किसानों और राज्य सरकारों को रास नहीं आ रही प्रधानमंत्री बीमा योजना

Edited By Punjab Kesari,Updated: 23 Jun, 2018 04:24 AM

prime ministers insurance scheme not coming to farmers and state governments

किसान को फसल खराब होने पर भुगतान देरी से मिलता है और वह भी आधा-अधूरा। राज्य सरकारों के कृषि विभाग का आधा बजट प्रीमियम चुकाने में जा रहा है। हम बात कर रहे हैं प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की जिससे बिहार के मुख्यमंत्री और एन.डी.ए. के साथी नीतीश कुमार...

किसान को फसल खराब होने पर भुगतान देरी से मिलता है और वह भी आधा-अधूरा। राज्य सरकारों के कृषि विभाग का आधा बजट प्रीमियम चुकाने में जा रहा है। हम बात कर रहे हैं प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की जिससे बिहार के मुख्यमंत्री और एन.डी.ए. के साथी नीतीश कुमार किनारा कर चुके हैं और राजस्थान की भाजपा सरकार भी विकल्प तलाशने में लगी है। अपनी फसल बीमा योजना से प्रधानमंत्री मोदी को बहुत मोह है लेकिन क्या वजह है कि किसानों से लेकर राज्य सरकारों का इनसे मोहभंग होता जा रहा है। 

बिहार सरकार ने तो आज से बिहार किसान सहायता योजना शुरू कर दी है। इसमें किसानों की फसलों का बीमा नहीं किया जाएगा अपितु फसल खराब होने की सूरत में किसानों को सरकार की तरफ से मुआवजा मिलेगा। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में जहां 30 प्रतिशत से ज्यादा फसल खराब होने पर मुआवजा मिलता है, वहीं बिहार सरकार का दावा है कि 1 प्रतिशत फसल खराब होने पर भी मुआवजा मिलेगा। रेट रहेगा साढ़े 7 हजार प्रति हैक्टेयर का। इससे बिहार के 1 करोड़ किसानों को लाभ मिलेगा। बिहार में पिछले साल बीमा कम्पनियों को करीब 1 हजार करोड़ रुपए का प्रीमियम दिया गया था लेकिन किसानों के हिस्से में भुगतान 221 करोड़ का ही आया। इस तरह बीमा कम्पनियों को करीब 800 करोड़ का घर बैठे मुनाफा हुआ। 

दरअसल बिहार के मुख्यमंत्री पहले ही पी.एम. फसल बीमा योजना के नाम से असहमत रहे हैं। उनका कहना है कि जब बीमा कम्पनियों को केंद्र के बराबर प्रीमियम राज्य सरकार भी देती है तो फिर इस योजना का नाम प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री फसल बीमा योजना होना चाहिए। इसके साथ ही राज्य सरकार ही बीमा कम्पनियों से हर बार खरीफ और रबी के लिए करार करती है, उपज का अंदाजा लगाने के लिए क्रॉप कटिंग का काम भी राज्य सरकार का राजस्व और कृषि विभाग करता है। बीमा कम्पनियों और बैंकों तक ये सारे आंकड़े भेजने का काम भी राज्य सरकारों की तरफ से ही किया जाता है, ऐसे में योजना सिर्फ प्रधानमंत्री के नाम से ही क्यों संचालित की जानी चाहिए, ऐसा बिहार सरकार का मानना रहा है। 

नीतीश कुमार की बात में दम नजर आता है लेकिन एन.डी.ए. का साथी होने के बावजूद इस योजना से खुद को अलग कर और नई योजना की शुरूआत कर नीतीश कुमार कहीं न कहीं मोदी और अमित शाह को सियासी संकेत देने की भी कोशिश कर रहे हैं। 2 साल पहले 2016 में यह योजना शुरू की गई थी। तब पंजाब में अकाली दल और भाजपा की मिली-जुली सरकार थी और उसने इस योजना को लागू करने से ही इंकार कर दिया था। तेलंगाना में यूं तो यह योजना लागू है लेकिन वहां की सरकार किसानों को प्रति एकड़ प्रति सीजन (रबी या खरीफ) चार हजार रुपए की नकद सहायता देती है। ऐसी मदद करीब 71 लाख किसानों की की जा रही है और आमतौर पर इस राशि से किसानों के थोड़े-बहुत नुक्सान की भरपाई हो जाती है। 

पी.एम. फसल योजना के तहत किसानों को रबी के लिए 1.5 प्रतिशत और खरीफ के लिए 2 प्रतिशत का प्रीमियम चुकाना पड़ता है। बाकी की प्रीमियम राशि केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर चुकाती हैं। पिछले वित्तीय वर्ष में बीमा कम्पनियों को करीब 24 हजार करोड़ रुपए दिए गए। रबी की फसल आने के 4 महीने बाद भी अभी तक किसानों को केवल 400 करोड़ रुपए का ही भुगतान किया गया है। इसी तरह इससे पिछले वित्तीय वर्ष में बीमा कम्पनियों को करीब 22 हजार करोड़ रुपए दिए गए और उसने किसानों को करीब 12 हजार करोड़ का मुआवजा दिया। इस तरह घर बैठे बीमा कम्पनियों को करीब 10 हजार करोड़ का मुनाफा हुआ। केंद्र सरकार तो इस खर्च को आसानी से वहन कर लेती है लेकिन राज्य सरकारों के कृषि विभागों पर बोझ बढ़ता ही जा रहा है। उदाहरण के लिए राजस्थान में कृषि विभाग का सालाना बजट 2800 करोड़ का है। जबकि बीमा का प्रीमियम चुकाने में इसमें से 1250 करोड़ रुपए खर्च हो गए। यह कुल बजट का 40 प्रतिशत बैठता है। 

