चोट और दर्द को छिपाना लगभग असंभव

Edited By ,Updated: 21 Mar, 2021 04:14 AM

injury and pain almost impossible to hide

मैं चोट और दर्द जैसी भावनाओं को दांव पर लगाने के लिए तैयार हूं जिन्हें छिपाना लगभग असम्भव सा है। यह आपके चेहरे पर दिखती है, आपके स्वर में प्रतिबिंबित होती है और आपकी प्रतिक्रिया को भाषा का रंग देती है। यह सबसे विनम्र नागरिक

मैं चोट और दर्द जैसी भावनाओं को दांव पर लगाने के लिए तैयार हूं जिन्हें छिपाना लगभग असम्भव सा है। यह आपके चेहरे पर दिखती है, आपके स्वर में प्रतिबिंबित होती है और आपकी प्रतिक्रिया को भाषा का रंग देती है। यह सबसे विनम्र नागरिक के रूप में समान रूप से सच है क्योंकि यह सरकार की सबसे बड़ी झूठी उपलब्धि है। हम भारतीयों के लिए यहां पर एक और मोड़ है। हम पश्चिम से प्रशंसा की लालसा रखते हैं। उनके अभिनंदन हमें उत्तेजित कर देते हैं और उनकी आलोचना हमें गहरा आघात पहुंचाती है। तो नोबेल पुरस्कार और बुकर पुरस्कार का मतलब किसी भी साहित्य अकादमी सम्मान से अधिक है।

आक्सब्रिज, हार्वर्ड और येल हमारे लिए सेंट स्टीफन, प्रैजीडैंसी और सेंट जेवियर से ज्यादा वजन रखते हैं और देखो हम सुंदर पिचई, सत्य नाडेला और इंद्रा नूई पर कितना गर्व करते हैं। हम शायद ही नारायण मूर्ति या अजीम प्रेमजी का उल्लेख करते हैं। मुझे ईमानदार तरीके से इसे स्वीकार करना चाहिए कि यह ‘विदेशी’ मोहर है जो चीजों को विशेष बना देती है। यही कारण है कि फ्रीडम हाऊस, वी-डेम और द इकोनॉमिस्ट इंटैलीजैंस यूनिट से हमारे लोकतंत्र की प्रशंसा नशीली क्यों है। जब वे निहारते हैं तो हम दम तोड़ देते हैं। 

यह मैं कहूंगा कि विदेश मंत्री की अप्रत्यक्ष रूप से सबसे अच्छी व्याख्या है, यदि वे अव्यावहारिक हैं। उनकी आलोचना को ‘पाखंड’ करार देते हुए उन्होंने इन उच्च सम्मानित संस्थानों को ‘‘दुनिया के स्वयंभू संरक्षक कहा जिन्होंने अपने नियमों और मानदंडों का आविष्कार किया है और दावा किया है कि वे अपने फैसले पारित करते हैं और फिर इसे वैश्विक प्रयोग में लाते हैं।’’ लेकिन वह सब नहीं है। 

उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि उन्हें पचाना मुश्किल है कि भारत में किसी एक को उनकी स्वीकृति नहीं मिल रही। अब चोट स्वयं स्पष्ट है और मैं नाम लेने को जानबूझ कर दरकिनार कर दूंगा। लेकिन भारत में कोई भी व्यक्ति उनकी स्वीकृति नहीं देख रहा है। शायद हिमालय की चोटी या फिर अंडेमान के जंगलों में दूर-दूर तक कोई ऐसा व्यक्ति ध्यान में मग्न हो। लेकिन सरकार में उस तरह के किसी व्यक्ति के होने में मुझे संदेह है। वास्तव में साऊथ ब्लॉक द्वारा भारत की व्यापार रैंकिंग में सुधार किए जाने के बाद कैसा हो सकता है। जब मंत्रियों का समूह महीनों के लिए मिलता है और 97 पन्नों के दस्तावेजों को तैयार करता है कि कैसे पश्चिमी प्रैस और लोगों की राय को प्रभावित किया जाए? 

वल्र्ड प्रैस फ्रीडम इंडैक्स में भारत की रैंकिंग को सुधारने के लिए सूचना और प्रसारण मंत्रालय एक इंडैक्स मॉनीटरिंग सैल बनाता है? याद रखें कि विदेश मंत्री एस. जयशंकर उस समूह का हिस्सा थे जिसने अंतर्राष्ट्रीय समाचार प्लेटफार्मों पर सरकार के ‘झूठे कथन’ और ‘नकारात्मक कवरेज’ को बेअसर करने की मांग की थी। क्या यह अनुमोदन की तलाश नहीं है या फिर इसके लिए बेताब है? 

मई 2015 में ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने प्रधानमंत्री कार्यालय में उनके प्रथम वर्ष के उपलक्ष्य में उन्हें चिह्नित करने के लिए एक विशेष रिपोर्ट और कवर स्टोरी की। पहले पन्ने का शीर्षक था ‘भारत का एक आदमी बैंड?’ इसके संवाददाता एडम रॉर्बट्स को 90 मिनट का इंटरव्यू दिया गया। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को विचारशील, ईमानदार और संक्षिप्त बताया और भविष्य वाणी की कि प्रधानमंत्री वास्तव में परिवर्तनकारी शक्ति बन सकते हैं। सरकार बेहद रोमांचित थी। मंत्रियों ने पत्रिका का ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश की। उस समय जयशंकर विदेश सचिव थे। मुझे आश्चर्य है कि उनके पेट को यह प्रशंसा अपचनीय लगती थी। 

अगर मंत्री इस बात का सबूत चाहते हैं कि असहिष्णु भारतीय सरकारें किस प्रकार मतभेद रखती हैं तो उन्हें दिल्ली में एक जूनियर जज के शब्द सुनने होंगे। धर्मेन्द्र राणा आसानी से बता सकते हैं कि 2016 और 2019 के बीच राजद्रोह के मामले 16.5 प्रतिशत क्यों बढ़े हैं। संयोगवश यह आंकड़ा सरकार के अपने राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो से आता है। यह आत्मनिर्भर है।‘एमनैस्टी’ की तरह ‘वाशिंगटन पोस्ट’ और ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने अपनी चिंताओं के साथ हमारे देश के लिए आपातकाल के काले दिनों के दौरान भारतीय लोकतंत्र की टिमटिमाती लौ को जीवित रखा। मेरा मानना है कि ‘डेम’ और ‘फ्रीडम हाऊस’ हमारी प्रतिबद्धताओं की सरकारों को याद दिलाते रहेंगे जो हमारे संविधान में दर्शाई गई।-करण थापर  
    

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