अपने ‘लक्ष्य’ से भटक रहा शिरोमणि अकाली दल

Edited By ,Updated: 28 Jun, 2020 04:04 AM

shiromani akali dal is deviating from its target

45 वर्ष पूर्व लगे आपातकाल के संदर्भ में पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के संघीय ढांचे के समर्थन में दिए गए बयान ने शिरोमणि अकाली दल (शिअद) को अतीत में झांकने का मौका दिया है तथा वर्तमान राजनीति में लोकतांत्रिक मान्यताओं को लग रहे धक्के...

45 वर्ष पूर्व लगे आपातकाल के संदर्भ में पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के संघीय ढांचे के समर्थन में दिए गए बयान ने शिरोमणि अकाली दल (शिअद) को अतीत में झांकने का मौका दिया है तथा वर्तमान राजनीति में लोकतांत्रिक मान्यताओं को लग रहे धक्के पर इनके स्टैंड के बारे में सोचने के लिए मजबूर किया गया है। बादल ने देश की पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत इंदिरा गांधी की ओर से 25 जून 1975 को लगाए गए आपातकाल के संदर्भ में कहा है कि संविधान में दर्ज धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के प्रति समानता की वचनबद्धता के बिना लोकतंत्र के लिए वचनबद्धता अर्थहीन है। लोकतंत्र के लिए सबसे पहले धर्मनिरपेक्षता होना लाजिमी है तथा इसी तरह धर्मनिरपेक्षता के लिए लोकतंत्र जरूरी है। 

ऐसे ही लोकतंत्र के लिए देश का संघीय ढांचा जरूरी है। उनके इन विचारों से कोई भी अलग राय नहीं रख सकता। मगर यहां पर बहुत से जटिल सवाल खड़े हो जाते हैं जिनका जवाब शिअद का नेतृत्व यदि नहीं देता तो लोगों में अपना विश्वास वह कैसे कायम रख सकेंगे। भविष्य स्पष्ट नहीं दिखाई दे रहा। इस संदर्भ में सबसे पहला सवाल तो आज पंजाब के किसानों के सामने एक विशाल दैत्य मुंह को खोल कर खड़ा है, वह यह है कि केंद्र सरकार द्वारा पास किए गए वे 3 अध्यादेश जिनके द्वारा सरकार ने कंट्रैक्ट फार्मिंग, खुला बाजार, जरूरी वस्तुओं की खरीद पर रोक या फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य से अपना मुंह फेर लिया है। उसके बारे में अकाली दल को स्पष्ट होकर सामने आना चाहिए। शिअद अपने लक्ष्य से भटक गई। 

यदि हम वर्तमान घटनाक्रम में अकालियों के स्टैंड की बात करें तो पिछले दिनों  मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की ओर से इन अध्यादेशों के विरोध में मत पास करवाने के लिए बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में अकाली दल का विरोध न दर्शाना, बल्कि केंद्र सरकार के समर्थन वाली भूमिका निभाना और विरोध के मत में भाजपा अकाली दल की ओर से हस्ताक्षर न करना यह सब क्या दर्शाता है? सुखबीर बादल यह कह रहे हैं कि वह उस प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा नहीं बनेंगे जिसमें मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के नेतृत्व में प्रधानमंत्री को इन अध्यादेशों को वापस लेने के लिए मिलेगा मगर वह केंद्र से इन अध्यादेशों के बारे में स्पष्टीकरण दिए जाने के लिए जरूर मुलाकात करेंगे। अब सवाल यह पैदा होता है कि आप किसकी आंखों में धूल झोंकना चाहते हो? 

संघीय ढांचे की बात करने वाले सीनियर बादल ने यदि अपनी लड़ाई को 1975 वाले समय में ले जाकर जांचना हो, तो सवालों के जवाब उनको नहीं आएंगे। इनकी पार्टी राजग में सांझीदार है तथा बहू केंद्रीय मंत्री है।  क्या ये लोग धारा 370 के तोड़े जाने का जवाब दे सकते हैं? क्या इन लोगों  को तब राज्य याद नहीं आए जब जी.एस.टी. लगाकर राज्यों को प्रताडि़त किया गया था। क्या जब मुस्लिम अल्पसंख्यक के सवाल पर संविधान में संशोधन का मामला आया था तब बादल सरकार सो रही थी? क्या अब बाजारीकरण का राज्य अधिकार छीन लेना संघीय ढांचे की पीठ में छुरा  घोंपना जैसा नहीं है? तुम जिन राज्यों की स्वायत्तता के लिए लडऩे वाले थे अब केंद्र की गोदी में बैठ कर उठने का नाम ही नहीं ले रहे। फिर गांवों में आप कौन-सा मुंह लेकर लोगों  के पास जाओगे? 

लॉकडाऊन : मुंह बंद कर बैठी राजनीतिक पार्टियां 
राजनीतिक पार्टियों के स्टैंड का मामला लॉकडाऊन के दिनों में ज्यादा गहराया है। किसी भी राजनीतिक नेता ने, या फिर किसी भी राजनीतिक दल ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई। कोई भी नेता सामने नहीं आया। यह रुझान देश की जनता के लिए बेहद घातक था। इस रुझान ने केंद्र सरकार की मनमर्जियों को और हवा दी है। विपक्ष का जिम्मेदारी से भागना भी घातक था। 

यहां तक कि वामदल भी चुप करके बैठे हैं। इनसे उम्मीद की जा सकती थी परन्तु कुछ भी हासिल न हो सका। लोग मरते रहे और किसी ने इनका हाथ नहीं थामा। केंद्र सरकार ने पहले तो लोगों को अंदर बंद कर दिया फिर उसके बाद उन्हें खुले में मरने के लिए अपने-अपने राज्यों में भेज दिया। जो कीमती जानें गईं, लोगों के दर्द उठे, लोग चीखे-चिल्लाए, उनकी किसी ने भी जिम्मेदारी नहीं ली। इस तरह उन्हें यतीम समझ कर छोड़ दिया गया।-हरफ हकीकी/देसराज काली

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