शिकारा : कश्मीरी ‘प्रेम कथा’

Edited By ,Updated: 10 Feb, 2020 03:30 AM

shikara kashmiri prem katha

कश्मीर की घाटी से 20 बरस पहले भयावह परिस्थितियों में पलायन करने  वाले कश्मीरी पंडितों को उम्मीद थी कि विधु विनोद चोपड़ा की नई फिल्म ‘शिकारा’ उनके दुॢदनों पर प्रकाश डालेगी।वे देखना चाहते थे कि किस तरह हत्या, लूट, बलात्कार, आतंक और धमकियों के सामने 24...

कश्मीर की घाटी से 20 बरस पहले भयावह परिस्थितियों में पलायन करने  वाले कश्मीरी पंडितों को उम्मीद थी कि विधु विनोद चोपड़ा की नई फिल्म ‘शिकारा’ उनके दुर्दिनों पर प्रकाश डालेगी। वे देखना चाहते थे कि किस तरह हत्या, लूट, बलात्कार, आतंक और धमकियों के सामने 24 घंटे के भीतर लाखों कश्मीरी पंडितों को अपने घर,जमीन-जायदाद, अपना इतिहास, अपनी यादें और अपना परिवेश छोड़कर भागना पड़ा। वे अपने ही देश में शरणार्थी हो गए। जम्मू और अन्य शहरों के शिविरों में उन्हें बदहाली की जिंदगी जीनी पड़ी। 25 डिग्री तापमान से ज्यादा जिन्होंने जिंदगी में गर्मी देखी नहीं थी, वे 40 डिग्री तापमान में ‘हीट स्ट्रोक’ से मर गए। 

जम्मू के शिविरों में जहरीले सर्पदंश से मर गए। कोठियों में रहने वाले टैंटों में रहने को मजबूर हो गए। 1947 के भारत-पाक विभाजन के बाद यह सबसे बड़ी त्रासदी थी, जिस पर आज तक कोई बॉलीवुड फिल्म नहीं बनी। उन्हें उम्मीद थी कि कश्मीर के ही निवासी विधु विनोद चोपड़ा इन सब हालातों को दिखाएंगे, जिनके कारण उन्हें कश्मीर छोडऩा पड़ा। वे दिखाएंगे कि किस तरह तत्कालीन सरकारों ने कश्मीरी पंडितों की लगातार उपेक्षा की। वह चाहती तो इन 5 लाख कश्मीरियों को देश के पर्वतीय क्षेत्रों में बसा देती। पर ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। 

कश्मीरी पंडित आज भी बाला साहब ठाकरे को याद करते हैं। जिन्होंने महाराष्ट्र के कालेजों में एक-एक सीट कश्मीरी शरणाॢथयों के लिए आरक्षित कर दी, जिससे उनके बच्चे अच्छा पढ़ सके। वे जगमोहन जी को भी याद करते हैं, जिन्होंने उनके लिए बुरे वक्त में राहत पहुंचवाई। वो जानते हैं कि अब वो कभी घाटी नहीं लौट पाएंगे। लेकिन धारा 370 हटाकर मोदी सरकार ने उनके जख्मों पर कुछ मरहम जरूर लगाया। इसलिए उन्हें इस फिल्म से बहुत उम्मीद थी कि ये उनके ऊपर हुए अत्याचारों को विस्तार से दिखाएगी। 

यह फिल्म कम शब्दों में बहुत कुछ कह देती है
हर फिल्मकार का कहानी कहने का एक अपना अंदाज होता है, कोई मकसद होता है। विधु विनोद चोपड़ा ने ‘शिकारा’ फिल्म बनाकर इस दुर्घटना पर कोई ऐतिहासिक फिल्म बनाने का दावा नहीं किया है। जिसमें वे ये सब दिखाने पर मजबूर होते। उन्होंने इस ऐतिहासिक दुर्घटना के परिप्रेक्ष्य में एक प्रेम कहानी को दिखाया है। जिसके दो किरदार उन हालातों में कैसे जीए और कैसे उनका प्रेम परवान चढ़ा। उस दृष्टि से अगर देखा जाए, तो ‘शिकारा’ कम शब्दों में बहुत कुछ कह देती है। माना कि उस आतंक भरी रात की विभीषिका के हृदय विदारक दृश्यों को विनोद ने अपनी फिल्म में नहीं समेटा, पर उस रात की त्रासदी को एक परिवार पर बीती घटना के माध्यम से आम दर्शक तक पहुंचाने में वे सफल रहे हैं। 

इन विपरीत परिस्थितियों में भी कोई कैसे जीता है और चुनौतियों का सामना करता है, इसका उदाहरण है ‘शिकारा’ के मुख्य पात्र जो हिम्मत नहीं हारते, उम्मीद नहीं छोड़ते और एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका को निभाते हुए, उस कड़वेपन को भी भूल जाते हैं जिसने उन्हें आकाश से जमीन पर पटक दिया। फिल्म के नायक का अपनी पत्नी के स्वर्गवास के बाद पुन: अपने गांव कश्मीर लौट जाना और अकेले उस घर में रहकर गांव के मुसलमान बच्चों को पढ़ाने का संकल्प लेना हमें अब जरूर काल्पनिक लगता है, क्योंकि आज भी कश्मीर में ऐसे हालात नहीं हैं। 

कश्मीरी पंडित घाटी में फिर लौट सकें, इसके लिए माहौल बनाया जाएगा
पिछले दिनों नागरिकता कानून को लेकर देशव्यापी जो धरने, प्रदर्शन और आंदोलन हुए हैं, उनमें एक बात साफ हो गई कि देश का बहुसंख्यक हिन्दू समाज हो या अल्पसंख्यक सिख समाज सभी वर्गों से खासी तादाद में लोगों ने मुसलमानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर  समर्थन किया। यह अपने आप में काफी है कश्मीर घाटी के मुसलमानों को बताने के लिए कि जिन हिन्दुओं को तुमने पाकिस्तान के इशारे पर अपनी नफरत का शिकार बनाया, जिनकी बहू-बेटियों को बेइज्जत किया, जिनके घर लूटे और जलाए, जिनके हजारों मंदिर जमींदोज कर दिए, वे हिन्दू तुम्हारे बुरे वक्त में सारे देश में खुलकर तुम्हारे समर्थन में आ गए। कश्मीर के पंडित कश्मीर की घाटी में फिर लौट सकें, इसके लिए माहौल कोई फौज या सरकार नहीं बनाएगी। यह काम तो कश्मीर के मुसलमानों को करना होगा। 

उन्हें समझना होगा कि आवाम की तरक्की फिरका-परस्ती और जिहादों से नहीं हुआ करती। वह आपसी भाईचारे और सहयोग से होती है। मिसाल दुनिया के सामने है। जिन मुल्कों में मजहबी हिंसा फैलती है, वे गर्त में चले जाते हैं और लाखों घर तबाह हो जाते हैं। इसलिए ‘शिकारा’ फिल्म एक ऐेतिहासिक ‘डॉक्यूमैंट्री’ न होकर एक प्रेम कहानी है, जो एहसास कराती है कि नफरत की आग कैसे समाज और परिवारों को तबाह कर देती है। रही बात दुखद पलायन की, तो ‘शिकारा’ के बाद अब कोई और फिल्म निर्माता उन मुद्दों पर भी फिल्म बनाने को जरूर प्रेरित होगा।-विनीत नारायण
 

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