क्या ‘संसद सत्र’ फिर सत्तापक्ष व विपक्ष के हंगामों की भेंट चढ़ जाएगा

Edited By ,Updated: 29 Apr, 2016 01:36 AM

parliament will be lost to the ruling party and the opposition uproar

सत्ताधारी पार्टी तथा कांग्रेस नीत विपक्ष के बीच संघर्ष के चलते संसद का एक और सत्र धुलने की ओर अग्रसर दिखाई दे रहा है।

(कल्याणी शंकर): सत्ताधारी पार्टी तथा कांग्रेस नीत विपक्ष के बीच संघर्ष के चलते संसद का एक और सत्र धुलने की ओर अग्रसर दिखाई दे रहा है। दोनों पक्ष एक-दूसरे परहमला करने के लिए ‘हथियारों’ से लैस हैं, इसलिए उनमें मेल-मिलाप का कोई बिन्दु दिखाई नहीं देता। न ही सरकार ने विपक्ष को मनाने के लिए कोई प्रयास किए हैं। 

 
जहां भाजपा अगस्ता हैलीकाप्टर सौदे, इशरत जहां मामले तथा अन्य मुद्दों को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व उपाध्यक्ष राहुल गांधी को घेरने के लिए दृढ़-संकल्पित है, वहीं कांग्रेस भी अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल करके कांग्रेस शासित अरुणाचल प्रदेश तथा उत्तराखंड की सरकारों को बर्खास्त करने के लिए मोदी सरकार में खामियां ढूंढ रही है। 
 
राजनीतिक रूप से देखा जाए तो 5 राज्यों-पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, पुड्डुचेरी तथा केरल में विधानसभा चुनावों के मद्देनजर यह संघर्ष अप्रत्याशित नहीं है जहां सभी राजनीतिक दलों ने ऊंचे दाव लगा रखे हैं, जिनमें कांग्रेस, भाजपा, अन्नाद्रमुक, द्रमुक, तृणमूल कांग्रेस, एल.डी.एफ. तथा अन्य छोटी पाॢटयां शामिल हैं।
 
इस चुनावी संघर्ष के कारण ही यह रणनीति अपनाई जा रही है। आखिरकार असम तथा केरल में कांग्रेस का शासन है और वह दोनों में से कम से कम एक में अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए संघर्षरत है। ताकि 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद अपनी खराब हुई छवि को सुधारा जा सके। भाजपा, जिसके लिए 2015 खराब रहा, जिसमें इसे दिल्ली तथा बिहार में शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा, वह भी इन राज्यों में अपनी स्थिति सुधारना चाहती है, जहां इसकी उपस्थिति बहुत अधिक नहीं है।
 
यह आमना-सामना कई मुद्दों को लेकर है। पहला है-उत्तराखंड। भाजपा वहां सरकार बनाना चाहती है, जबकि कांग्रेस की इच्छा वहां सरकार बनाए रखने की है, जिसे राष्ट्रपति ने बर्खास्त कर दिया है। कांग्रेस के दुर्भाग्य से संसद सत्र ऐसे समय में शुरू हुआ है, जब उत्तराखंड का मामला अदालत में है। बड़ी हैरानी की बात है कि जहां उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने पर प्रश्न उठाया है, वहीं सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को बनाए रखा है। मुख्यमंत्री विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने की प्रतीक्षा में हैं। सुप्रीम कोर्ट का चाहे कुछ भी निर्णय हो, कोई न कोई पार्टी इससे प्रभावित होगी, जिसकी गूंज संसद में सुनाई देगी। 
 
दूसरा है इशरत जहां मामला। भाजपा तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदम्बरम को पटखनी देना चाहती है कि उन्होंने आरोप पत्र में बदलाव सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी के कहने पर किए थे। भाजपा सदस्य इसे लेकर आक्रामक हैं जबकि कांग्रेस बचाव की मुद्रा में है। 
 
तीसरा है पठानकोट आतंकवादी हमले का मामला और कांग्रेस इसे लेकर भाजपा सरकार को धूल चटाना चाहती है। इसे वह भारत-पाक संबंधों से जोड़ती है, जिसमें मोदी सरकार पर ढीली-ढाली नीति अपनाने का आरोप है। सदन इस सप्ताह दिल्ली में एक कांफ्रैंस से इतर विदेश सचिव स्तर की वार्ता पर सरकार से वक्तव्य की आशा में है। 
 
