...यूं ही नहीं याद आते खुशवंत सिंह

Edited By ,Updated: 23 Mar, 2024 05:23 AM

khushwant singh is not remembered just like that

अंग्रेजी लेखकों की पहली कतार में शामिल, अपने ही ढंग से बात कहने में माहिर, स. खुशवंत सिंह 100 वर्ष जीना चाहते थे। इससे पहले कि सैंचुरी बना पाते, 20 मार्च सन् 2014 को अपनी चादर समेट कर अनंत यात्रा के लिए कूच कर गए।

अंग्रेजी लेखकों की पहली कतार में शामिल, अपने ही ढंग से बात कहने में माहिर, स. खुशवंत सिंह 100 वर्ष जीना चाहते थे। इससे पहले कि सैंचुरी बना पाते, 20 मार्च सन् 2014 को अपनी चादर समेट कर अनंत यात्रा के लिए कूच कर गए। 

लेखन हो या सरकार की नौकरी (डिप्लोमैट, योजना आयोग) या धन कुबेरों के प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र और पत्रिकाएं या फिर वकालत का व्यवसाय, जिंदगी की जिंदादिली को हमेशा कायम रखा, कभी कोई समझौता नहीं किया। हालांकि मालिकों को अन्नदाता कहते थे लेकिन वे उनके याचक बनकर नहीं रहे। बिना किसी प्रकार का मुलम्मा या आवरण लगाए अपनी बात कह देते थे। पत्रकारिता करते समय विषय कोई भी हो, साफगोई की आदत ऐसी कि मिलने वाले हों अथवा पढऩे वाले, कायल हो जाते लेकिन आलोचना और वह भी कड़वी, जरूर करते। अगर यह तय कर लेते कि इस आदमी से न कभी मिलेंगे, न आगे इसे पढ़ेंगे तो इसका निर्वाह करना कठिन हो जाता और जैसे ही अगला कॉलम या संपादकीय आता तो उसका रस लेने लगते। उसके बाद वही पहले वाली रट दोहराते कि अब और नहीं पाठकों से यह रिश्ता बहुत कम लोगों को नसीब होता है जो कभी टूटा नहीं। 

पहली मुलाकात : लगभग 40 साल पहले, मन में आया कि एक ऐसी फीचर एजैंसी शुरू की जाए जो हिंदी पाठकों को दूसरी भाषाओं के लेखक जो रच रहे हैं, उससे परिचित करा सके। उस समय खुशवंत सिंह के कालम की बहुत धूम थी तो तय किया कि इसे भी हिन्दी में परोसा जाए। मुलाकात हुई और चर्चा चली तो उन्होंने पूछा कि शीर्षक क्या रखोगे, ‘न काहू से दोस्ती न काहू से बैर’ सुनते ही स्वीकृति दे दी कि इससे बढिय़ा नहीं हो सकता। इस तरह ‘विद् मैलिस टोवार्डस नन’ का रूपांतर हो गया। 

खुशवंत सिंह के लिखे को हिंदी में लिखना उतना आसान नहीं था, ठीक उसी तरह जैसे उनसे मिलना और उनकी वक्त की पाबंदी का पालन करना। 10-12 घंटों के आसपास यह रूपांतर हो पाता क्योंकि अंग्रेजी शब्दों को हिंदी में उनका अर्थ या भाव बदले बिना भाषा का सहज और सरल बने रहना जरूरी था। धीरे धीरे यह होता गया और एक समय आया कि खुशवंत सिंह के लिए पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने उन्हें पंजाब रत्न का पुरस्कार देते हुए कहा कि वे खुशवंत सिंह को पंजाब केसरी से जानते हैं। इस तरह हिन्दी का वर्चस्व स्थापित होते देख आत्म संतोष तो हुआ ही, साथ में अन्य भाषाओं के लेखन से हिंदी को मालामाल करने की इच्छा पूरी होती गई। 

मृत्यु केवल एक घटना : आतंकवादियों की हिट लिस्ट में थे, एक दिन अपने घर के बाहर सुरक्षाकर्मियों को अपनी ड्यूटी करते देख कहने लगे कि कैसा समय है, जो सिख दूसरों की रक्षा करते रहे हैं, आज एक सिख उनसे अपनी रक्षा करा रहा है। यह एक वाक्य हो सकता है लेकिन इसके पीछे उस समय की बानगी मिल जाती है जब कानून व्यवस्था के नाम पर कुछ भी सही नहीं था। भय के माहौल में जीना और हर समय मौत का डर लगते रहना किसी के लिए भी आसान नहीं होता है। मृत्यु को लेकर उनकी एक पुस्तक काफ़ी चर्चित रही। विभिन्न लोगों के साथ अपने संस्मरण सांझा किए हैं। उदाहरण के लिए जब दलाई लामा ने इस बात के उत्तर में कि ङ्क्षहदू, जैन, बौद्ध और सिख परिवारों में बचपन से अगले पिछले जन्म की कल्पनाएं गढ़ी जाती हैं लेकिन मुस्लिम बालक इससे अछूता रहता है। इस पर जोरदार ठहाके के साथ दलाई लामा का जवाब मिला कि ‘‘अगर मैं पुनर्जन्म की बात न करूं तो मेरा धंधा ही चौपट हो जाएगा।’’ 

