भारत के साथ वार्ता से पहले इस्लामाबाद को ‘झगड़े का रास्ता’ छोडऩा पड़ेगा

Edited By Pardeep,Updated: 01 Sep, 2018 03:05 AM

islamabad will have to leave  the path of contention before talks with india

पाकिस्तान के नवनिर्वाचित 22वें प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपनी राजनीतिक पारी की शुरूआत ‘नया पाकिस्तान’ बनाने के अपने सुधारवादी एजैंडे के साथ शुरू की है। संवेदनशील द्विपक्षीय तथा वैश्विक मुद्दों को एक ओर रखते हुए वह पहले ही सामंतवादी विचारधारा वाली...

पाकिस्तान के नवनिर्वाचित 22वें प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपनी राजनीतिक पारी की शुरूआत ‘नया पाकिस्तान’ बनाने के अपने सुधारवादी एजैंडे के साथ शुरू की है। संवेदनशील द्विपक्षीय तथा वैश्विक मुद्दों को एक ओर रखते हुए वह पहले ही सामंतवादी विचारधारा वाली घरेलू हकीकतों की पेचीदगियों से निपटने की शुरूआत करने वाले के तौर पर उभरे हैं। पहले चरण में उन्होंने चुनाव से पूर्व किए गए अपने वायदे को निभाया है कि वह एक छोटे घर में रहेंगे तथा शानदार प्रधानमंत्री आवास को या तो शिक्षण संस्थान अथवा किसी सार्वजनिक इस्तेमाल के स्थान में बदल देंगे। 

दूसरे, 21 अगस्त को उन्होंने विदेशी अथवा घरेलू यात्रा के लिए विशेष विमान का इस्तेमाल न करने का निर्णय लिया। तीसरे, उन्होंने यह भी निर्णय लिया है कि वह दो वाहनों का इस्तेमाल करेंगे और दो सेवादार रखेंगे। उन्होंने कथित रूप से बड़े ताम-झाम वाले आधिकारिक प्रोटोकॉल का इस्तेमाल करने से इंकार कर दिया है। चौथे, नई सरकार ने सरकारी कोषों के विवेकाधीन इस्तेमाल तथा अधिकारियों द्वारा फस्र्ट क्लास विमान यात्रा, जिनमें प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस, सीनेट के चेयरमैन, नैशनल असैम्बली के स्पीकर तथा मुख्यमंत्री शामिल हैं, पर प्रतिबंध लगा दिया है।अब उन्हें क्लब अथवा बिजनैस क्लास में यात्रा करनी होगी। 

ये निश्चित तौर पर क्रांतिकारी कदम हैं, जिनसे पाकिस्तान की भविष्य की राजनीति की सूरत में बदलाव अवश्य आएगा। यह हमारे ऊंची हवा में उडऩे वाले नेताओं के लिए एक सबक है। मुझे विश्वास है कि सत्ताधारी सम्भ्रांत वर्ग के एक हिस्सा तथा गहरे समाए हुए निहित स्वार्थों में अच्छे प्रशासन के लिए इमरान खान के मितव्ययिता के कदमों के खिलाफ कुछ नाराजगी जरूर पैदा होगी। मगर कोई भी पूर्व क्रिकेटर के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं करेगा क्योंकि उन्हें सेना का समर्थन प्राप्त है। है न? 

इमरान का मितव्ययिता का अभियान इस्लामाबाद के प्रशासन में पहले कभी व्यावहारिक तौर पर नहीं देखा गया था। आज जो स्थिति है, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था बुरी हालत में है। सार्वजनिक खर्चों के कुछ स्रोत निम्नतम स्तर पर पहुंच गए हैं क्योंकि आतंकवाद के जेहादी तत्वों की वृद्धि के कारण अमरीका द्वारा हथियारों तथा आॢथक सहायता के रूप में मिलने वाले कोष में बहुत अधिक कटौती कर दी गई है। आतंकवाद आखिर आतंकवाद ही होता है, चाहे यह नई दिल्ली पर हमला करे अथवा श्रीनगर पर। 

पीछे नजर डालें तो अमरीकी सहायता दो अरब डालर (1 डालर= 115.550 पाकिस्तानी रुपए) तक सिकुडऩे के बावजूद पाकिस्तान ने 2018-19 के लिए अपना रक्षा खर्च काफी बढ़ा लिया है जो हालिया वर्षों में सर्वाधिक वृद्धि है। पाकिस्तान का रक्षा बजट 1 खरब रुपए के आंकड़े को पार कर गया है। यदि सशस्त्र बल विकास कार्यक्रम (ए.एफ.डी.पी.) के अंतर्गत 100 अरब रुपए को रक्षा खर्चे में डाल दिया जाए तो यह वृद्धि 30 प्रतिशत बन जाती है। यह याद रखा जाना चाहिए कि वाशिंगटन ने इस आधार पर अपनी सहायता निलंबित कर दी थी कि इस्लामाबाद या तो इस्लामिक आतंकवादियों की मदद कर रहा है या उनकी ओर से आंखें मूंद कर बैठा है जो अफगानिस्तान में हमलों के लिए पाकिस्तान की जमीन का इस्तेमाल एक लांच पैड के तौर पर कर रहे हैं। 

