किसानों को एम.एस.पी. मिलने से जी.डी.पी. बढ़ेगी और खुशहाली आएगी

Edited By ,Updated: 23 Nov, 2021 04:24 AM

msp to farmers gdp by meeting grow and prosperity will come

हमें यह तो मानना पड़़ेगा कि किसानों ने जिस तरह से एक साल से ज्यादा समय तक शांतिपूर्वक सड़कों पर बैठकर प्रदर्शन किया है, वैसा उदाहरण दुनिया में कहीं नहीं है। उनकी मांगें मुख्यत:

हमें यह तो मानना पड़़ेगा कि किसानों ने जिस तरह से एक साल से ज्यादा समय तक शांतिपूर्वक सड़कों पर बैठकर प्रदर्शन किया है, वैसा उदाहरण दुनिया में कहीं नहीं है। उनकी मांगें मुख्यत: दो थीं। एक, तीनों नए कृषि कानूनों को वापस लिया जाए और दूसरी, न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एम.एस.पी. को किसानों का अधिकार बनाया जाए। शुक्रवार को जब प्रधानमंत्री ने कहा कि वह किसानों को नहीं समझा पाए और इसलिए इन कानूनों को वापस लेने जा रहे हैं तो यह साफ हो गया और हमें मानना पड़ेगा कि यह किसानों की एक ऐतिहासिक जीत है। 

मौसम की सारी बेरहमी को झेलते हुए किसान साल भर सड़कों पर सोए। इसलिए यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है क्योंकि सरकार किसानों के विरोध को देखते हुए शुरू से ही यह कहती आ रही थी कि वह संशोधन को तैयार है मगर इन कानूनों को वापस नहीं लेगी। अब एक बात और स्पष्ट होती है कि सरकार को यह समझते-समझते एक साल लग गया कि किसानों की जो मांग है, वह देश के लिए क्यों महत्वपूर्ण है। सरकार किसानों को क्यों नहीं समझा पाई। इस पर अब ज्यादा चर्चा की जरूरत भी नहीं है क्योंकि सरकार ने जब तीनों कानून वापस ले लिए हैं तो यह सवाल ही नहीं उठता कि किसानों को समझाने की जरूरत थी। किसान सड़कों पर इसलिए नहीं बैठे थे कि वे नासमझ थे। 

दरअसल हमारी आर्थिक सोच कॉर्पोरेट समर्थक है। इसका एक बड़ा उदाहरण यह कि दुनिया में जहां भी आर्थिक सुधार लाए गए, वहां खेती का संकट गहराया है। एक भी देश ऐसा नहीं है जहां बाजारीकरण में मौजूदा तरीके के सुधार लाए गए और वहां किसानों की आय बढ़ी हो, खेती संकट और गंभीर न हुआ हो। 

जब सारी दुनिया में ऐसे आर्थिक सुधार फेल हो चुके हैं तो यह समझ से बाहर है कि हमारे अर्थशास्त्री और नीति निर्माता उन असफल आर्थिक सुधारों को हमारे किसानों के ऊपर थोपने में लगे हैं। हमारी सरकार ने भी इस बात को समझा कि ऐसे आर्थिक सुधार दुनिया में कहीं भी सफल नहीं हुए। हमारे देश का बुद्धिजीवी तबका जो किताबों में पढ़कर आया, वहीं तक उसकी सोच बनी और वह व्यावहारिकता से पूरी तरह से कटा रहा। मगर हमारे किसान सांझा हितों को बेहतर तरीके से समझते थे और वे इसके लिए अड़े भी। 

अच्छी बात यह है कि हमारे प्रधानमंत्री ने इस बात को समझा और कानून वापस लिए। प्रधानमंत्री ने कहा कि हम किसानों को समझा नहीं पाए, मगर इस बात का दूसरा पहलू यह भी है कि सरकार ही नहीं समझ पाई थी कि किसान क्यों विरोध कर रहे हैं। सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि सुधार क्या है? कंपनियों के हाथ में सब कुछ दे देना रिफॉम्र्स (सुधार) नहीं है। सुधार का मतलब है कि समस्याएं दूर हों और स्थिति में सुधार आए। देश में शिक्षा के माध्यम से यह बहुत ही गलत संदेश दिया जा रहा है कि सुधार का मतलब है निजीकरण। 

अमरीका में आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया डेढ़ सौ साल से चल रही है। वहां किसानों को गेहूं के दाम 6 गुना कम मिल रहे हैं। कनाडा में 1987 में जो गेहूं का दाम था, तुलनात्मक रूप से आज उससे 6 गुना कम है, बढ़ा नहीं है। दूसरी ओर बाजार और कंपनी उत्पादों में एक भी चीज बताई जाए, जिसमें पिछले 20-30 साल की तुलना में दाम कम हुए हों और बढ़े न हों। उसके बावजूद कहा जाता है कि ये सुधार बहुत ही मददगार हैं। आखिर हम किसे बहका रहे हैं? इस तरह से किसानों ने दुनिया को दिखा दिया है कि आपको अपनी पढ़ाई को बदलने की जरूरत है। आज जो दुनिया की आर्थिक सोच है, आर्थिक मॉडल है, उसे उलटा घुमाने की जरूरत है। 

