‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’

Edited By ,Updated: 30 Sep, 2020 02:42 AM

might is right

तिलक के ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ से लेकर आज ‘हड़ताल मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ तक भारत ने एक लंबी यात्रा तय की है। आज समाज का हर वर्ग हड़ताल करने की योजना बना रहा है चाहे राजनीतिक विरोध प्रदर्शन हो, चाहे श्रमिकों की हड़ताल हो या चक्का जाम...

तिलक के ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ से लेकर आज ‘हड़ताल मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ तक भारत ने एक लंबी यात्रा तय की है। आज समाज का हर वर्ग हड़ताल करने की योजना बना रहा है चाहे राजनीतिक विरोध प्रदर्शन हो, चाहे श्रमिकों की हड़ताल हो या चक्का जाम जिससे आम जीवन ठप्प हो जाता है, जिसमें हिंसा, अव्यवस्था आदि हों, ऐसे सारे विरोध प्रदर्शनों की योजनाएं बनाई जा रही हैं, जहां पर व्यक्ति की स्वतंत्रता दूसरे की नाक की छोर पर खत्म होती है। 

पिछले सप्ताह भारत में विरोध-प्रदर्शन का नया और पुराना व्याकरण देखने को मिला। पहले में विपक्ष के आठ सांसदों ने संसद भवन में गांधी की मूर्ति के सामने विरोध प्रदर्शन किया और इसका कारण राज्यसभा में कृषि विधेयकों पर वाद-विवाद के दौरान उनके द्वारा किए गए शोर-शराबे और उपद्रव के चलते उन्हें निलंबित किया जाना था। दूसरे में 18 विपक्षी दलों और 31 किसान संगठनों ने संसद द्वारा पारित कृषि विधेयकों का विरोध करने के लिए भारत बंद का आयोजन किया। 

इन विधेयकों में किसानों को दूसरे राज्य में और राज्य के भीतर कहीं भी मंडी से बाहर राज्य सरकार को शुल्क दिए बिना अपने उत्पाद बेचने की अनुमति दी गई है। किसानों को आशंका है कि उन्हें अब न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिलेगा। कमीशन एजैंटों को आशंका है कि उनका कमीशन मारा जाएगा और राज्यों को आशंका है कि उनका कर मारा जाएगा। विपक्ष को मोदी सरकार को घेरने के लिए यह एक अच्छा मुद्दा मिला। इससे विपक्षी किसानों के गुस्से का उपयोग भी कर सकते हैं और आगामी बिहार विधानसभा तथा अन्य चुनावों में वोट प्राप्त करने के लिए इसका उपयोग कर सकते हैं और इसके चलते राष्ट्रीय राजमार्गों को बाधित किया गया। तीन दिन चले रेल रोको अभियान में अनेक रेलगाडिय़ों की सेवा निलंबित करनी पड़ी। एक वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री के अनुसार यह अंगूर खट्टे हैं का मामला है। यह मोदी युग में सब कुछ खो चुके विपक्ष के लिए अपने पैर फिर से जमाने का एक बहाना है। वे समझते हैं कि केवल नारेबाजी से वे प्रासंगिक बने रह सकते हैं। 

वस्तुत: आज देश में कोई दिन एेसा नहीं गुजरता जब कहीं न कहीं विरोध प्रदर्शन या हड़ताल न हो। चाहे कोई मोहल्ला हो, जिला हो, राज्य हो सब जगह यही स्थिति देखने को मिलती है और एेसा लगता है कि भारत विरोध प्रदर्शनों के कारण आगे बढ़ रहा है। कारण महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण अपना विरोध दर्ज करना है और यह विरोध जितने ऊंचे स्वर में हो उतना अच्छा है। जितना सामान्य जन-जीवन ठप्प किया जा सके उतना अच्छा है। विरोध प्रदर्शन और हड़ताल की सफलता का आकलन लोगों को पहुंची असुविधा के आधार पर किया जाता है। 

