परिवारवाद की राजनीति लोकतंत्र की भावना के विपरीत

Edited By ,Updated: 26 Jul, 2022 05:40 AM

politics of familyism contrary to the spirit of democracy

परिवारवाद या वंशवाद की राजनीति संभवत: लोकतंत्र की भावना के विपरीत है। आलोचकों का कहना है कि यह भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्याप्त कई राजनीतिक बुराइयों में से एक है। यहां कांग्रेस

परिवारवाद या वंशवाद की राजनीति संभवत: लोकतंत्र की भावना के विपरीत है। आलोचकों का कहना है कि यह भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्याप्त कई राजनीतिक बुराइयों में से एक है। यहां कांग्रेस सहित लगभग सभी राजनीतिक दल एक पारिवारिक उद्यम की तरह चलाए जा रहे हैं। विरोधाभास यह है कि गत 75 वर्षों में कई क्षेत्रीय क्षत्रप उभरे हैं और लोकतंत्र के साथ सह-अस्तित्व में हैं। भारत में लगभग 50 प्रासंगिक राजनीतिक दलों में से साम्यवादी दलों जैसे मात्र 7 या 8 दल परिवारवाद की राजनीति से मुक्त हैं। 

हाल ही में भाजपा के 42वें स्थापना दिवस समारोह के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि इस देश में अभी भी 2 तरह की राजनीति चल रही है। एक है परिवार के प्रति निष्ठा (वंशवादियों) की राजनीति तथा अन्य है (भाजपा की तरह) राष्ट्रवाद के लिए समर्पित। जहां गत 2 लोकसभा चुनावों में ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ तथा ‘भ्रष्टाचार मुक्त भारत’ भाजपा के 2 प्रमुख नारे थे, 2024 के चुनाव प्रसार के लिए नैरेटिव संभवत: ‘वंशवाद मुक्त भारत’ होगा। इसका थीम यह होगा कि जहां भाजपा राष्ट्र के प्रति समॢपत है, अन्य पाॢटयां ‘परिवारों के प्रति समॢपत हैं’। इस नैरेटिव में क्षेत्रीय दल भी शामिल हैं जिनमें से अधिकतर का झुकाव परिवारों की ओर है। 

भाजपा ने अब महसूस किया है कि उसे वास्तविक खतरा कई राज्यों में परिवारों द्वारा शासित क्षेत्रीय दलों द्वारा है। कांग्रेस के परिवारवाद को दरकिनार करने के बाद पार्टी ने 8 प्रमुख परिवारों की पहचान की है जिनका देश भर में राज्यों की राजनीति में प्रभुत्व है तथा इसका इरादा उन्हें राजनीतिक रूप से बर्बाद करना है। तेलंगाना, मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिजोरम तथा राजस्थान में 2023 में विधानसभा चुनाव होने हैं। 

प्रश्र यह है कि क्या वंशवादियों को समाप्त करना संभव है, जैसा भाजपा ने सपना देखा है? यह वास्तव में महत्वाकांक्षी है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक बहुत से वंशवादी परिवार हैं, जैसे कि अब्दुल्ला। कश्मीर में मुफ्ती, पंजाब में बादल तथा कैप्टन अमरेंद्र सिंह, राजस्थान व मध्य प्रदेश में राजे तथा पायलट तथा उत्तर प्रदेश, बिहार में यादव ऐसे ही परिवारवादी हैं। ओडिशा में पटनायक, कर्नाटक में गौड़ा व बोम्मई, असम में गोगोई, तमिलनाडु में करुणानिधि, तेलंगाना व आंध्र प्रदेश में राव तथा रैड्डी, झारखंड में सोरेन तथा हरियाणा में चौटाला तथा हुड्डा उल्लेखनीय हैं। 

