महिलाओं की ‘स्वतंत्रता’ की ‘केवल बातें’ करने से काम नहीं चलेगा

Edited By Pardeep,Updated: 23 Oct, 2018 04:12 AM

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पिछले सप्ताह भारत में दो अलग-अलग प्रकरण देखने को मिले जो 21वीं सदी में भारत की महिलाओं की अलग-अलग स्थितियों पर प्रकाश डालते हैं। एक प्रकरण में महिलाएं विजयी हुईं तो दूसरे में वे पीड़ित हैं। भगवान के सामने उनकी जीत हुई किंतु मानव के सामने वे हार गई...

पिछले सप्ताह भारत में दो अलग-अलग प्रकरण देखने को मिले जो 21वीं सदी में भारत की महिलाओं की अलग-अलग स्थितियों पर प्रकाश डालते हैं। एक प्रकरण में महिलाएं विजयी हुईं तो दूसरे में वे पीड़ित हैं। भगवान के सामने उनकी जीत हुई किंतु मानव के सामने वे हार गई हैं। उच्चतम न्यायालय की 5 सदस्यीय खंडपीठ ने 4:1 के बहुमत से एक उल्लेखनीय निर्णय दिया और इस निर्णय के अंतर्गत न्यायालय ने ब्रह्मचारी देव भगवान अयप्पा के 800 साल पुराने सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 साल की रजस्वला आयु की महिलाओं को प्रवेश की अनुमति दी। 

न्यायालय ने कहा कि धर्म में ऐसा दोहरा मानदंड नहीं होना चाहिए और मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक एक तरह की अस्पृश्यता है, जिसके कारण महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुंचती है। न्यायालय ने यह भी कहा कि जैविक और शारीरिक कारणों से महिलाओं के दमन को वैधता नहीं दी जा सकती है और यह संवैधानिक नहीं है। धर्म पूजा करने के बुनियादी अधिकार की आड़ नहीं बन सकता है और न ही शारीरिक कारण। न्यायालय के निर्णय के बावजूद इस आयु वर्ग की महिलाएं विरोध प्रदर्शन, अव्यवस्था और हिंसक झड़पों के कारण भगवान अयप्पा के दर्शन के लिए नहीं जा पाई हैं। विरोध प्रदर्शन करने वालों का कहना है कि यह सदियों पुरानी परम्परा है और भगवान अयप्पा के ब्रह्मचारी स्वरूप के विरुद्ध है। 

भारत में जहां एक ओर हिन्दू पुनर्जागरण और पुरातन पंथियों के बीच संघर्ष जारी था वहीं दूसरी ओर ‘मी टू’ की चपेट में अनेक पुरुष हस्तियां आ गई हैं और इस चपेट में पत्रकार से राजनेता और केन्द्रीय विदेश राज्य मंत्री अकबर भी आए। उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। कांग्रेस के एन.एस.यू.आई. के अध्यक्ष, अभिनेता नाना पाटेकर, फिल्म निर्देशक विवेक बहल, संगीतकार अनु मलिक, लेखक चेतन भगत, एडमैन सुहेल सेठ, पुरुष पत्रकार, फिल्म निर्माता आदि अनेक इसकी चपेट में आए। इस अभियान की शुरूआत अभिनेत्री तनुश्री दत्ता ने की और उन्होंने अपनी कहानी बताई कि वर्ष 2008 में एक फिल्म के सैट पर नाना पाटेकर ने उन पर यौन हमला किया। जब उन्होंने इसका विरोध किया तो नाना पाटेकर के गुंडों ने उन्हें धमकाया और उन्हें फिल्म उद्योग और देश छोडऩा पड़ा। 20 महिला पत्रकारों ने अकबर पर यौन उत्पीडऩ का आरोप लगाया। प्रश्न उठता है कि महिलाओं को सैक्स की वस्तु क्यों समझा जाता है? उन्हें पुरुषों की कामेच्छा तथा अहंकार को तुष्ट करने का साधन क्यों माना जाता है और यौन अपराधों को दर्ज कराने के बारे में हम इतने उदासीन क्यों हो जाते हैं? 

एक ऐसे समाज में, जहां पर हम पुरातनपंथी सोच के साथ रहते हैं, महिलाओं के लिए स्वतंत्रता और समानता को अच्छा नहीं माना जाता है। हम दो अतिवादी छोरों पर रह रहे हैं जहां पर बालिका के जन्म को बुरी खबर माना जाता है और उसे भय के वातावरण में पाला जाता है और उस पर महिला संरक्षण के नाम पर अनेक पाबंदियां लगाई जाती हैं। बालिकाओं द्वारा माहवारी की बात करना भी बुरा माना जाता रहा है। इन 5 दिनों में उन्हें कमरे में बंद कर दिया जाता है, किचन और मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं दी जाती है। हमारे समाज में पिता नियम बनाता है, पति उन्हें लागू करता है और पुरुष महिलाओं का बॉस होता है। किसी पुरुष संबंधी द्वारा एक बालिका के साथ बलात्कार पर उसे घर में बंद कर दिया जाता है और उससे कहा जाता है कि वह चुप रहे अन्यथा तुम्हारे साथ कोई विवाह नहीं करेगा। 

कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ की शिकार महिलाएं भविष्य में उत्पीडऩ के डर से चुप रहती हैं या वे इसलिए शिकायत करने से हिचकिचाती हैं कि उन्हें लोग दुष्चरित्र कहेंगे किंतु नुक्सान महिलाओं को पहुंचता है। महिलाओं का मुख्य कार्य शादी करना और बच्चे पैदा करना ही रह गया है। कुछ महिलाएं शिकायत करती हैं कि उन्हें सैक्स की वस्तु के रूप में तथा पुरुषों की कामेच्छा को तुष्ट करने के साधन के रूप में देखा जाता है। किंतु उन्हें भी हर स्तर पर संघर्ष करना पड़ता है जिसके चलते वे या तो चुप रह जाती हैं या समझौता कर लेती हैं। पेशे में आगे बढऩे के लिए उन्हें गॉडफादर की आवश्यकता होती है, जो उनका करियर बना या बिगाड़ सकता है। फिल्म उद्योग में यौन उत्पीडऩ बहुत अधिक होता है। अभिनेत्रियां इसकी शिकायत करती हैं तो उन्हें फिल्म मिलना मुश्किल हो जाता है। अभिनेत्रियों को न केवल अपना बदन दिखाने के लिए कहा जाता है अपितु शूटिंग के बाद निर्देशक, निर्माता और अभिनेता के पास जाने के लिए भी कहा जाता है। 

विज्ञापन जगत में पुरुष सहयोगी टिप्पणियां करते हैं कि उन्हें आकर्षक दिखने वाले कपड़े पहनने चाहिएं। शायद इसका संबंध हमारी पितृ सत्तात्मक विरासत से है जिसमें हम महिलाओं को सम्मान नहीं देते हैं। बलात्कार, विवाह संबंध में बलात्कार, यौन हमले और यौन उत्पीडऩ लगातार होता रहता है। हम ऐसी संस्कृति में रह रहे हैं जहां पर बलात्कार का सबसे घिनौना पहलू पीड़िता को बदनाम करना है कि अब उसके साथ कोई भी विवाह नहीं करेगा और इसका एकमात्र उपाय यह है कि वह बलात्कारी से शादी करे। अब तक प्रधानमंत्री मोदी को मुख्यधारा के मीडिया या जनता द्वारा महिलाओं के प्रति उनके व्यवहार के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया गया है।

देश में हो रहे अनगिनत बलात्कारों के बारे में उन्होंने चुप्पी साध रखी है। चाहे वे भाजपा के सहयोगी हों, सांसद या विधायक हों किंतु उन्होंने कानून के शासन की बजाय अवसरवाद को अपनाया है। बलात्कार का आरोपी उन्नाव का विधायक अभी भी भाजपा का सदस्य है। सरकार द्वारा महिलाओं को अधिकार सम्पन्न बनाने के लिए अनेक वायदे करने के बावजूद वह संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटों का आरक्षण कराने में विफल रही है। प्रधानमंत्री ने श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए भी सक्रिय उपाय नहीं किए हैं क्योंकि 2005-06 में श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी 36 प्रतिशत थी जो कम होकर 2015-16 में 24 प्रतिशत रह गई। अब सबकी निगाहें अकबर के मानहानि के दावे पर लगी हैं। तथापि महिलाओं ने अपने साथ अत्याचार करने वालों की पहचान कर दी है और वे ही यह निर्णय करेंगी कि आगे क्या करना है। 

यह सच है कि झूठ के पांव नहीं होते हैं और सच सबसे बड़ा बचाव है। ‘मी टू’ अभियान के बावजूद ऐसी संस्कृति में, जहां पर लोग सोचते हैं कि यौन उत्पीडऩ का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, यौन अपराधों को असंतुलित सैक्स अनुपात का परिणाम माना जाता है और जहां पर महिलाओं का सांस्कृतिक सम्मान नहीं किया जाता है, वहां पर बदलाव लाना बहुत मुश्किल कार्य है। फिर आगे की राह क्या हो? क्या महिलाओं के विरुद्ध दमनकारी अत्याचार बढ़ते रहेंगे? हमारे नेताओं को इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए और इस दिशा में कानूनों को सुदृढ़ बनाया जाना चाहिए। कठोर कानूनों से पुरुष ऐसे कदम उठाने से पूर्व सौ बार सोचेंगे। हमारी शिक्षा प्रणाली में भी लिंग समानता को महत्व देने और पुरुष प्रधान सोच को समाप्त करने पर बल देना चाहिए। यौन उत्पीडऩ के बारे में हमें अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा। 

इसका एक विकल्प यह है कि महिलावादी आंदोलन में तेजी लाई जाए ताकि इसका सामाजिक प्रभाव पड़े और महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी लोगों, समाज और सरकार के कंधों पर डाली जानी चाहिए। महिलाओं को गरिमा, समान अवसर, विचार तथा कार्यों की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। इसके लिए यदि कोई व्यक्ति कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीडऩ का दोषी पाया जाता है तो उसे दंडित किया जाना चाहिए। विशाखा निर्णय में अनेक सुरक्षा उपायों का प्रावधान किया गया है जैसे कि संगठन में शिकायत समिति का गठन करना। 

राजनीतिक दलों को भी आंतरिक शिकायत समिति का गठन करना चाहिए। कठिन समय में कठोर कदम उठाए जाने चाहिएं। आज एक क्रांतिकारी बदलाव की आवश्यकता है। संविधान में महिलाओं को समान अधिकार दिए गए हैं। केवल महिलाओं की स्वतंत्रता की बात करने से काम नहीं चलेगा। हमें महिलाओं को पुरुषों की कामेच्छा की तुष्टि का साधन बनाना बंद करना होगा। क्या महिलाएं अबला बनी रहेंगी? क्या वे काम पिपासु पुरुषों की शिकार बनती रहेंगी? क्या हम एक नई दिशा दिखाकर महिलाओं को मुक्त करेंगे? समय आ गया है कि हम आत्मावलोकन करें और यह घोषणा करें कि यौन उत्पीडऩ बहुत हो चुका है।-पूनम आई. कौशिश

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