अमरीका ने पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के शिकार के तौर पर भारत का उल्लेख करने से परहेज किया है। हालांकि किसी भी देश ने राज्य की नीति के तौर पर आतंकवाद का इतना बर्बर तरीके से इस्तेमाल नहीं किया जितना कि पाकिस्तान दशकों से कर रहा है, मुख्य रूप से भारत के खिलाफ, विशेष तौर पर जम्मू तथा कश्मीर में। यह जाना-माना तथ्य है कि पाकिस्तान सेना की इंटर सर्विसिज इंटैलीजैंस (आई.एस.आई.) निर्दयी कौशल के साथ ‘नष्ट, सहयोजन तथा हत्या’ करती है। यह भारत को ‘दुश्मन नं. एक’ के तौर पर निशाना बनाती है और अपनी आतंकवादी इकाइयों: लश्कर-ए-तोयबा, जैश-ए-मोहम्मद, हिजबुल मुजाहिद्दीन तथा अन्य छोटे आतंकी समूहों के लिए पर्याप्त रक्षा बजट का प्रावधान करती है। इन कोषों का एक हिस्सा घाटी में हुर्रियत नेताओं के लिए अलग रखा जाता है, जो ‘धन’ का इस्तेमाल जमीन खरीदने तथा ‘युवा पत्थरबाजों’ व अन्य शरारती तत्वों को वित्तीय सहायता देने के लिए इस्तेमाल करते हैं। 

मैं यह मुद्दे इमरान खान की भारत-पाकिस्तान वार्ता पुन: शुरू करने की इच्छा की पृष्ठभूमि में उठा रहा हूं। निश्चित तौर पर वार्ता दोबारा शुरू करने की जरूरत है। मगर मेरा मुद्दा यह है कि क्या नए प्रधानमंत्री ने भारत-पाकिस्तान वार्ता शुरू करने के लिए अपने सर्वशक्तिमान जनरलों से स्वीकृति प्राप्त कर ली है? मैं पहले भी यह कह चुका हूं कि वार्ता तथा आतंक साथ-साथ नहीं चल सकते। हम इमरान की राजनीतिक सीमाओं से अच्छी तरह वाकिफ हैं। वह भारत को लेकर सेना की सोच की सीमा को पार नहीं कर सकते। 

इमरान खान के लिए वास्तविक चुनौती यह होगी कि वह तालिबान तथा अन्य आतंकवादी ताकतों की गतिविधियों को पाकिस्तान के साथ-साथ भारत के खिलाफ नियंत्रित करने हेतु अपने सैन्य अधिष्ठान से निपटने के लिए कैसी व्यवस्था करते हैं। यदि वह पाकिस्तान में गरीब लोगों के हितार्थ अपने ‘कल्याणकारी राष्ट्र’ के सपने को साकार करना चाहते हैं तो आतंकवादी गतिविधियों पर अंकुश लगाने से कुछ हद तक आर्थिक गतिशीलता में मदद मिलेगी। मगर कल्याणकारी राष्ट्र बनाना हवा में किले बनाने के समान नहीं है। इसके लिए प्राथमिकताओं के कुछ समायोजन की जरूरत होगी।

क्या इमरान को यह एहसास है कि कैसे पाकिस्तान के मूल्यवान स्रोत ‘प्रशिक्षण शिविरों’ में नई भॢतयों पर खर्च किए जा रहे हैं ताकि आतंकवाद का मुंह भारत की ओर किया जा सके। और इसके परिणाम क्या निकले? यदि वह भारत के साथ शांति चाहते हैं तो उन्हें अपने जनरलों को शांति बारे अपनी कार्य योजना बारे बताना होगा। यदि उनमें तथा उनके जनरलों के दिल में भारत के साथ रचनात्मक वार्ता के लिए वास्तव में परिवर्तन आया है तो इस्लामाबाद को झगड़े का रास्ता छोडऩा होगा तथा किसी भी तरीके से कश्मीर को हड़पने के लिए छद्म युद्ध के जनरल जिया के सिद्धांत को दफन करना होगा।-हरि जयसिंह

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