इसी तरह आचार्य रजनीश से अपनी एकमात्र मुलाकात का यह निष्कर्ष निकाला कि जो व्यक्ति अपने को भगवान कहता और कहलवाता है, वही नहीं जानता कि जब हम मरते हैं तो क्या होता है, तब जीवन भर क्या मृत्यु से डर कर रहना चाहिए ! गालिब ने क्या खूब कहा है : रौ (जल्दी) में है रखश ए उमर कहां देखिए थमे ! न ही हाथ बाग (लगाम) पर है न पा (पांव) नकाब में।

एक संस्मरण है कि 28 वर्ष की आयु में घर पर ही एक हादसा होने से मौत सामने दिखाई दी तो अल्लामा इकबाल याद आ गए-बाग ए बहिश्त से मुझे हुक्म ए सफर दिया था क्यों? कार ए जहां दराज (दुनिया भर का काम) है, अब मेरा इंतजार कर। आसमान की तरफ देखते हुए बड़े मियां से कहा कि मुझे फुर्सत नहीं है उनके पास जाने की। किसी तरह डॉक्टर को बुलाया और इलाज हुआ। तब सोचा कि जो भी धन दौलत, कमाई और जायदाद है, उसका हिसाब किताब जीते जी कर लेना चाहिए ताकि जब जाने का वक्त आए तो अकेलेपन के एहसास के बिना अकेला चले जाया जाए। बुढ़ापे का जिक्र इस तरह किया 
न पूछ कौन हैं, क्यों राह में लाचार बैठे हैं,
मुसाफिर हैं, सफर करने की तमन्ना हार बैठे हैं।
जवानी जाती रही और हमें पता न चला
इसी को ढूंढ रहे हैं कमर झुकाए हुए। 

उन्होंने दिल्ली को लेकर इसी शीर्षक से उपन्यास लिखा जो इस शहर की परतें खोलता हुआ अपनी मनोरंजक शैली में पाठकों को चलचित्र देखने जैसा अनुभव कराता है। ऐसा लगता है कि जो दृश्य शब्दों में कहा जा रहा है, वह सामने घटित हो रहा है। नवाबों की अय्याशी, नादिरशाह का जुल्म और उसकी हवस मिटाने के लिए भेजी गई लड़की के मासूमियत भरे शब्द बेमिसाल हैं। एक हिजड़े को सूत्रधार या मुख्य पात्र बनाकर उपन्यास लिखना और वह भी बिना किसी लाग लपेट या भूमिका के, पाठकों को रोमांचित करता है, साथ में एक पूरे समुदाय के प्रति लोगों का नजरिया भी बदलता है। ट्रेन टू पाकिस्तान ऐसी रचना है जिस पर बनी फिल्म विभाजन की त्रासदी का सजीव चित्रण करती है। यह लेखक का भोगा हुआ यथार्थ है। 

यह एक वास्तविकता है कि खुशवंत सिंह के चाहे जितने भी निकट कोई व्यक्ति रहा हो, यहां तक कि उनके परिवार वाले भी, कोई कितना भी दावा कर ले कि वह उन्हें जान और समझ सका है तो यह मिथ्या धारणा है। एक सरल, कल्पना की ऊंचाई तक ले जाने में सक्षम और फिर धरती पर उतार देने की कला में माहिर इस व्यक्ति के बारे में बहुत से मिथक उनके जीवन में ही प्रचलित हो गए थे। हालांकि मेरा उनसे परिवार का सदस्य होने जैसा रिश्ता बन गया था और अपने मन की बात कह सकने का साहस भी हो गया था, फिर भी खुशवंत सिंह एक अबूझ पहेली थे। शायद इसीलिए वे हमेशा क्रॉसवर्ड पजल सुलझाते मिल जाते थे। 

लिखने को स्क्रिबल करना कहते थे। उनका लिखा उनके सैक्रेटरी लछमन दास के अतिरिक्त कोई दूसरा पढऩे की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। फिर भी उन्हें शौक था अपने हाथ से चिट्ठी लिखकर भेजने का जो पाने वाले के लिए पढऩा आसान नहीं होता था लेकिन यह मज़ेदार कसरत होती थी। खुशवंत सिंह की पुण्यतिथि पर कुछ स्मृतियां पाठकों को समर्पित हैं। लेखन की शैली और लेखक का व्यक्तित्व उसे पाठकों से जुडऩे में आसान बना देता है, यही उसकी विशेषता है।-पूरन चंद सरीन 
 

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