रुपए की गिरावट को रोकना जरूरी

Edited By ,Updated: 26 May, 2022 06:57 AM

it is important to stop the fall of rupee

रूस -यूक्रेन संकट और अमरीकी फैडरल रिजर्व की ब्याज दर में हुई वृद्धि रुपए की वर्तमान कमजोरी के पीछे के कारण बताए जा रहे हैं, क्योंकि यूक्रेन संकट के कारण आपूॢत शृंखला बाधित हुई है।  अंतर्राष्ट्रीय बाजार महंगाई का आसमान छू रहे हैं, खासतौर पर

रूस -यूक्रेन संकट और अमरीकी फैडरल रिजर्व की ब्याज दर में हुई वृद्धि रुपए की वर्तमान कमजोरी के पीछे के कारण बताए जा रहे हैं, क्योंकि यूक्रेन संकट के कारण आपूर्ति शृंखला बाधित हुई है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार महंगाई का आसमान छू रहे हैं, खासतौर पर कच्चे तेल की कीमतें। महंगे कच्चे तेल के लिए अधिक डालर चुकाने की वजह से डालर की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, दूसरी तरफ  फैडरल रिजर्व ने 2 दशक में पहली बार ब्याज दर में 50 आधार अंकों की वृद्धि की है। इससे स्वत: ही विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई.) का आकर्षण अमरीकी अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ा है। 

भारत के अस्थाई आॢथक वातावरण के बदले अमरीकी अर्थव्यवस्था में निवेश को वे अधिक सुरक्षित समझ रहे हैं। इस कारण भारतीय शेयर बाजार में विदेशी निवेशकों ने जोरदार बिकवाली शुरू कर दी है। इस साल अब तक एफ.आई.आई. की 1.3 लाख करोड़ रुपए की बिकवाली हो चुकी है। यह सिलसिला जारी है और आगे भी जारी रहने की आशंका है। 

एफ.आई.आई. की बिकवाली से रुपए की मांग और घटी, जो 9 मई को करीब रसातल में ही पहुंच गया था, जबकि डालर 20 साल के सर्वोच्च स्तर पर विराजमान है। पिछले आंकड़े उठा कर देखें तो रुपए में गिरावट की घटना नई नहीं है। इसकी शुरूआत 1966 के बाद हुई, जब रुपए को पहली बार डालर के मुकाबले आंका गया था। उस समय रुपए की कीमत डालर के बराबर हुआ करती थी। इसके पहले तक रुपया ब्रिटिश पौंड से जुड़ा हुआ था। आजादी के बाद सन 1966 तक एक पौंड की कीमत 13 रुपए पर ठहरी हुई थी। सन 1944 में ब्रेटन वुड्स समझौता हुआ, जिसमें भारत भी भागीदार था, जिसके तहत किसी भी सदस्य देश को अपनी मुद्रा की कीमत सोने या डालर के मुकाबले खुद तय करनी थी। 

दुर्भाग्य से इसी बीच सन 1967 में भारत को आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ा और तत्कालीन सरकार ने उससे छुटकारा पाने के लिए पहली बार रुपए की कीमत घटा कर एक डालर के मुकाबले साढ़े 7 रुपए कर दी। ब्रेटन वुड्स समझौता सन 1971 में टूट गया और भारत ने समतुल्य मूल्यांकन प्रणाली के बदले एक निश्चित दर प्रणाली अपना ली। इस मूल्यांकन प्रणाली का जुड़ाव ब्रिटिश पौंड स्टॄलग से था। एकल मुद्रा से जुड़ाव असंतुलन और नुक्सान बनाने वाला था, जिससे निपटने के लिए सन 1975 में रुपए को कई मुद्राओं की एक बास्केट से जोड़ दिया गया। उसके बाद 80 के दशक में सोवियत संघ टूटा और भारत में आर्थिक संकट की एक बार फिर वापसी हुई। आर.बी.आई. ने एक बार फिर 1991 में रुपए का 11 फीसदी अवमूल्यन किया। इसके साथ ही भारत निश्चित दर प्रणाली से बाहर निकल कर बाजार आधारित मुद्रा दर प्रणाली से जुड़ गया। 

