संघ मुख्यालय में मुखर्जी की मौजूदगी राष्ट्र को भ्रम में डालेगी

Edited By Pardeep,Updated: 06 Jun, 2018 04:08 AM

mukherjees presence in union headquarters will confuse the nation

प्रणव मुखर्जी हर तरह की राजनीति से निष्ठा रखने वाले व्यक्ति हैं। वह एक कांग्रेसी के रूप में शीर्ष पद पर रह चुके हैं और कांग्रेस के अपने कुछ सहयोगियों के साथ एक पार्टी भी बना चुके हैं। लेकिन उन्हें राजनीति में अपनी मेहनत से आगे पहुंचने वाला व्यक्ति...

प्रणव मुखर्जी हर तरह की राजनीति से निष्ठा रखने वाले व्यक्ति हैं। वह एक कांग्रेसी के रूप में शीर्ष पद पर रह चुके हैं और कांग्रेस के अपने कुछ सहयोगियों के साथ एक पार्टी भी बना चुके हैं। लेकिन उन्हें राजनीति में अपनी मेहनत से आगे पहुंचने वाला व्यक्ति कहा जा सकता है। उन्होंने कार्यकत्र्ताओं को संबोधित करने के लिए नागपुर में आर.एस.एस. के मुख्यालय की यात्रा करने का निमंत्रण स्वीकार किया है। 

आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत के शब्दों में, ‘‘मुखर्जी ने निमंत्रण स्वीकार कर शिष्टता दिखाई है।’’ यह आश्चर्यजनक है क्योंकि इस जगह कभी भी महात्मा गांधी की तस्वीर नहीं लगी क्योंकि वह विविधता और समता की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे जो हिंदू राष्ट्र स्थापित करने के आर.एस.एस. के दर्शन के अनुकूल नहीं है। प्रणव मुखर्जी एक विनम्र व्यक्ति के रूप में याद आते हैं जिन्होंने मुझे अपनी गायिका पत्नी का गायन सुनने के लिए अपने घर बुलाया था। उस समय वह एक राजनीतिज्ञ के रूप में अपनी छाप छोडऩे के लिए संघर्ष कर रहे थे। उनका घर साधारण दिखाई दे रहा था, जहां कम से कम फर्नीचर था। लोग उन्हें एक सीधी-सादी आदतों वाले व्यक्ति के रूप में जानते थे। लेकिन साल गुजरने के साथ सब कुछ बदल गया जब उन्होंनेे शक्ति संपन्न राजनीतिज्ञ के रूप में खुद को स्थापित कर लिया। 

आपातकाल के दौरान मैं उनके आवास पर जाता था और सजे-सजाए बैठकखाना को देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। वह उस समय इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में वाणिज्य मंत्री थे और संजय गांधी के बहुत करीब थे जो संवैधानिक दायरे से बाहर एक सत्ता थे और व्यवहार में सत्ता की लगाम थामे हुए थे। साफ कहा जाए तो प्रणव मुखर्जी उनके विश्वासपात्र थे जो संजय गांधी से मिले आदेशों का पालन करते थे। एक ओर प्रणव मुखर्जी और दूसरी ओर रक्षा मंत्री बंसीलाल को रख कर संजय गांधी ने वास्तव में पूरे देश पर शासन किया। यह वही समय था जब संजय गांधी की बोली पर वह लाइसैंस देते या रद्द करते थे। पूरे देश में दुकानों तथा घरों पर छापे डाले गए। 

राष्ट्रपति के रूप में वह एक गलत पसंद थे और पहली दृष्टि में उन्हें गद्दी से इतना गहरा प्रेम नहीं करना चाहिए था। जब सोनिया गांधी ने उन्हें इस पद पर तरक्की दी तो उनकी आलोचना हुई। लेकिन यह एक वफादार व्यक्ति को दिया गया उपहार था जिसने यह भी कहा कि सूरज पश्चिम से उगता है, अगर सोनिया ने ऐसा कहा। वह एक और ज्ञानी जैल सिंह थे जिन्हें किसी गुमनामी के बीच से निकालकर इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति मनोनीत किया और जिताया। प्रणव मुखर्जी का शासन ही लोकतंत्र का अपमान था। इस पद पर उनका बैठना संविधान का उल्लंघन था। उस दौर को हमने देखा और मैंने भयभीत होकर यह पाया कि उनके शासन का नकारात्मक असर हुआ।

