चुनाव आयुक्त अरुण गोयल के इस्तीफे से उठे सवाल

Edited By ,Updated: 12 Mar, 2024 05:17 AM

questions raised by the resignation of election commissioner arun goyal

अगर किसी महत्वपूर्ण मैच से ठीक पहले ही अम्पायर को बदल दिया जाए तो आपके मन में कोई सवाल खड़ा होगा? अगर खबर आए कि मैच से एक दिन पहले एक अंपायर ने रहस्यमय स्थिति में इस्तीफा दे दिया है तो आप क्या सोचेंगे? अगर पता लगे कि 3 में से 2 नए अंपायरों की...

अगर किसी महत्वपूर्ण मैच से ठीक पहले ही अम्पायर को बदल दिया जाए तो आपके मन में कोई सवाल खड़ा होगा? अगर खबर आए कि मैच से एक दिन पहले एक अंपायर ने रहस्यमय स्थिति में इस्तीफा दे दिया है तो आप क्या सोचेंगे? अगर पता लगे कि 3 में से 2 नए अंपायरों की नियुक्ति मैच में खेल रही एक टीम का कैप्टन करेगा तो आपको कैसा लगेगा? अगर यह सब न्यूट्रल यानी निष्पक्ष अम्पायर को नियुक्त करने की सिफारिश के बावजूद हुआ हो तो? आपके मन में पूरे खेल की विश्वसनीयता पर सवाल उठेगा या नहीं? 

यही सवाल लोकसभा चुनाव की घोषणा से कुछ ही दिन पहले चुनाव आयुक्त अरुण गोयल के इस्तीफे से करोड़ों भारतीय नागरिकों के मन में उठ रहे हैं। फिलहाल हम इस्तीफे के कारण और परिस्थिति के बारे में कुछ ज्यादा नहीं जानते। बस इतना जरूर जानते हैं कि अरुण गोयल का कार्यकाल 2027 तक का था। अगले साल यानी 2025 में उनके मुख्य चुनाव आयुक्त बनने का नंबर था। ऐसी बड़ी कुर्सी को कोई जल्दी से नहीं छोड़ता। इस्तीफे का कोई व्यक्तिगत कारण हो, ऐसी कोई खबर नहीं है। अगर वास्तव में ऐसा कुछ होता तो सरकार की तरफ से प्रचारित कर दिया जाता। 

मीडिया में जो खबर चलाई जा रही है, वह यह कि उन्होंने मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार से मतभेद के चलते इस्तीफा दिया। इस पर भरोसा करना मुश्किल है, क्योंकि अगर व्यक्तिगत मतभेद थे तो अरुण गोयल को अपनी राय रखने का पूरा अधिकार था, उनके वोट का भी उतना ही वजन होता। और अचानक इतना गहरा क्या मतभेद हुआ, जिससे रातों-रात एक संवैधानिक पद से इस्तीफा देने की नौबत आ गई? यूं भी अगर गंभीर मतभेद भी था तो यह कुछ समय की बात थी क्योंकि अगले साल तक तो राजीव कुमार रिटायर हो जाते। अभी तक यह खबर नहीं है कि अगर मुख्य चुनाव आयुक्त से मतभेद था तो किस मुद्दे पर था। बस हम इतना जानते हैं कि दोनों चुनाव आयुक्त पश्चिम बंगाल के दौरे पर थे, वहां चुनावी तैयारी का जायजा ले रहे थे। उस दौरान कुछ ऐसी बात हुई, जिसके बाद अरुण गोयल ने वहां प्रैस कांफ्रैंस में भाग नहीं लिया। अगले दिन चुनाव आयोग में हुई एक औपचारिक बैठक में हिस्सा लिया लेकिन उसके तुरंत बाद किसी को बताए बिना इस्तीफा दे दिया। 

खबर यह भी है कि कुछ अफसरों द्वारा मनाने के कोशिश भी हुई लेकिन वह टस से मस नहीं हुए। इससे ज्यादा खबर न तो है, न ही जल्द मिलने को कोई उम्मीद है। हो सकता है कुछ साल बाद किसी पुस्तक के विमोचन पर इसका खुलासा हो, जैसे जनरल नरवणे ने अब एक किताब में बताया कि सेना ने अग्निवीर योजना का विरोध किया था (उस किताब को अभी रोक लिया गया है)। इसलिए सारा देश कयास लगाने पर मजबूर है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पश्चिम बंगाल में भाजपा की विशेष दिलचस्पी है। अगला चुनाव जीतने के भाजपा के मंसूबे पश्चिम बंगाल में 2021 के चुनाव में हुई जबरदस्त हार को पलटने पर टिके हैं। और उसके लिए पुलिस, सुरक्षा बलों, प्रशासन और चुनाव आयोग का सहयोग बहुत जरूरी है। तो क्या भाजपा पश्चिम बंगाल में चुनाव आयोग से कुछ ऐसा चाहती थी, जिसके लिए मुख्य चुनाव आयुक्त तो राजी थे लेकिन अरुण गोयल असहज थे? या कि मामला सिर्फ पश्चिम बंगाल का नहीं, पूरे देश के स्तर पर था? क्या चुनाव आयुक्त पर कुछ ऐसा करने का दबाव था, जो वह कर नहीं पा रहे थे? क्या उन्होंने अपनी असहमति सरकार में किसी के सामने नहीं रखी होगी? मुख्य चुनाव आयुक्त से असहमति के कारण इस्तीफे की नौबत तभी आती है, अगर कहीं ‘ऊपर से’ इशारा हो कि चुपचाप से उनकी बात मान लो वरना...! 

