पटरी बाजार बनता नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला

Edited By ,Updated: 09 Feb, 2024 05:49 AM

patri bazar becomes new delhi world book fair

‘बात करती हैं किताबें, सुनने वाला कौन है? सब बरक यूं ही उलट देते हैं पढ़ता कौन है?’

‘बात करती हैं किताबें, सुनने वाला कौन है?
सब बरक यूं ही उलट देते हैं पढ़ता कौन है?’ 

अख्तर नज्मी प्रकाशकों, पाठकों को बड़ी बेसब्री से इंतजार होता है हर साल सर्दियों में लगने वाले नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला का। इसे दुनिया के सबसे बड़े पुस्तक मेले में गिना जाता है। हालांकि फैडरेशन ऑफ इंडियन पब्लिशर्स (एफ.आई.पी.) हर साल अगस्त में दिल्ली के प्रगति मैदान में ही पुस्तक मेला लगा रहा है और इसमें लगभग सभी ख्यातिलब्ध प्रकाशक आते हैं, बावजूद इसके नैशनल बुक ट्रस्ट के पुस्तक मेले की मान्यता अधिक है। क्योंकि यह मेला किताब खरीदने-बेचने के स्थान से कहीं अधिक एक साहित्यिक और सांस्कृतिक उत्सव और लेखकों के मेल-मिलाप की तरह होता है। 

वैश्वीकरण के दौर में हर चीज बाजार बन गई है, लेकिन पुस्तकें अभी इस श्रेणी से दूर हैं। इसके बावजूद पिछले कुछ सालों से नई दिल्ली पुस्तक मेला पर वैश्वीकरण का प्रभाव देखने को मिल रहा है। हर बार 1300 से 1400 प्रकाशक/विक्रेता भागीदारी करते हैं, लेकिन इनमें बड़ी संख्या पाठ्य पुस्तकें बेचने वालों की होती हे। दरियागंज के अधिकांश विक्रेता यहां स्टाल लगाते हैं। परिणामत: कई-कई स्टालों पर एक ही तरह की पुस्तकें दिखती हैं। यह बात भी तेजी से चर्चा में है कि इस पुस्तक मेले में विदेशी भागीदारी लगभग न के बराबर होती जा रही है। यदि श्रीलंका और नेपाल को छोड़ दें तो विश्व बैंक, विश्व श्रम संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनीसेफ आदि के स्टाल विदेशी में अपनी प्रचार सामग्री प्रदर्शित करते दिखते हैं। फ्रैंकफर्ट और अबूधाबी पुस्तक मेला के स्टाल भागीदारों को आकर्षित करने के लिए होते हैं। 

कुछ साल पहले तक विदेशी मंडप में पाकिस्तान की आमद ताकतवर होती थी। 8 से 10 प्रकाशक आते थे और खूब बिक्री भी होती थी। दोनों देशों के बीच ताल्लुकात खराब हुए तो बाकी तिजारत तो जारी रही, बस एक दूसरे के पुस्तक मेलों में सहभागिता बंद हो गई। ‘विशेष अतिथि देश’ के मंडप में जरूर किताबें होती हैं लेकिन केवल प्रदर्शनी के लिए वह भी कुछ ही दिन को इक्का-दुक्का स्टालों पर विदेशी पुस्तकों के नाम पर केवल ‘रिमैंडर्स’ यानी अन्य देशों की फालतू या पुरानी पुस्तकें होती हैं। ऐसी पुस्तकों को प्रत्येक रविवार को दरियागंज में लगने वाले पटरी-बाजार से आसानी से खरीदा जा सकता है। 

नई दिल्ली पुस्तक मेला में बाबा-बैरागियों और कई तरह के धार्मिक संस्थाओं के स्टालों में हो रही अप्रत्याशित बढ़ौतरी भी गंभीर पुस्तक प्रेमियों के लिए चिंता का विषय है। इन स्टालों पर कथित संतों के प्रवचनों की पुस्तकें, आडियो कैसेट व सीडी बिकती हैं। कुरान शरीफ और बाइबल से जुड़ी संस्थाएं भी अपने प्रचार-प्रसार के लिए विश्व पुस्तक मेले का सहारा लेने लगी हैं। दुखद यह है कि पिछले 5 सालों में ऐसे स्टाल झगड़े और टकराव के स्थान बन गए हैं। आए रोज वहां कोई संगठन आकर उधम करता है। सबसे बड़ी बात ऐसे स्टाल पर दिन भर तेज आवाज में ऑडियो-वीडियो चलते हैं और धर्म के कारण उस पर कोई दखल देता नहीं, लेकिन उससे बाकी भागीदारों को दिक्कतें होती हैं।

पुस्तक मेला के दौरान बगैर किसी गंभीर योजना के सैमीनारों, पुस्तक लोकार्पण आयोजनों का भी अंबार होता है। कई बार तो ऐसे कार्यक्रमों में वक्ता कम और श्रोता अधिक होते है। यह बात भी अब किसी से छिपी नहीं है कि अब लेखक अमनच पर एक खास विचारधारा के लोगों का कब्जा है, जबकि ये स्थान  पुस्तक मेले में भागीदारी करने वाले प्रकाशकों के लिए बनाए गए थे, ताकि वे अपने स्टाल पर पुस्तक विमोचन न करें, जिससे आवागमन के रास्ते बंद हो जाते हैं। जान कर आश्चर्य होगा कि पिछले साल अंग्रेजी के आथर्स कोर्नर में एक ऐसा सैमीनार हुआ जिसमें कठुआ में एक छोटी बच्ची के साथ बलात्कार और हत्या के मामले में आरोपियों का बचाव किया जा रहा था। 

पुस्तक मेले के दौरान प्रकाशकों, धार्मिक संतों, विभिन्न एजैंसियों द्वारा वितरित की जाने वाली नि:शुल्क सामग्री भी एक आफत है। पूरा प्रगति मैदान रद्दी से पटा दिखता है। कुछ सौ लोग तो हर रोज ऐसा ‘कचरा’ एकत्र कर बेचने के लिए ही पुस्तक मेले  को याद करते हैं। एक बात और बुद्धिजीवियों को खटक रही है कि पुस्तक मेले को राजनीतिक दलों के नेताओं के होॄडग पोस्टरों से पाट दिया जाता है, दुनिया के किसी भी पुस्तक मेले में वहां के मंत्री या नेताओं के प्रचार की सामग्री नहीं लगाई जाती है। छुट्टी के दिन मध्यवर्गीय परिवारों का समय काटने का स्थान, मुहल्ले व समाज में अपनी बौद्धिक ताबेदारी सिद्ध करने का अवसर और बच्चों को छुट्टी काटने का नया डैस्टीनेशन भी होता है-पुस्तक मेला।-पंकज चतुर्वेदी 
 

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