प्रश्न उठता है कि राजनीतिक दलों और श्रमिक संघों को हड़ताल करने के लिए क्या प्रेरित करता है? क्या इसका कारण उचित होता है? क्या राज्य अनुचित और अन्यायकत्र्ता हैं? क्या यह विपक्ष और श्रमिक संगठनों के सदस्यों को एकजुट करने का प्रयास होता हैं? या क्या यह राजनीतिक कारणों से किया जाता है? क्या यह नागरिकों के हितों के लिए किया जाता है? क्या यह बेहतर मजदूरी और जीवन की गुणवत्ता के लिए किया जाता है? क्या ब्लैकमेल और भीड़तंत्र द्वारा ङ्क्षहसा के माध्यम से लोकतंत्र का अपहरण करने का प्रयास है। विरोध प्रदर्शन एक रोचक शब्द है। यह लोकतंत्र को जीवंत रखने और वाक् स्वतंत्रता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यह विपक्ष और श्रमिक संघों का एक औजार बन गया है और जब कभी अपनी सत्ता के लिए अपनी हताशा में कार्य निष्पादन पर पर्दा डालने या सहानुभूति प्राप्त करने के लिए अपना गुणगान करने का उनका मन करता है, वे हड़ताल या विरोध प्रदर्शन करने लग जाते हैं। 

कुल मिलाकर यह जिसकी लाठी उसकी भैंस को चरितार्थ करता है। यही नहीं यदि आप नियमित रूप से बंद या हड़ताल करवाते हैं तो अन्य पार्टी मानने लग जाती है कि आप शक्तिशाली हैं। यह अलग बात है कि आपको भीड़ जुटाने के लिए पैसा इकट्ठा करना पड़ता है। आपको एेसे विरोध प्रदर्शनों और हड़तालों में वही लोग हर जगह देखने को मिल जाएंगे। उनके लिए यह जग दर्शन, पैसा और भोजन के पैकेट का खेल है। परिणाम कुछ भी नहीं निकलता है। बंद और हड़ताल की मूलधारणा इस तथ्य पर आधारित थी कि बेसहारा लोगों के समूह के पास व्यवस्था को जगाने का यह एकमात्र साधन था। इसके अंतर्गत पहले अधिक मजदूरी के लिए घेराव से लेकर हड़ताल तक की जाती थी किंतु धीरे-धीरे इसमें विकृति आने लगी। हड़ताल तभी प्रभावी मानी जाने लगी जब काम बंद कर दिया जाए। इसलिए हड़ताली अपने समर्थकों का उपयोग ङ्क्षहसा के लिए करने लगे। उन्हें इस बात की परवाह नहीं रही कि दीर्घकाल में यह देश और लोगों के लिए हानिकर है। वस्तुत: आज लोग हड़ताल और बंद से ऊब गए हैं। 

एक ताजा सर्वेक्षण के अनुसार चार में से तीन लोग हड़ताल पर कानूनी प्रतिबंध लगाना चाहते हैं। 10 में से 8 लोग चाहते हैं कि हड़ताल के लिए नेताआें पर कठोर दंड और भारी जुर्माना लगाया जाना चाहिए। केवल15 प्रतिशत लोग हड़ताल में विश्वास करते हैं। 10 प्रतिशत लोग इसमें स्वेच्छा से भाग लेते हैं और 7 प्रतिशत लोग गांधी जी के सविनय अवज्ञा शांतिपूर्ण धरना, रैली, कैंडल मार्च आदि का समर्थन करते हैं। 

वस्तुत: 2009 से 2014 के बीच हड़ताल और विरोध प्रदर्शन में 55 प्रतिशत की वृद्धि हुई। देश में प्रतिदिन लगभग 200 विरोध प्रदर्शन होते हैं और इसमें शिक्षित राज्य आगे हैं। इन पांच वर्षों में 420000 विरोध प्रदर्शन हुए। सबसे अधिक छात्र विरोध प्रदर्शन हुए। इसमें 148 प्रतिशत की वृद्धि हुई। उसके बाद सांप्रदायिक विरोध प्रदर्शनों में 92 प्रतिशत, सरकारी कर्मचारियों के विरोध प्रदर्शनों में 71 प्रतिशत, राजनीतिक विरोध प्रदर्शनों में 42 प्रतिशत, श्रमिकों के विरोध प्रदर्शनों में 38 प्रतिशत की वृद्धि हुई। पार्टी और उनके संगठन के विरोध प्रदर्शन 32 प्रतिशत से बढ़कर 50 प्रतिशत तक पहुंच गए। पार्टी और उनके संगठनों के विरोध प्रदर्शनों में यदि उनके छात्र संगठनों और श्रमिक संगठनों को भी जोड़ दिया जाए तो यह संख्या 50 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। फिर इसका समाधान क्या है? ‘सब चलता है’ दृष्टिकोण कब तक चलेगा? आज हर कोई अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ते हुए कहता है ‘की फरक पैंदा है’। समय आ गया है कि पाखंडी पाॢटयों के विरुद्ध बंद का आयोजन किया जाए और राजनीतिक हड़तालों पर रोक लगाई जाए। बंद करो ये नाटक।-पूनम आई. कौशिश
 

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