दक्षिणी राज्य वर्तमान में क्षेत्रीय क्षत्रपों की छत्रछाया में हैं-तेलंगाना राष्ट्र समिति के के. चंद्रशेखर राव, आंध्र प्रदेश में वाई.एस. जगनमोहन रैड्डी, तमिलनाडु में एम.के. स्टालिन तथा केरल में पिनाराई विजयन। अपनी आगामी परियोजना के अंतर्गत भाजपा की नजर इन चारों को कमजोर करने की है। पार्टी के वर्तमान में तमिलनाडु में मात्र 4 विधायक हैं (जो अन्नाद्रमुक के आसरे हैं) तथा आंध्र प्रदेश तथा केरल में एक भी नहीं है। तेलंगाना में 3 विधायक हैं जो अपने बूते पर जीते हैं। इसलिए पहला कदम उन्हें कमजोर करना होगा। दक्षिण में 5 राज्यों में 120 सीटें हैं। सभी प्रयासों के बावजूद पार्टी कर्नाटक के अतिरिक्त दक्षिण राज्यों पर कोई पकड़ बनाने में सफल नहीं रही। 

अब प्रश्न यह उठता है कि क्यों इन परिवारवादी नेताओं का लोगों पर प्रभाव है? परिवार आधारित पाॢटयां अपने बेटे-बेटियों या करीबी रिश्तेदारों को अपने उत्तराधिकारी के तौर पर इसलिए चुनती हैं क्योंकि वे महसूस करती हैं कि वे एक जिम्मेदारी से अधिक उनके लिए एक पूंजी के समान हैं। उन्हें अपने निधन के पश्चात सत्ता संभालने के लिए उन्हें प्रशिक्षित करना आसान होता है। दूसरे, पारिवारिक उम्मीदवारों के नए उम्मीदवारों के मुकाबले चुने जाने की अधिक संभावना होती है। तीसरे, कुछ क्षेत्रीय क्षत्रपों ने एहसास किया है कि परिवार की सत्ता स्थापित करने से उन्हें वफादारी तथा विश्वास प्राप्त होता है। द्रमुक जैसी पार्टी ने भी करुणानिधि के वंशवाद से निपटने के लिए खुद को संगठित किया है। 

दूसरी ओर भाजपा तथा अन्यों का मानना है कि वंशवाद की राजनीति एक लोकतंत्र में अच्छी नहीं क्योंकि यह केवल उन नेताओं को सक्षम बनाती है जिनके एक वंशवादी परिवार में सफलता के लिए मजबूत संबंध होते हैं ताकि वह अपने आप सिर्फ इस कारण उस पद को हासिल कर लें क्योंकि वे सत्ताधारी परिवार से संबंध रखते हैं। परिवार के शासन का दावा करने वाले नए जागीरदार सारे भारत में उभर आए हैं। यह नई प्रतिभाओं को आगे आने से हतोत्साहित करता है। 

भाजपा भी परिवारवाद की राजनीति से अछूती नहीं है। आलोचकों का कहना है कि ऐसा दिखाई देता है कि यह ज्योतिरादित्य सिंधिया, पीयूष गोयल, धर्मेंद्र प्रधान, अनुराग ठाकुर तथा किरण रिजिजू जैसे परिवारवादियों पर लागू नहीं होता जो सभी मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं। न ही यह कर्नाटक के बसवराज बोम्मई या अरुणाचल प्रदेश के पेमा खांडू जैसे भाजपा मुख्यमंत्रियों पर लागू हो सकता है। राजनीतिक वंशवादियों की समाप्ति की आशा करना संभवत: पूर्वानुमान होगा, क्योंकि इसमें कुछ समय लगेगा क्योंकि अभी तक लोग इनसे जुड़े हुए हैं। 

वर्तमान नेता अपने पारिवारिक सदस्यों को अपने राजनीतिक उत्तराधिकारियों के तौर पर पेश करने में शर्म महसूस नहीं करते। यद्यपि भाजपा एक वंशवाद या परिवारवाद मुक्त भारत चाहती है, लेकिन जब तक वंशवादी अपने आख्यानों से मतदाताओं को आकर्षित कर सकते हैं तथा उनके पास उन्हें प्रभावित करने की क्षमता है, वे अपने क्षेत्रों पर प्रभाव बनाए रखेंगे। केवल एक राहत यह है कि परिवारवादी भी चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से ही आते हैं।-कल्याणी शंकर         
 

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!