राजद्रोह को देशद्रोह मानना गलत

Edited By ,Updated: 07 May, 2022 05:20 AM

it is wrong to consider treason to be treason

देश के अनेक राज्यों में राजनीतिक गिरफ्तारियों पर मीडिया में उफान है। आई.टी. एक्ट और आई.पी.सी. के प्रावधानों के तहत हो रही इन गिरफ्तारियों से कानून के साथ पुलिस के दुरुपयोग पर भी

देश के अनेक राज्यों में राजनीतिक गिरफ्तारियों पर मीडिया में उफान है। आई.टी. एक्ट और आई.पी.सी. के प्रावधानों के तहत हो रही इन गिरफ्तारियों से कानून के साथ पुलिस के दुरुपयोग पर भी सवाल खड़े होते हैं। हनुमान चालीसा विवाद पर महाराष्ट्र सरकार ने सांसद नवनीत राणा और उनके विधायक पति रवि के खिलाफ राजद्रोह के तहत मामला दर्ज किया है। राजद्रोह कानून के तहत 2012 में तमिलनाडु के कुडनकुलम में परमाणु संयंत्र का विरोध करने वाले और 2017 में झारखंड में पत्थलगड़ी आंदोलन से जुड़े हजारों आदिवासियों पर मामले दर्ज किए गए थे। 

इस कानून के तहत अरुंधती रॉय, बिनायक सेन, हार्दिक पटेल, दिशा रवि, असीम त्रिवेदी, मृणाल पांडे और राजदीप सरदेसाई जैसे एक्टिविस्ट, नेता और पत्रकारों के खिलाफ भी मामले दर्ज हो चुके हैं। इस कानून के तहत एफ.आई.आर. दर्ज होने पर लोगों को जमानत मिलने में कठिनाई होने के साथ हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भी बेवजह की मुकद्दमेबाजी बढ़ती है। 

राजद्रोह कानून को भ्रमवश बहुत सारे लोग देशद्रोह के खिलाफ कानून मानते हैं। भारत ने इंगलैंड के संसदीय लोकतंत्र को अपनाया, जहां पर 13वीं शताब्दी में राजा को देवता और देश का पर्याय मानने की शुरूआत हुई। उसके बाद इंगलैंड में 1845 में राजा की आलोचना के खिलाफ राजद्रोह का कानून बनाया गया। उसी तर्ज पर ब्रिटिश भारत में 1870 में आई.पी.सी. में राजद्रोह के अपराध का कानून जोड़ा गया। 

पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने सन 1951 में पहले संविधान संशोधन से अनुच्छेद 19(2) में पब्लिक आर्डर को भी अभिव्यक्ति की आजादी का अपवाद बनाकर राजद्रोह कानून को संवैधानिक मजबूती प्रदान कर दी। उसके बाद संविधान में 16वें संशोधन से संविधान एकता और अखंडता का प्रावधान अपवाद के तौर पर जोड़ा गया। इंदिरा गांधी के दौर में सन 1974 में सी.आर.पी.सी. में संज्ञेय अपराध बनाकर राजद्रोह को और सख्त बना दिया गया। राजद्रोह का अपराध सिद्ध होने पर दोषी व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा हो सकती है। 

अंग्रेजी राज में राजद्रोह के आरोप में मुकद्दमों के ट्रायल के बाद लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक आजादी की लड़ाई के महानायक बन गए थे। लेकिन अब इसका इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों के दमन के लिए ज्यादा हो रहा है। गांधीजी ने कहा था कि जनता में राजद्रोह जैसे काले कानूनों के जोर पर सरकार के प्रति प्रेम पैदा नहीं किया जा सकता। आजादी के बाद डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और राम मनोहर लोहिया जैसे मनीषियों ने राजद्रोह जैसे कानून की खिलाफत की थी। अंग्रेजी हुकूमत में अभिव्यक्ति की आजादी का हक नहीं था। लेकिन आजाद भारत में यह सबसे मूल्यवान संवैधानिक हक है। आजादी के बाद भारतीय गणतंत्र में संविधान के तहत हर 5 साल में जनता नई सरकार का गठन करती है। इसलिए सरकार की आलोचना को राजद्रोह के तहत अपराध नहीं माना जा सकता। 

इस कानून को खत्म करने के लिए राज्यसभा में सन 2011में निजी विधेयक पेश किया गया था। लेकिन तत्कालीन यू.पी.ए. सरकार ने इसे कोई तवज्जो नहीं दिया। उसके बाद भाजपा सरकार बनने पर कांग्रेसी सांसद शशि थरूर ने इसमें बदलाव के लिए निजी विधेयक पेश कर दिया। अंग्रेजी हुकूमत के इस काले कानून को रद्द करने के लिए सरकारों और संसद ने जब अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई तो फिर सुप्रीम कोर्ट को इस बारे में पहल करनी पड़ी। यह कानून संविधान के अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की आजादी) के साथ 14 (बराबरी) और 21 (जीवन के अधिकार) के खिलाफ भी माना जाता है। इस कानून को रद्द करने के लिए पिछले साल से सुप्रीम कोर्ट में एक दर्जन से ज्यादा याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। 

राजद्रोह और देशद्रोह को एक मानने की गलती करना संविधान के साथ पूरे देश के साथ बड़ा धोखा है। भारत के संविधान में जनता द्वारा चुनी गई सरकार हर पांच साल में बदल जाती है, इसलिए सरकार के खिलाफ बोलना गुनाह नहीं है। लेकिन देशद्रोह बहुत ही गंभीर अपराध है। देश की एकता अखंडता को खंडित करने और सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करने वाले राष्ट्र-विरोधी, पृथकतावादी और आतंकवादी तत्वों से निपटने के लिए आई.पी.सी. में कई कानून के साथ यू.ए.पी.ए., मकोका और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एन.एस.ए.)जैसे सख्त कानूनों के तहत सख्त से सख्त सजा मिलनी ही चाहिए। इंगलैंड में राजद्रोह का कानून सन 2009 में निरस्त हो गया तो फिर भारत में इसे जारी रखने का अब कोई तुक नहीं बनता है। 

राजद्रोह कानून के बारे में 60 साल पहले केदारनाथ सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने अहम् फैसला दिया था। कानून की वैधता को बरकरार रखते हुए, उसके दुरुपयोग को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने गाइडलाइंस निर्धारित की थी। उसके अनुसार आपत्तिजनक लेख, भाषण, टी.वी. प्रस्तुति या सोशल मीडिया पोस्ट के साथ हिंसा भड़काने का सीधा मामला हो, तभी राजद्रोह का मामला बन सकता है।

उस फैसले के अनुरूप अटॉर्नी जनरल ने कहा है कि इस कानून का दुरुपयोग रोकने के लिए इसे रद्द करने के बजाय सुप्रीम कोर्ट को नए तरीके से गाइडलाइन जारी करनी चाहिए। केदार नाथ सिंह मामले में 5 जजों की बैंच थी, इसलिए अब नए मामलों पर निर्णायक सुनवाई के लिए 7 या ज्यादा जजों की संविधान पीठ का गठन करने के लिए वर्तमान बैंच को न्यायिक आदेश पारित करना चाहिए।-विराग गुप्ता (एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट)
 

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