मालदा हिंसा : केवल वोट बैंक के लिए ममता ने अपनाया ‘नरम रुख’

Edited By ,Updated: 17 Jan, 2016 12:11 AM

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दादरी का दिल्ली से फासला लगभग 50 किलोमीटर है, जबकि मालदा 1500 किलोमीटर से भी अधिक दूर है। लेकिन मालदा में जो ...

(वीरेन्द्र कपूर): दादरी का दिल्ली से फासला लगभग 50 किलोमीटर है, जबकि मालदा 1500 किलोमीटर से भी अधिक दूर है। लेकिन मालदा में जो कुछ हुआ उसकी राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा न होने का यही एकमात्र कारण है। दादरी प्रकरण कई सप्ताह तक मीडिया की सुर्खियों में छाया रहा। वहां सचमुच जघन्य अपराध हुआ था। भड़की भीड़ ने गुस्से में एक बेकसूर व्यक्ति को गोमांस खाने के आरोप में मौत के घाट उतार दिया था। यह अपराध अक्षम्य था। अपराधियों को जल्द ही इनके किए की सजा मिलने वाली है।

दूसरी ओर मालदा में जिस जुनून का नंगा नाच हुआ वह पूर्व नियोजित था। राज्य सरकार पूरी तरह पीछे हट गई और मैदान उन अपराधियों के लिए खुला छोड़ दिया जो पोस्त की खेती, नशीले पदार्थों के व्यापार, अवैध शस्त्रों के व्यापार, जाली करंसी के वितरण इत्यादि जैसे अपराधों के पीछे कार्यरत हैं। नतीजा यह हुआ कि लूटपाट और आगजनी बड़े स्तर पर हुई। एक लाख से भी अधिक आबादी वाले कालियाचक्क में 90 प्रतिशत से अधिक लोग मुस्लिम समुदाय से संबंधित हैं। उन्होंने एक अज्ञात से मुस्लिम संगठन के आह्वान पर एकजुट होकर मार्च निकाला। 
 
बेशक बहाना यह बनाया गया था कि सुदूर लखनऊ में एक माह पूर्व हिन्दू महासभा के एक नेता कमलेश तिवारी द्वारा मोहम्मद साहब के विरुद्ध जो अपशब्द प्रयुक्त किए गए थे वे उनका विरोध करने के लिए सड़कों पर उतरे, लेकिन इस हुजूम ने बंगलादेश सीमा से सटे इस नगर के न केवल पुलिस थाने को जला दिया बल्कि हिन्दूओं के घर जला दिए गए और उनकी दुकानें भी लूटी गईं।
 
कमलेश तिवारी ने भारत के कथित सैकुलर और वामपंथी बुद्धिजीवियों (झोलावालों) के चहेते इतिहासकार इरफान हबीब द्वारा आर.एस.एस. की तुलना ईराक और सीरिया में सक्रिय आई.एस.आई.एस. से किए जाने पर क्रुद्ध होकर मोहम्मद साहब के बारे में नि:संदेह आपत्तिजनक उल्लेख किया था। तभी से यू.पी. पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार भी कर रखा है। इरफान हबीब को सैकुलर बुद्धिजीवियों की मंडली प्राचीन और मध्य युगीन भारत के इतिहास का विशेषज्ञ मानती है। हबीब द्वारा आर.एस.एस. की तुलना आई.एस.आई.एस. से किया जाना जहां उनकी अत्यंत कुंठाग्रस्त मानसिकता को नंगा करता है, वहीं उनकी प्रकांड विद्वता को भी आहत करता है। 
 
जैसा कि पहले ही अंदेशा था रामपुर से संबंधित उत्तर प्रदेश के मंत्री आजम खान हबीब के समर्थन में उतर आए और उन्हें उनकी इस हिमाकत के लिए ‘महान इतिहासकार’ के विशेषण से नवाजा, जबकि अभी तक यह दावा केवल टैलीविजन चैनलों में रात्रि कार्यक्रमों में पहुंचे पाकिस्तानी मेहमानों द्वारा ही किया जाता था। कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि जब आर.एस.एस. जैसे राष्ट्रवादी संगठन पर हल्ला बोलने की बारी आती है तो भारतीय और पाकिस्तानी मुसलमानों में कोई फर्क नहीं होता। फिर भी यह एक अलग विषय है और हम अपने मुख्य बिन्दू की ओर लौटते हैं।
 
सामान्य परिस्थितियों में कमलेश तिवारी की गिरफ्तारी के बाद रोष प्रदर्शनों का सिलसिला समाप्त हो जाना चाहिए था। लेकिन देशव्यापी मुस्लिम समुदाय में अंदर ही अंदर जो भावनाएं  सुलग रही हैं वे एक निश्चित रूप ग्रहण करने की दिशा में संकेत कर रही हैं और वह दिशा है मुस्लिम समुदाय की प्रभावशाली संख्या को ‘मजबूत प्रैशर ग्रुप’ के रूप में प्रयुक्त करना। कथित सैकुलर पाॢटयों द्वारा अपनी वोट बैंक नीति के अंतर्गत बहुत निर्लज्जता से मुस्लिम समुदाय में मौजूद संकीर्णतावादी और उग्रपंथी नेताओं की पीठ सहलाई जाती है। जरा इसी बात पर गौर करें कि असम में शीघ्र होने जा रहे चुनावों से पहले ही बहुत खुले रूप में खुद को साम्प्रदायिकवादी सिद्ध करने वाले आल इंडिया डैमोक्रेटिक यूनाइटिड फ्रंट के नेता मौलाना बदरुद्दीन अजमल का दिल जीतने के लिए सैकुलर पार्टियों में एक-दूसरे से होड़ लगी हुई है। 
 
