दिल्ली पुलिस प्रमुख को मेरा ‘खुला पत्र’ और उसके बाद...

Edited By ,Updated: 19 Sep, 2020 02:27 AM

my  open letter  to the delhi police chief and then

दिल्ली पुलिस प्रमुख को मेरे द्वारा लिखे गए खुले पत्र ने बहुत ज्यादा सुर्खियां बटोरीं जिसकी मैंने आशा भी नहीं की। जिस तरह से फरवरी महीने में दिल्ली में दंगों की जांच को अंजाम दिया गया उसने मेरे मन में शंका पैदा की थी। आंकड़ों ने दर्शाया है कि 753...

दिल्ली पुलिस प्रमुख को मेरे द्वारा लिखे गए खुले पत्र ने बहुत ज्यादा सुर्खियां बटोरीं जिसकी मैंने आशा भी नहीं की। जिस तरह से फरवरी महीने में दिल्ली में दंगों की जांच को अंजाम दिया गया उसने मेरे मन में शंका पैदा की थी। आंकड़ों ने दर्शाया है कि 753 मामले रजिस्टर किए गए थे। इनमें से 410 मामले उन मुस्लिमों द्वारा दायर की शिकायतों के आधार पर थे जिन्होंने  मौत, सम्पत्ति के मामले में हिंदुओं के मुकाबले अनुपातहीन तरीके से झेला था। दंगों के पहले दिन क्या मुस्लिम लोगों ने बदले में चोट की थी? मगर उसके अगले तीन दिन एक पक्ष ने लड़ाइयां लड़ीं। कुछ मस्जिदों पर हमला किया गया तथा उन्हें क्षतिग्रस्त किया गया। दिल्ली पुलिस का कहना है कि इसी तरह से कुछ मंदिरों को भी निशाना बनाया गया। 

इसके बारे में किसी एक ने सोचा होगा कि इन मामलों की गिनती अपने आप में कहानी कहती है। हालांकि 18 युवा पी.एच.डी. छात्र जिनमें से ज्यादातर महिलाएं थीं, के खिलाफ साजिश का मामला दर्ज किया गया। ये महिलाएं या तो मुस्लिम थीं या फिर वामपंथी विचारों की थीं। इसी कारण मेरी शंका एक निष्पक्ष जांच के बारे में थी। तभी मैंने दिल्ली पुलिस कमिश्रर को एक खुला पत्र लिखा। 

मैं उस संवैधानिक व्यवहार समूह (सी.सी.जी.) का एक सदस्य हूं जिसमें 150 के करीब सिविल सर्वेंट शामिल हैं, जिनमें से ज्यादातर आई.ए.एस. अधिकारी हैं। मगर इस समूह में विदेश सेवा, पुलिस सेवा तथा केंद्रीय सेवाओं के अधिकारी भी शामिल किए गए हैं। इस समूह ने दिल्ली पुलिस कमिश्रर एस.एन. श्रीवास्तव के साथ एक बैठक के लिए आग्रह किया। इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। इसके बाद हमने यह निर्णय  लिया कि मैं श्रीवास्तव को एक खुला पत्र लिखूं जिसे प्रैस को जारी किया जाए। 

जब उन्होंने मेरा पत्र प्राप्त किया जिसमें मैंने दंगों की जांच में निष्पक्षता दिखाने तथा न्याय के लिए कहा था, पुलिस प्रमुख ने यह यकीनी बनाना चाहा कि क्या मैंने ही यह पत्र लिखा है। उन्होंने बड़े सत्कारपूर्वक मुझसे फोन पर वार्ता की और मुझे भरोसा दिलाना चाहा कि वह मुसलमानों द्वारा हिंदुओं तथा हिंदुओं द्वारा मुसलमानों के खिलाफ शिकायतों का सही ढंग से निपटारा करेंगे। उन्होंने कहा कि हमारी जांच तथ्यों और सबूतों के आधार पर होती है। यह इससे प्रभावित नहीं होती कि जांच के दायरे में आया शख्स कितना नामी है या कितने बड़े व्यक्तित्व वाला है। 

मैंने उनको कहा कि अदालतों के ट्रायल के दौरान सच्चाई सामने आएगी विशेष तौर पर 18 युवा पोस्ट-ग्रैजुएट छात्रों के खिलाफ साजिश के आरोपों के मामलों में। मैंने यह अंदाजा लगाया कि पुलिस प्रमुख इस सवाल को लेकर कुछ थोड़े से असुविधाजनक दिखे। भाजपा के तीन नेताओं को जिस तरह से एक पक्ष के लोगों को भड़काने और शांति से प्रदर्शन कर रहे लोगों को धमकाने का लाइसैंस देने का क्या दिल्ली पुलिस बचाव कर सकती है, या इसकी कोई सफाई दी जा सकती है। इसके दो दिन के बाद पुलिस प्रमुख ने मुझे ई-मेल कर मुझे भरोसा दिलाया तथा ई-मेल को प्रैस को जारी किया। 

पुलिस कमिश्रर के साथ मेरी कोई निजी दुश्मनी नहीं। वास्तव में मैंने पूर्व दिल्ली पुलिस आयुक्त नीरज कुमार के एक साक्षात्कार से मालूम किया कि श्रीवास्तव अपने पूर्ववर्ती से ज्यादा प्रभावशाली पुलिस प्रमुख हैं। मैं अपने दोस्त नीरज के विचारों से सहमत हूं तथा उसका सम्मान करता हूं। नीरज एक बहुत ही अच्छे इंसान तथा कुशल नेतृत्व वाले अधिकारी थे। जब श्रीवास्तव ने उस ई-मेल को मुझे भेजा तब मैंने पाया कि मुझे उसका जवाब देना चाहिए और अपना पक्ष स्पष्ट करना चाहिए कि मैं अपने कहे पर अभी भी खरा उतरता हूं। 

पुलिस कमिश्रर का साक्ष्य कहता है कि वे साजिशकत्र्ताओं के खिलाफ हैं जिन्हें न्याय की अदालत में परखा जाना चाहिए। उन्हें यह यकीनी बनाना चाहिए कि कथित साजिशकत्र्ताओं को कड़े यू.ए.पी.ए. के तहत हिरासत में नहीं रखा जाए। जांचकत्र्ताओं के अनुसार यदि कोई और गिरफ्तारी की जरूरत हो तो उसे अगले तीन माह की अवधि के खत्म होने से पहले ही कर लिया जाए। उमर खालिद की कुछ दिन पूर्व हुई गिरफ्तारी के साथ समयावधि अपने आप में 3 माह तक और बढ़ गई। ऐसी नीतियां बिना ट्रायल के सजा को यकीनी बनाती हैं और सच्चाई यह है कि पुलिस को जजों में तबदील कर देती है, ऐसा नहीं होना चाहिए। 

वास्तव में तीन भाजपा नेता जिनमें एक मोदी सरकार में मंत्री हैं, ने बहुत उत्तेजक और साम्प्रदायिक भाषण दिया था जिसे टी.वी. पर दंगों के शुरू होने से पूर्व सुना गया। पुलिस ने इसका संज्ञान ही नहीं लिया। राजनीतिक पाॢटयां सत्ता में रह कर अपनों को बचाने का प्रयास करती हैं। नेता लोग कानून को अपने हाथ में लेकर उसकी धज्जियां उड़ाते हैं। पुलिस अधिकारियों को ऐसे समय में सही व्यवहार करना चाहिए। मगर ऐसा प्रतीत होता है कि वह ऐसे सशक्त नेताओं से निपटने में ढिलाई बरतते हैं।-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी) 
 

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