ठभूमि में यह स्थापित सत्य है कि वैश्वीकरण और उदारीकरण के दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था की विभिन्न कडिय़ां, विश्व के अन्य देशों और उनकी आॢथक स्थिति से जुड़ी हुई हैं। जब विश्व की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं (भारत सहित) एक-दूसरे पर निर्भर हैं, तब उपरोक्त वैश्विक स्थिति में भारत बिल्कुल भी इसका अपवाद नहीं हो सकता। इसी के परिणामस्वरूप, वित्त वर्ष 2018-19 में जहां भारत का निर्यात ऐतिहासिक 9 प्रतिशत की वृद्धि दर पर पहुंच गया था, वह चालू वित्त वर्ष के जून माह में एकाएक गिर गया। भारतीय ऑटोमोबाइल क्षेत्र को वैश्विक मंदी ने सर्वाधिक प्रभावित किया है। देश के कई नामी दोपहिया और चारपहिया वाहन निर्माताओं ने अपना उत्पादन घटा दिया है, जिसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में बेरोजगारी बढऩे की आशंका है। 

स्थानीय मुद्दों का प्रभाव
अंतर्राष्ट्रीय कारणों के बाद अब उन स्थानीय मुद्दों की चर्चा करना आवश्यक है, जिनसे भारतीय अर्थव्यवस्था वर्षों से प्रभावित है। किसी भी उद्योग को स्थापित करने हेतु सबसे पहले जमीन की आवश्यकता होती है, जो देश में पूर्ववर्ती सरकारों की लोकलुभावन नीतियों के कारण अत्यधिक महंगी हो चुकी है। गत वर्षों में ऐसे कई अवसर आए हैं, जब उद्योग हेतु बंजर या बेकार पड़ी भूमि के अधिग्रहण के लिए प्रदेश सरकारों ने वोटबैंक की राजनीति के अंतर्गत प्रति एकड़ करोड़ों रुपयों का भुगतान किया है।

इसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि आज अन्य राज्यों में भी जमीन अधिग्रहण के समय करोड़ों के मुआवजे की मांग हो रही है। स्थिति यह हो गई है कि जिन उद्योगपतियों के पास भारी निवेश करने हेतु पर्याप्त धन और परिकल्पना है, वे देश के सख्त कानून और नीतियों के कारण विदेशों में औद्योगिक इकाइयों की स्थापना कर रहे हैं और जिनके पास हाल के कुछ वर्षों में एकाएक अकूत धन आया है, जिसमें जमीन अधिग्रहण प्रक्रिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, उनमें निवेश संबंधी दूरदर्शी योजना का भारी अभाव है। 

देश में पूंजी का महंगा होना भी समस्या को विकराल बना रहा है। अधिकतर विकसित राष्ट्रों सहित कुछ विकासशील देशों में बैंकों से पूंजी 2.3 प्रतिशत के ब्याज पर आसानी से उपलब्ध है, जबकि भारत में 14 प्रतिशत या इससे भी अधिक ब्याज दर पर बैंक कई कागजी कार्रवाइयों के बाद पूंजी जारी करता है। नीरव मोदी और विजय माल्या जैसे संबंधित मामलों के बाद हाल के वर्षों में बैंक मोटा ऋण जारी करने से भी हिचक रहे हैं। इसके अतिरिक्त श्रम कानून इतने जटिल हैं कि अधिकतर औद्योगिक इकाइयां विस्तार करने से बचती हैं। यूं तो ये कानून कर्मचारियों के हितों की रक्षा करने हेतु हैं, किंतु इनका प्रतिकूल असर हो रहा है। यदि भारत की एशिया में अन्य बड़ी आर्थिक शक्तियों से तुलना करें, तो उद्योग के लिए यहां भूमि और पूंजी ही नहीं, अपितु बिजली, रेलवे और हवाई भाड़ा भी महंगा है। आवश्यकता इस बात की है कि इसमें वांछित सुधार किया जाए। 

कृषि क्षेत्र का योगदान
हमारे देश में अप्रशिक्षित और अनुशासनहीन श्रमिकों का एक वर्ग ऐसा भी है, जो प्रतिस्पर्धा के दौर में किसी काम का नहीं है। यह किसी से नहीं छिपा है कि स्वतंत्रता के समय देश की दो-तिहाई आबादी कृषि आधारित रोजगार पर निर्भर थी, जिसका सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) में योगदान 52 प्रतिशत था, अर्थात लोग भी अधिक थे और कमाई भी। किंतु सात दशक बाद भी देश की आधी जनसंख्या अब भी इसी क्षेत्र पर निर्भर है, किंतु उनका जी.डी.पी. में योगदान अब 16.17 प्रतिशत है अर्थात आजीविका के लिए कृषि पर आश्रित लोग अधिक हैं, किंतु कमाई सीमित। अब कृषि क्षेत्र में जो अतिरिक्त श्रम प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध है भी, वह ग्रामीण क्षेत्रों में लचर शिक्षण व्यवस्था के कारण अन्य उद्योगों में स्थानांतरित नहीं हो पा रहा है या यूं कहें कि वह होना भी नहीं चाहता है। वास्तव में, यह स्थिति देश में दशकों से बेरोजगारी को बढ़ावा दे रही है। 

ऐसा नहीं है कि उपरोक्त स्थिति में सुधार नहीं हो रहा है। यह पिछले पांच वर्षों में मोदी सरकार की अनुकूल नीतियां ही हैं, जिनके कारण व्यापार सुगमता से संबंधित ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनैस’ सूची में भारत ने 53 पायदानों का सुधार किया है। इस दिशा में और अधिक उन्नति करने की महत्वाकांक्षा लिए मोदी सरकार ने इस वर्ष बजट में आधारभूत ढांचे के विकास हेतु अगले पांच वर्षों में 100 लाख करोड़ रुपए के निवेश की रूपरेखा तैयार की है। साथ ही सरकारी बैंकों को 70 हजार करोड़ रुपए देने की घोषणा की है। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि भले ही वैश्विक मंदी अस्थायी हो, किंतु देश में उद्योग और विनिर्माण क्षेत्र के समक्ष खड़ी बाधाएं पिछले कुछ दशकों में ‘स्थायी’ बन चुकी हैं जिनमें व्यापक सुधार ही आज सफलता की कुंजी है।-बलबीर पुंज

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