ऐसा कयास आधारहीन नहीं है। पिछले चुनाव के दौरान भी ऐसी घटना हो चुकी है। उस समय चुनाव आयुक्त थे अशोक लवासा। उन्हें भी मोदी सरकार ने ही चुनाव आयुक्त बनाया था। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा द्वारा चुनावी आचार संहिता के घोर उल्लंघन के कुछ मुद्दों पर चुनाव आयोग की अंदरूनी बैठकों में आपत्ति जताई। चुनाव से पहले नमो चैनल लांच करने को आचार संहिता का उल्लंघन बताया। बाकी दो चुनाव आयुक्तों ने उनकी राय को नहीं माना और भाजपा का कोई नुकसान नहीं हुआ। लेकिन उसी वक्त सरकार की एजैंसियों ने उनकी पत्नी और बच्चों के विरुद्ध जांच करनी शुरू कर दी। उसके बाद 2020 में अशोक लवासा चुपचाप से चुनाव आयोग से इस्तीफा देकर विदेश चले गए और जांच अपने आप बंद हो गई। सवाल है कि अरुण गोयल ने भी कहीं अशोक लवासा जैसी स्थिति से बचने के लिए तो  इस्तीफा नहीं दिया? मतभेद मुख्य चुनाव आयुक्त से नहीं, बल्कि सर्वोच्च राजनीतिक सत्ता से थे? 

अभी ये कयास ही हैं। अरुण गोयल खुद दूध के धुले हों, ऐसी बात नहीं है। सच यह है कि उनकी नियुक्ति भी इतने विवादास्पद तरीके से हुई थी कि सुप्रीम कोर्ट को उनकी नियुक्ति के तरीके पर कड़ी टिप्पणी करनी पड़ी थी। उस वक्त सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के तरीके को लेकर केस की सुनवाई हो रही थी। सुनवाई के बीच वादी के वकील प्रशांत भूषण ने अनुरोध किया कि इस मामले का फैसला होने तक सरकार को चुनाव आयोग में रिक्त पद को भरने से रोका जाए। 

गुरुवार के दिन अदालत ने इस सवाल पर सुनवाई के लिए अगला सोमवार तय किया। लेकिन अगले ही दिन शुक्रवार को सरकार ने आनन-फानन में चुनाव आयुक्त के पद के लिए पैनल बनाया, चयन समिति की बैठक बुलाई और चयन कर लिया। उसी दिन सुबह अरुण गोयल ने वी.आर.एस. के लिए आवेदन किया, शाम तक राष्ट्रपति ने उनका आवेदन स्वीकार कर उन्हें चुनाव आयुक्त के पद पर नियुक्त भी कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इस घटनाक्रम पर अफसोस जाहिर किया, हालांकि उनकी नियुक्ति को खारिज नहीं किया। ऐसे व्यक्ति का इस्तीफा यह सवाल पूछने को मजबूर करता है कि आखिर चुनाव आयोग से ऐसी कैसी मांग की गई होगी, जिसे पूरा करने को सरकार का विश्वासपात्र व्यक्ति भी संकोच कर गया? 

इस प्रकरण से इसी संदेह को बल मिलता है कि चुनाव आयोग पर कुछ असाधारण काम करने का दबाव है, जो सत्ताधारी पार्टी के 400 पार के मिशन का रास्ता आसान कर दे। पिछले काफी समय से चुनाव आयोग के रुख ने इसी संदेह को पुष्ट किया है। पुणे में संवैधानिक मर्यादा का ल्लंघन कर उपचुनाव न करवाना, भाजपा के नेताओं के बयानों पर आंख मूंद कर केवल राहुल गांधी को चेतावनी देना हाल ही के ऐसे कदम हैं, जो ङ्क्षचता का कारण हैं। यहां गौरतलब है कि पिछले 10 महीने से विपक्ष चुनाव आयोग से ई.वी.एम. को लेकर एक बैठक मांग रहा है, लेकिन चुनाव आयोग ने एक बैठक का समय भी नहीं दिया। 

ऐसे में सरकार द्वारा चुनाव से ठीक पहले 2 नए आयुक्तों की नियुक्ति लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। इस बीच सुप्रीम कोर्ट यह फैसला दे चुका है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति केवल सरकार को नहीं करनी चाहिए, इसके लिए एक निष्पक्ष व्यवस्था होनी चाहिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के सुझाव को नजरअंदाज कर सरकार ने नया कानून बनाया है और फिर चुनाव आयोग की नियुक्ति प्रधानमंत्री और उनके ही एक मंत्री के बहुमत वाली समिति के हाथ में दे दी है। अगर इस तरीके से 2 नए चुनाव आयुक्त चुने जाते हैं, तो पूरी चुनाव व्यवस्था पर सवाल उठने लाजिमी हैं। अब जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट की है। अगर उसे अपने ही फैसले का सम्मान करना है तो सरकार द्वारा चुनाव से पहले चुनाव आयोग में नई नियुक्तियों को रोकना होगा और इन नई नियुक्तियों को कोर्ट द्वारा तय किए गए तरीके से करवाना होगा, जिसमें चयन समिति में प्रधानमंत्री और नेता विपक्ष के साथ मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हों। सवाल सिर्फ एक चुनाव आयुक्त के इस्तीफे का नहीं, बल्कि पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था की साख का है।-योगेन्द्र यादव
 

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