‘खाकसार आंदोलन’ को भुलाया नहीं जा सकता

Edited By ,Updated: 19 Mar, 2021 04:17 AM

khaksar movement  can not be forgotten

भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में 19 मार्च 1940 काले अध्याय के तौर पर माना जाता है और इसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। इस दिन पर पुलिस ने बेदर्दी से गोली चलाते हुए भोले-भाले खाकसारों की हत्या तथा उन्हें घायल कर दिया था।

भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में 19 मार्च 1940 काले अध्याय के तौर पर माना जाता है और इसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। इस दिन पर पुलिस ने बेदर्दी से गोली चलाते हुए भोले-भाले खाकसारों की हत्या तथा उन्हें घायल कर दिया था। इस दिन की शुरूआत लाहौर में 3013 खाकसार सदस्यों के शांतिपूर्वक मार्च से शुरू हुई थी। यह खाकसार अल्लामा मशरीकी की निजी सेना के सदस्य थे। अपनी गतिविधियों पर सरकारी पाबंदियों को लेकर खाकसार प्रदर्शन कर रहे थे। सरकार ने उन पर प्रतिबंध इस कारण लगाया था क्योंकि ब्रिटिश शासक अपने शासन के प्रति खाकसार तहरीक की सैन्य पद्धति को खतरा समझते थे। 

खाकसार परेड को रोकने के लिए एस.पी. डोनाल्ड गेन्सफोर्ड डी.एस.पी.पी.सी.डी. बैटी, डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट एफ.सी. बर्न, एक सिटी मैजिस्ट्रेट तथा हथियारों से पूरी तरह से लैस पुलिस कर्मियों के साथ घटनास्थल पर पहुंचे। खाकसारों को तत्काल ही मार्च वापस लेने को कहा गया। मगर उन्होंने सरकार की किसी भी हिदायत को मानने से इंकार कर दिया। गेन्सफोर्ड ने गुस्से में आकर खाकसार टुकड़ी के नेता को थप्पड़ मारा। इसी के चलते पुलिस तथा खाकसारों के बीच बेहद गंभीर भिड़ंत हो गई। 

पुलिस की अंधाधुंध फायरिंग से 200 से ज्यादा खाकसारों की मौत हो गई (आधिकारिक तौर पर इस गिनती को कम दर्शाया गया)। अनेकों खाकसार घायल भी हुए। रिकार्ड कीपर के रजिस्टर के अनुसार 1620 राऊंड गोलियां पुलिस को जारी हुई थीं और 1213 ही वापस लौटाई गईं। इसका मतलब यह हुआ 407 गोलियां दागी गईं। 

पुलिस ने निर्दयतापूर्ण मृत तथा घायल खाकसारों को अपने बूटों तले रौंदा। यह कत्लेआम जलियांवाला बाग (13 अप्रैल 1919) घटना के बाद सबसे खूनी तथा निर्दयी था। इस कत्लेआम से पूरे देश के लोगों में आक्रोश बढ़ गया। लाहौर में सेना को बुलाया गया और कफ्र्यू लगा दिया गया। इसके अलावा प्रैस पर पाबंदी और धारा 144 भी थोप दी गई। यह समाचार केवल ब्रिटिश इंडिया में ही नहीं बल्कि विश्व के कई हिस्सों में प्रिंट मीडिया तथा रेडियो पर भी सुनाई दिए गए। 

सरकारी प्रचार के कारण मारे गए खाकसारों को हीरो या फिर शहीद करार नहीं दिया गया बल्कि उन पर फासीवादी होने का लेबल लगा दिया गया। मशरीकी तथा उनके दो बेटों तथा अनेकों खाकसारों को गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस तथा सेना ने संयुक्त रूप से खाकसार तहरीक मुख्यालय तथा मशरीकी के घरों पर छापेमारी की। मशरीकी का बेटा एहसान उल्ला खान असलम पुलिस द्वारा घायल किया गया। 31 मई 1940 को असलम की मौत हो गई जो जख्मों का दर्द झेल न सके। 