राज्य सरकार का कहना है कि लंबे समय तक इस खर्चे को उठा पाना न तो संभव हो सकेगा और न ही व्यावहारिक। आने वाले सालों में इस खर्च में इजाफा ही होना है क्योंकि प्रीमियम की दरें बढऩे की आशंका ज्यादा है। कुछ अन्य राज्य सरकारें भी केंद्र से इस खर्च को लेकर चिंता जाहिर कर चुकी हैं। जानकारों का भी कहना है कि जब खाद पर सारी सबसिडी का बोझ केंद्र सरकार उठा सकती है तो फिर फसल बीमा का पैसा क्यों अकेले अपनी जेब से नहीं दे सकती? जबकि योजना भी प्रधानमंत्री के नाम पर ही शुरू की गई है। 

एक तरफ अथाह पैसा बीमा कम्पनियां कमा रही हैं तो वहीं किसानों को उनके दावों का भुगतान देरी से और आधा-अधूरा मिलने की ही शिकायतें सामने आ रही हैं। उदाहरण के लिए जयपुर जिले की फागी तहसील की हम बात करें तो यहां खरीफ 2017 में 829 किसानों ने 1436 हैक्टेयर में मूंग उगाई जिसके लिए 6 लाख 24 हजार 660 रुपए का प्रीमियम चुकाया। फसल खराब हुई लेकिन बीमा कम्पनी ने भुगतान से इंकार कर किया। हैरत की बात है कि बीमा कम्पनी ने कह दिया कि फसल खराब नहीं हुई तो भुगतान कैसा। उधर राजस्थान सरकार ने गिरदावरी करवाई, जिसमें 70 प्रतिशत फसल खराब होना स्वीकारा। 

ग्राम सेवा सहकारी समिति के अध्यक्ष ओमप्रकाश शर्मा बताते हैं कि राज्य सरकार ने 8 बीघा तक खेत वालों को 11 हजार रुपए और उससे ज्यादा वालों को 12 हजार पांच सौ रुपए का मुआवजा दिया लेकिन बीमा कम्पनी ने एक रुपया नहीं दिया। हैरानी की बात है कि पिछले दो सालों में दो बार खरीफ और दो बार रबी की फसलों के लिए फागी के किसान करीब 20 लाख रुपए का प्रीमियम मूंग और चने पर चुका चुके हैं लेकिन एक बार भी भुगतान नहीं मिला है। बात केवल फागी तहसील तक सीमित नहीं है। राजस्थान सरकार को तो सरकारी क्षेत्र की बीमा कम्पनी यूनाइटिड इंश्योरैंस को ब्लैक लिस्ट तक करना पड़ा क्योंकि उसने हनुमानगढ़, गंगानगर, चूरू और नागौर जिलों की 30 तहसीलों के किसानों के हक के 344 करोड़ रुपए चुकाने से इंकार कर दिया था। राज्य के कृषि मंत्री प्रभुलाल सैनी ने व्यक्तिगत रुचि दिखाते हुए इस मामले को पूरी संजीदगी से लिया और केंद्र सरकार तक यह शिकायत पहुंचाई, तब जाकर किसानों के खातों में 344 करोड़ आ पाए। 

यही वजह है कि किसानों का इस योजना से मोहभंग हो रहा है। पिछले साल के मुकाबले बीमा के तहत आने वाला फसली क्षेत्र भी घटा है और फसल बीमा कराने वाले किसानों की तादाद भी घटी है। 2016-17 में कुल फसली क्षेत्र के 30 प्रतिशत का बीमा हुआ था जो 2017-18 में घटकर 23 प्रतिशत ही रह गया है जबकि लक्ष्य 40 प्रतिशत का था। 2016-17 में 5 करोड़ 53 लाख किसानों ने फसल बीमा करवाया था जो 2017-18 में कम होकर 4 करोड़ 80 लाख किसानों पर आ गया है। कहा जा सकता है कि 2018-19 तक देश के आधे फसली क्षेत्र (करीब दस करोड़ हैक्टेयर) को बीमा कवर देने का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकेगा जबकि अमरीका में यह आंकड़ा 90 प्रतिशत का है और चीन में करीब 70 प्रतिशत का। देशभर में किसान सड़कों पर हैं।

मोदी 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने की बात करते हैं लेकिन खेती में होने वाला घाटा हर साल बढ़ता ही जा रहा है। जानकारों का कहना है कि अगर फसल बीमा योजना के तहत फसल खराब होने पर किसानों को समय पर और पूरा भुगतान एक साथ हो जाए तो उनके आक्रोश को कुछ कम किया जा सकता है लेकिन हकीकत क्या है, आप जान ही चुके हैं। साफ है कि किसानों के दुखड़े अपनी जगह हैं। बीमा कम्पनियां मुनाफे की फसल काट रही हैं। राज्य सरकारों के कृषि विभागों पर बोझ पड़ रहा है। ऐसे में पी.एम. फसल बीमा योजना के सहारे 2019 में चुनावी फसल काटने की उम्मीद एक बंजर उम्मीद ही नजर आती है।-विजय विद्रोही

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