कालियाचक्क में रोष प्रदर्शन किए जाने की सूचना एक सप्ताह पहले मिलने के बावजूद यदि पश्चिम बंगाल पुलिस ने कोई बंदोबस्त नहीं किया और इस प्रकार दंगाइयों को खुली छूट प्रदान की, जिन्होंने थाना तक चला दिया और पुलिस एवं जनता के कई वाहन भी जला दिए- तो इसके लिए सिवाय वोट बैंक की नीतियों के अन्य किस बात को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? सितम की बात तो यह है कि इतने बड़े स्तर पर आगजनी और लूटपाट होने के बावजूद इसका राष्ट्रीय मीडिया में कहीं उल्लेख तक नहीं हुआ। ममता बनर्जी ने भी अपनी आदत के अनुसार कहा कि रोष प्रदर्शन तो पूरी तरह शांतिपूर्ण था।
 
मालदा जिला बंगलादेश की सीमा से सटा हुआ है और खुफिया सूत्रों के अनुसार भारत में आने वाली जाली करंसी का 60 प्रतिशत भाग इसी रास्ते से देश में प्रविष्ट होता है। इस इलाके में मौजूद अपराधी गिरोहों के माध्यम से ही पाकिस्तान की आई.एस.आई. सामान्य परिस्थितियों में भी बहुत सक्रिय रहती है। ऐसे में पुलिस और खुफिया एजैंसियों को बहुत बड़े स्तर पर वहां अपनी मौजूदगी दर्ज करनी चाहिए, लेकिन स्वतंत्रता के समय से ही पश्चिम बंगाल पर शासन करती आ रही ‘सैकुलर’ और वामपंथी पार्टियों ने मालदा के राष्ट्र विरोधी तत्वों को खुली छूट दे रखी है। 
 
जहां तक मुस्लिम समुदाय के वोटों का सवाल है पहले इसका लाभ कांग्रेस पार्टी लेती थी लेकिन इसके पतन के बाद यह काम तृणमूल कांग्रेस ने संभाल लिया और उसको इसका जो लाभ हुआ वह स्पष्ट ही है। मालदा इलाके के विभिन्न अपराधी गिरोहों की सरप्रस्ती किए बिना राजनीतिज्ञों को वहां कोई उपलब्धि होने की उम्मीद नहीं। ऐसे में अमन-कानून की स्थिति का लगातार बिगड़ते जाना स्पष्ट ही है।
 
पश्चिम बंगाल में भी विधानसभा चुनाव होने में कुछ महीने ही रह गए हैं इसलिए चुनावी गणनाओं के चलते राज्य सरकार ने कालियाचक्क के अपराधी गिरोहों पर कोई कार्रवाई करने की बजाय उलटा उन्हें खुली छूट दे दी जिन्होंने थाने को आग लगाकर आई.एस.आई. की गतिविधियों से संबंधित रिकार्ड को भी जला दिया। बंगाल में मुस्लिम आबादी 28 प्रतिशत  है इसलिए यह स्पष्ट है कि ममता बनर्जी इतने बड़े वोट बैंक को नाराज नहीं कर सकतीं। फिर भी यह सवाल तो पैदा होता ही है कि वह मालदा में जाली करंसी और नशीले पदार्थों के कारोबार में संलिप्त अपराधी तत्वों पर नर्म रुख क्यों अपना रही हैं? 
 
अब तस्वीर का बिल्कुल नया पहलू देखिए। कुछ दिन पूर्व कोलकाता के एक मदरसे के एक मुस्लिम अध्यापक से दुव्र्यवहार किया गया और नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि उसने अपने विद्यार्थियों को ‘जन गण मन’ सिखाने का प्रयास किया था। 
मदरसे को नियंत्रित करने वाले मुल्ला और मौलवी इस पर भड़क उठे। अध्यापक ने मदरसा प्रबंधन के विरुद्ध सरकार के पास शिकायत दर्ज करवाई लेकिन ममता बनर्जी की सरकार इस अध्यापक के बचाव में आगे नहीं आई।
 
ऐसी बातें हमारी राष्ट्रीय एकता के लिए खतरे की एक समानांतर व्यवस्था के तुल्य हैं। सैकुलर पार्टियां वोटों  की भूख के कारण देश के व्यापक हितों की अनदेखी कर रही हैं। जो लोग अभी कुछ समय पूर्व ‘पुरस्कार वापसी’ की नौटंकी कर रहे थे क्या उन्हें भारत की राजनीति पर मुल्ला-मौलवियों और उग्रपंथियों की बढ़ती सांठ-गांठ पर चिंतन-मनन नहीं करना चाहिए?             
 
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