इस पूरे प्रकरण में सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि जिन्हें अनपढ़ माना जाता है, उन्होंने वह काम कर दिखाया जो पढ़े-लिखे नहीं कर पाए। उन्होंने दुनिया को दिखा दिया कि लोगों को किसानी से निकाल कर शहरों में बसाने का आपका जो मॉडल है, वह गलत है। वह अप्रासंगिक हो चुका है, दुनिया के कई अर्थशास्त्री भी अब यह बात खुलकर कहने लगे हैं। हमारे देश के अर्थशास्त्रियों को भी मान लेना चाहिए कि दुनिया में जो हो रहा है, उससे हम 10 साल पीछे चल रहे हैं और हमारी समझ भी 10 साल पीछे है। 

भगवान न करे कि कोई ऐसा समय आए जब देश के किसान खेतीबाड़ी छोड़ दें। तब क्या देश के पास इतना पैसा होगा कि वह अनाज मंगा सके? भारत की सबसे ज्यादा जनसंख्या का आप क्या करेंगे? इसलिए देश में अगर कृषि क्षेत्र प्रगति करता है तो देश की अर्थव्यवस्था भी तरक्की करेगी। कृषि को मजबूत करना, उसे लाभदायक व्यवसाय बनाना जरूरी है क्योंकि यह क्षेत्र बड़े पैमाने पर रोजगार भी पैदा करता है। देश में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है। जहां 20 करोड़ लोग भूखे पेट सोते हों, क्या वहां सभी आॢथक नीतियां विफल नहीं मानी जानी चाहिएं? 

देश को यह भी सोचना चाहिए कि क्या कारण है कि कॉर्पोरेट जगत कभी सड़क पर आ कर नहीं बैठता और उसके 10-10 लाख करोड़ के बकाया माफ हो जाते हैं। किसानों की कोई भी मांग हो, उन्हें उसे पूरा करवाने के लिए सड़कों पर आना पड़ता है। कभी किसी ने देखा है कि जंतर-मंतर पर आकर औद्योगिक घराने एकजुट होकर बैठे हों। तो सरकार क्या सिर्फ कॉर्पोरेट की सेवा के लिए है? सरकार के अपने आंकड़े बताते हैं कि देश में खाद्यान्न और सब्जियों की रिकार्ड पैदावार हुई है, मगर इसके बावजूद किसान की दैनिक आय  सिर्फ 27 रुपए प्रतिदिन बनती है। किसान की जब आय बढ़ती है तो शहर को क्यों तकलीफ होती है? 

एम.एस.पी. को कानूनी दर्जा देने की बात हो रही हैै तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि मात्र 6 फीसदी किसानों को एम.एस.पी. मिलता है। 94 फीसदी किसान बाजार के हवाले हैं। अगर बाजार का यह ढांचा किसान के लिए कल्याणकारी होता तो क्या कृषि संकट इतना गंभीर होता? जितने किसानों को एम.एस.पी. मिलता है, उनमें 70 फीसदी मंझोले और छोटे किसान हैं। अभी 50 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है। अगर इसकी आय बढ़ती है तो यह अर्थव्यवस्था के लिए रॉकेट डोज का काम करेगी। किसानों को एम.एस.पी. की गारंटी मिलने से देश की जी.डी.पी. 15 फीसदी तक हो सकती है। इससे ज्यादा आपको और क्या चाहिए? अगर किसान को एम.एस.पी. मिले तो उसका कर्ज भी खत्म होगा। 

सबको एम.एस.पी. देने पर सरकार पर कितना बोझ बढ़ेगा? इस सवाल को समझने के लिए जरूरी है कि पहले यह समझ लिया जाए कि किसान की पूरे देश की उपज सरकार को ही नहीं खरीदनी है। सरकार को सिर्फ यह तय करना है कि कहीं भी कोई भी किसान से उपज खरीदे तो उसका दाम इस सीमा से कम नहीं होना चाहिए। इसलिए एम.एस.पी. को किसान का अधिकार बनाने की जरूरत है। व्यापारी अपने व्यापार के लिए किसान से एम.एस.पी. पर खरीद करे। सरकार को तब खरीदना पड़ेगा, जब उसे लगे कि बाजार में खरीद नहीं हो रही है। आंकड़े बताते हैं कि सरकार पर डेढ़ से 2 लाख करोड़ रुपए का खर्च आ सकता है। (लेखक कृषि वैज्ञानिक हैं।)-देविन्दर शर्मा

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