अगर वह संवेदनशील व्यक्ति होते तो आपातकाल के 17 महीनों में की गई गलती को महसूस करते। अगर कुछ नहीं तो वह आपातकाल लगाने के बारे में खेद प्रकट करते जब एक लाख से ज्यादा लोगों को बिना सुनवाई के हिरासत में रखा गया, प्रैस को ‘अनुशासित’ कर दिया गया और सरकारी सेवकों ने गलत-सही तथा नैतिक-अनैतिक के बीच भेद करना छोड़ दिया था। अपने बेटे राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की सोनिया गांधी की मजबूरी या उनका संकल्प था जो प्रणव मुखर्जी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा में आड़े आ गया। लेकिन फिर उन्होंने मूड भांप लिया और घोषणा कर दी कि वह 2014 का चुनाव नहीं लड़ेंगे जिससे राहुल गांधी का रास्ता साफ हो गया। 

अगर गांधी ने उन्हें राष्ट्रपति बनाया तो इसका कारण यह था कि उन्होंने खानदान की सेवा भरोसे के साथ की थी। आपातकाल हटा लेने के बाद लोगों ने 1977 के चुनावों में उन्हें और इंदिरा गांधी को हराकर सही किया। मैं सबसे ऊंचे पद पर उनकी नियुक्ति को राष्ट्र के मुंह पर तमाचे के रूप में देखता हूं। मैं उम्मीद करता था कि पूर्व राष्ट्रपति उस अवधि को याद करते जब वह राष्ट्रपति भवन में थे और कम से कम एक उदाहरण ढूंढते जब उन्होंने लोकतंत्र तथा विविधतावाद को कायम रखा। लोगों ने ऐसी निराशा शायद ही कभी महसूस की हो, जैसी उनके राष्ट्रपति होने की अवधि में की। अगर एक लोकपाल होता तो उसने बता दिया होता कि पूर्व राष्ट्रपति कहां फेल हुए। अफसोस है कि राष्ट्रपति के शासन काल की समीक्षा के लिए ऐसी कोई संस्था नहीं है। इसके पीछे यही सोच है कि आलोचना उन संस्थाओं को नुक्सान पहुंचाएगी जो लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को चलाने के लिए आवश्यक हैं। राष्ट्रपति का पद इस सोच के अनुकूल है इसलिए राष्ट्रपति को तब भी बख्श दिया जाता है जब पद की ओर तय की हुई सीमा को वह लांघ जाता या जाती है। 

शायद इसी सोच की वजह से प्रणव मुखर्जी आलोचना से बचे रहे। यह राष्ट्रपति को शोभा नहीं देता कि पद पर रहते हुए वह अपने संस्मरण प्रकाशित करे। जानबूूझ कर प्रणव मुखर्जी ने सांप्रदायिक तत्वों के खिलाफ लड़ाई को नकार दिया है। आर.एस.एस. या यूं कहिए कि भारतीय जनता पार्टी राष्ट्र को कह सकती है कि नागपुर सांप्रदायिक तत्वों का प्रतिनिधित्व नहीं करता है क्योंकि मुखर्जी ने आर.एस.एस. काडरों को संबोधित करना पसंद किया। अचरज है कि कांग्रेस ने मुखर्जी के कदम की भत्र्सना में एक भी शब्द नहीं कहा है। उसकी खामोशी उस काम का समर्थन है जो वह कर रहे हैं। फिर भी एक पूर्व कांग्रेसी मंत्री ने सैकुलरिज्म के हित में उनसे अपने फैसले पर फिर से विचार का आग्रह किया है। जाहिर है, केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने आर.एस.एस. काडरों को संबोधित करने के उनके फैसले का बचाव यह कहकर किया है कि वह आई.एस.आई. के शिविर में नहीं जा रहे हैं। 

इसके बावजूद कि कांग्रेस में इस मामले पर लोगों का मत बंटा हुआ है, कुछ सदस्यों को अभी भी भरोसा है कि आर.एस.एस. के मंच से वह विविधतावाद पर एक मजबूत संदेश देंगे। वास्तव में पार्टी के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद ने उनका बचाव किया कि पार्टी को प्रणव मुखर्जी में भरोसा रखना चाहिए और उनमें सिर्फ भारत की सोच के प्रति सच्ची आस्था के कारण ही भरोसा नहीं रखना चाहिए, बल्कि हम लोगों के मुकाबले ज्यादा समझदार और बुद्धिमान होने के लिए भी।
यह एक कमजोर दलील है। 

मुखर्जी की उपस्थिति राष्ट्र को भ्रम में ही डालेगी क्योंकि उन्होंने हर कांग्रेस नेता से यही सुना है कि आर.एस.एस. की सोच विविधता के विचार के विपरीत है। वास्तव में सोनिया गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को इस यात्रा के लिए मुखर्जी की आलोचना करनी चाहिए थी। अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो राष्ट्र को फिर से उस पार्टी की ओर ध्यान देने को मजबूर किया जाता जो लगातार अप्रासंगिक होती जा रही है।-कुलदीप नैय्यर


 


 

     

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