चौथा है गुजरात राज्य पैट्रोलियम निगम मामले का जारी रहना। भारत के महालेखा नियंत्रक (कैग) ने गत 6 वर्षों के दौरान अपनी पांचवीं रिपोर्ट दाखिल की है, जो जी.एस.पी.सी. पर दोषारोपण करती है, जिसे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के माध्यम से चलाया जा रहा था। 
 
पांचवां है मोदी मंत्रिमंडल में तेदेपा के वाई.एस. चौधरी को बनाए रखना, जिनके खिलाफ 100 करोड़ रुपए के ऋण को न चुकाए जाने के लिए गैर जमानती वारंट जारी किया गया है। 
 
अंतिम है अगस्ता हैलीकाप्टर सौदे के साथ कांग्रेस को पराजित करना। भाजपा इस संबंध में इतालवी कोर्ट के फैसले का जोर-शोर से हवाला देती है, जिसमें सोनिया गांधी सहित कुछ वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं द्वारा भ्रष्टाचार की ओर संकेत किया गया है। जहां कांग्रेस ने इस आरोप को खारिज किया है, वहीं भाजपा की मांग है कि यदि घूस देने वाले जेल में हैं तो घूस लेने वालों को भी जेल में होना चाहिए। यह सब ऐसा दिखाई देता है जैसा बोफोर्स मामले में हुआ था, जिसकी कीमत 80 के दशक के अंत में राजीव गांधी व उनकी सरकार को चुकानी पड़ी थी। पनामा दस्तावेजों में हुआ खुलासा, विजय माल्या का प्रत्यर्पण अन्य विवादास्पद मुद्दे हैं। 
 
मुद्दे आते और जाते रहते हैं, मगर प्रश्न यह है कि क्यों संसद को पंगु बना कर रखा जाए। सांसदों के दो प्रमुख कत्र्तव्य हैं-पहला है विधेयकों को पारित करना और दूसरा बजट की समीक्षा करना। संसद सदस्यों को यह एहसास होना चाहिए कि यदि संसद कार्य नहीं करती तो वे अपने कत्र्तव्यों को पूरा करने में असफल रहेंगे। 
 
एक और सत्र का बर्बाद होना सरकार तथा विपक्ष दोनों के लिए अच्छा नहीं होगा। यह आवश्यक है कि लम्बित विधेयकों को पारित करने के लिए वे कोई मिलन बिन्दु तलाशें। सरकार ने दोनों सदनों के लिए व्यापक विधायी कार्य रख छोड़े हैं-लोकसभाके लिए 13 विधेयक तथा 11 विधेयक राज्यसभा केलिए। इस तरह से काफी मात्रा में विधायी कार्य लम्बित हैं। 
 
वित्तीय कार्य, जिनमें लोकसभा में विभिन्न मंत्रालयों को ग्रांटों की मांग तथा राज्यसभा में कुछ मंत्रालयों की कार्यप्रणाली पर चर्चा, रेलवे विनियोग विधेयक 2016 तथा वित्तीय विधेयक 2016 पर चर्चा तथा उन्हें पारित करना सत्र के मुख्य हिस्से हैं। शत्रु सम्पत्ति (संशोधन तथा वैधता) दूसरा अधिनियम 2016, चिरलम्बित वस्तु एवं सेवाकर (जी.एस.टी.) विधेयक, दीवालिया कोड बिल भी संसद की स्वीकृति के इंतजार में हैं। 
 
जब तक ये महत्वपूर्ण सुधार विधेयक पारित नहीं किए जाते तब तक निवेश का माहौल नहीं सुधरेगा क्योंकि विदेशी निवेशक सारी स्थिति पर बहुत करीबी नजर रखे हुए हैं। महाराष्ट्र सहित देश के बहुत से हिस्से अत्यंत सूखे की चपेट में हैं। किसानों की आत्महत्याओं के मामले भी बढ़ रहे हैं। ऐसे तथा आम आदमी से जुड़े अन्य मामलों पर संसद को ध्यान देने की जरूरत है। लोग पहले ही कानून निर्माताओं से निराश हो चुके हैं और यदि यह जारी रहता है तो शीघ्र ही ऐसा दिन आ सकता है जब संसद जनता के लिए अप्रासंगिक बन जाएगी।         
 
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