लाहौर में उनको सुपुर्द-ए-खाक करने के दौरान 50,000 से ज्यादा लोग इकट्ठे हुए। उस क्षेत्र के इतिहास में इस मौके पर इकट्ठे अपने बेटे की अंतिम झलक लेने के लिए मशरीकी को अनुमति नहीं मिली। इस घटना के 3 दिन बाद ऑल इंडिया मुस्लिम लीग ने लाहौर में अपना सत्र बुलाया (22 मार्च से 24 मार्च 1940)। बर्बरतापूर्ण इस हत्या की लोगों ने जांच करवाने की मांग की। इसके अलावा उन्होंने मशरीकी, उनके बेटे तथा खाकसारों को भी रिहा करने की मांग की और खाकसार तहरीक पर प्रतिबंध उठाने की भी मांग की। लोगों की मांग पर पंजाब सरकार द्वारा एक जांच कमेटी बिठाई गई। इसकी अध्यक्षता सर डगलस यंग ने की (लाहौर हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस)।

जांच पूरी होने के बाद रिपोर्ट को सरकार की टेबल पर रखा गया। हालांकि रिपोर्ट को कभी भी सार्वजनिक नहीं किया गया। सरकार को अब इसे सार्वजनिक करना चाहिए। पहला शहीदी दिवस 19 मार्च 1941 को ब्रिटिश इंडिया में मनाया गया। इसकी सूचना भारत के वायसराय लार्ड लिनलिथग्रो को भेजी गई और उन्हें सूचित किया गया कि खाकसारों ने काले झंडे बांट कर शहीदी दिवस मनाया। ब्रिटिश प्रशासन शहीदों को दिए गए सम्मान के कारण नाराज हो गया। 

1941 से ही यह दिन लगातार मनाया जाता है। खाकसार शहीदों का खून व्यर्थ नहीं गया और इस खूनी कत्लेआम के 7 वर्षों के भीतर ही 200 साल का ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य भारत में अस्त हो गया। दुर्भाग्यवश 1947 को भारत के विभाजन के बाद मोहम्मद अली जिन्ना की सरकार ने मशरीकी तथा खाकसार तहरीक के विस्तृत साहित्य को जब्त कर लिया क्योंकि मशरीकी और खाकसारों ने यूनाइटेड इंडिया का समर्थन किया और पाकिस्तान के गठन का समर्थन नहीं किया तो अब नई पाकिस्तानी सरकार इतिहास में उनकी आवाज दबाना चाहती है। 

इसी तरह भारत में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने जोकि मशरीकी के कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में सहपाठी थे, कभी भी नहीं चाहा कि स्वतंत्रता आंदोलन में मशरीकी की अग्रणी भूमिका के बारे में भारतीयों को बताया जाए। क्योंकि भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में इस आंदोलन को आधिकारिक मान्यता नहीं, इसलिए मशरीकी के समर्थक और पाकिस्तान में खाकसार तहरीक लगातार ही यह शहीदी दिवस दशकों से मनाते आ रहे हैं। 

प्रत्येक वर्ष लाहौर के खाकसार तहरीक मुख्यालय में समारोह आयोजित होता है। खाकसार शहीदों को याद करने की जरूरत है क्योंकि उन्होंने ब्रिटिश इंडिया में रहने वाले मुसलमानों, हिंदुओं, सिखों तथा अन्य धर्मों के लोगों की आजादी के लिए अपना बलिदान दिया है। भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों को यह याद रखना चाहिए कि आज जो हम आजाद जीवन जी रहे हैं वह खाकसारों की शहादतों के कारण ही है। बंगलादेश, भारत तथा पाकिस्तान की सरकारों को 19 मार्च को खाकसार शहीदी दिवस को आधिकारिक रूप से मनाने की घोषणा करनी चाहिए।-नसीम युसूफ

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