इसके परिणामस्वरूप सन 1992 में रुपए की कीमत डालर के मुकाबले 25.92 रुपए तक गिर गई। वर्ष 2002 तक रुपया डालर के मुकाबले 48.99 रुपए पर आ गया। वर्ष 2007 में पहली बार रुपए की कीमत में उछाल आया और यह 39.27 पर पहुंच गया। उस समय प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई.) की लगातार आमद के कारण शेयर बाजार सातवें आसमान पर था, लेकिन वर्ष 2008 की वैश्विक मंदी ने वर्ष 2009 तक रुपए को डालर के मुकाबले 51.57 रुपए पर गिरा दिया और वर्ष 2013 तक रुपया 56.57 रुपए के स्तर पर पहुंच गया। इसके बाद वर्ष 2016 की नोटबंदी रुपए के लिए भस्मासुर साबित हुई, जब उसकी कीमत 68.77 रुपए के रिकार्ड निचले स्तर पर पहुंच गई, फिर वर्ष 2020 की महामारी ने रुपए को और नीचे पहुंचाया। मार्च 2020 में रुपया 76.67 पर और मार्च 2022 में 76.98 के ऐतिहासिक निचले स्तर पर पहुंच गया। 

रुपए की कमजोरी में हालांकि मजबूती का भी एक पक्ष है। आर.बी.आई. ने इसी मजबूती के लिए अतीत में रुपए की कीमत 2 बार घटाई थी। रुपए की मौजूदा कमजोरी में मजबूती का पक्ष उन वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात में छिपा है, जिनके उत्पादन में आयातित कच्चा माल या कलपुर्जों की भूमिका नगण्य है। साफ्टवेयर, कपड़ा और कृषि जैसे क्षेत्र इसका लाभ उठा सकते हैं। भारत चूंकि आयात अधिक करता है, इसलिए रुपए की कमजोरी से नुक्सान अधिक होने वाला है। वित्त वर्ष 2021-22 में देश का आयात 611.89 अरब डालर का रहा, जबकि निर्यात 419.65 अरब डालर का। यानी वित्त वर्ष 2021-22 में देश का व्यापार घाटा बढ़ कर 192.24 अरब डालर हो गया, जो वित्त वर्ष 2020-21 में 102.63 अरब डालर था। 

ऐसे में रुपए की गिरती कीमत को रोकना जरूरी है। नीतिगत उपाय के तहत आर.बी.आई. ब्याज दर बढ़ा कर बाजार में तरलता घटा कर रुपए की मांग बढ़ाने की कोशिश करता है, दूसरे, बाजार में डालर की आपूर्ति बढ़ाने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार से डालर बेचता है। लेकिन ब्याज दर बढ़ाने का आर.बी.आई. का कदम नाकाम साबित हुआ है, क्योंकि रुपए का ऐतिहासिक अवमूल्यन 4 मई को ब्याज दर में 40 आधार अंकों की वृद्धि के बाद हुआ।

आर.बी.आई. के लिए बाजार में डालर की आपूर्ति बढ़ाना भी मुश्किल भरा कदम है, क्योंकि देश का विदेशी मुद्रा भंडार 600 अरब डालर से नीचे चला गया है। इसमें लगातार गिरावट का रुख बना हुआ है। अभी भी समय है कि मोटी कमाई वालों पर प्रत्यक्ष कर और कार्पोरेट कर बढ़ाया जाए, अप्रत्यक्ष कर घटा कर महंगाई नीचे लाई जाए। इससे बाजार में मांग बढ़ेगी, नौकरियां पैदा होंगी। अर्थव्यवस्था स्थिर होगी तो विदेशी निवेशकों का भरोसा बढ़ेगा। रुपया मजबूत होगा अन्यथा रुपया जिस काले सागर में है, वहां से किनारे पर कैसे आया जाए, कह पाना कठिन है।-प्रि. डा. मोहन लाल शर्मा
 

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