Edited By Pardeep,Updated: 08 Jul, 2018 04:05 AM
भीड़ दो तरह की होती है, एक जमीनी स्तर पर तथा दूसरी आभासी दुनिया में। दोनों की विशेषताएं एक जैसी होती हैं। भीड़ के सदस्य गुमनामी के आवरण में खुद को छिपा लेते हैं। वे ऐसा दिखाते हैं जैसे उन पर कोई अत्याचार हुआ हो या उन्हें चोट पहुंची हो। उनमें...
भीड़ दो तरह की होती है, एक जमीनी स्तर पर तथा दूसरी आभासी दुनिया में। दोनों की विशेषताएं एक जैसी होती हैं। भीड़ के सदस्य गुमनामी के आवरण में खुद को छिपा लेते हैं। वे ऐसा दिखाते हैं जैसे उन पर कोई अत्याचार हुआ हो या उन्हें चोट पहुंची हो। उनमें व्यक्तिगत तौर पर अपनी कार्रवाइयों तथा कहे गए शब्दों को अपनाने की हिम्मत नहीं होती। उन्हें विश्वास होता है कि वे एक दण्डमुक्त गणराज्य के नागरिक हैं।
गत 4 वर्षों के दौरान दोनों तरह की भीड़ में संख्या तथा आकार के लिहाज से वृद्धि हुई है। वास्तविक दुनिया में भीड़ों ने जीन्स पहने हुए लड़कियों तथा पार्क या बार में बैठे जोड़ों पर हमला किया है। उन्होंने अपने घर में मांस रखने के लिए अखलाक (दादरी, उत्तर प्रदेश) तथा अपने डेयरी फार्म में पशु ले जाते पेहलु खान (अलवर, राजस्थान) की हत्या कर दी। उन्होंने उना, गुजरात में दलित लड़कों को निर्वस्र करके उनकी पिटाई की। इस तरह के कई अन्य उदाहरण असम, झारखंड, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल आदि से भी हैं जहां भीड़ के शिकार आम तौर पर मुसलमान अथवा दलित या खानाबदोश थे।
हाल ही के महीनों में अफवाहों से उत्तेजित होकर भीड़ों ने ऐसे लोगों की हत्या कर दी जिन पर बच्चे उठाने वालों के तौर पर संदेह था। उनमें से एक सुकान्त चक्रवर्ती एक युवा व्यक्ति था जिसे सरकार ने त्रिपुरा में अफवाहों पर अंकुश लगाने के लिए साबरूम में नियुक्त किया था। आभासी जगत में भीड़ें बहुत अलग नहीं होतीं। उनका एक नाम होता है-ट्रोल्स। वे असहिष्णु, उद्दंड, अश£ील तथा ङ्क्षहसक होती हैं। उनके हथियार नफरतपूर्ण भाषण तथा फर्जी खबरें होती हैं। वे सभी शायद हत्या नहीं करते मगर मुझे संदेह है कि उनमें से बहुत सी वास्तविक दुनिया में ङ्क्षहसक भीड़ का हिस्सा होते हैं जिस कारण ऐसा करने में उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं होती।
अकेली मिस स्वराज
ऐसी ही एक भीड़ ने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पर हाल ही में हमला बोला। वह सार्वजनिक जीवन में आने से ही भाजपा (और इसकी पूर्ववर्ती जनसंघ) की सदस्य हैं। वे शिक्षित, आधुनिक तथा स्पष्टवादी हैं। वे भाजपा की एक आदर्श हिन्दू भारतीय महिला की अपनी छवि की पहचान बनाने के लिए विशेष ध्यान रखती हैं। उन्होंने कई चुनाव जीते हैं। 2009-2014 के दौरान वे लोकसभा में विपक्ष की नेता थीं, जो एक ऐसा पद है जिससे एक संसदीय लोकतंत्र में उनकी पार्टी द्वारा चुनाव जीतने की सूरत में वह प्रधानमंत्री पद के लिए एक स्वाभाविक चुनाव होतीं।
भाजपा ने 2014 में चुनाव जीता मगर अभूतपूर्व ऊर्जा तथा राजनीतिक कौशल वाले एक बाहरी व्यक्ति ने पहले ही पार्टी का नेता और बाद में प्रधानमंत्री बनने के लिए अपना रास्ता तैयार कर लिया। स्वराज ने एल.के. अडवानी के साथ नरेन्द्र मोदी के उत्थान को रोकने का प्रयास किया मगर हार गईं। चुनाव के बाद सुषमा ने नई सरकार में एक सम्मानित स्थान पाने के लिए अकेले लड़ाई लड़ी और अन्तत: उन्हें विदेश मंत्री के तौर पर जगह दे दी गई मगर विदेश नीति में उनकी अधिक नहीं चली जिसका पूरा नियन्त्रण प्रधानमंत्री कार्यालय ने संभाल लिया।
स्वराज ने अपनी नई भूमिका खोजी
चतुर सुषमा स्वराज ने अपने लिए एक नई भूमिका पैदा कर ली-ऐसे गरीब लोगों की हितैषी बनकर जो विदेश में फंसा हो या उसे अपहृत/कैद में रखा गया हो अथवा पासपोर्ट/वीजा देने से इन्कार कर दिया गया हो या फिर उसे किसी भारतीय विश्वविद्यालय /अस्पताल में दाखिले की जरूरत हो आदि। प्रत्यक्ष तौर पर ऐसे अच्छे काम करने वाले किसी व्यक्ति की जरूरत थी और ऐसा दिखाई देता है कि लोग उनके इस व्यवहार से प्रेम करते हैं। इसने विपक्षी दलों के साथ झगड़े से बचने के लिए भी उनकी मदद की।
अचानक नियमित रूप से किए जाने वाले दयालुता के उनके एक काम ने उन्हें संकट में डाल दिया। अलग-अलग धर्मों वाले एक जोड़े को अपने पासपोर्ट मिलने में कठिनाई हो रही थी और उन्होंने अपनी परेशानी को लेकर ट्वीट किया। सुषमा स्वराज या उनके किसी स्टाफ सदस्य ने इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पासपोर्ट अधिकारी को उन्हें उनके पासपोर्ट जारी करने के निर्देश दिए। कथित रूप से जिस अधिकारी ने पासपोर्ट्स जारी करने से मना किया था, उसका स्थानांतरण कर दिया गया और उसके खिलाफ जांच अभी लंबित है।
संभवत: यह एक अति-प्रक्रिया थी मगर निश्चित तौर पर इसके पीछे कोई दुराभाव नहीं था। इसके बाद तो जैसे ट्विटर जगत में भूचाल आ गया। सुषमा स्वराज को इतना ट्रोल किया गया जितना पहले किसी भाजपा नेता को नहीं किया गया था। यह स्वाभाविक बन गया है कि ट्रोल्स उसी ‘सेना’ से संबंधित थे जो नियमित तौर में विपक्षी नेताओं के खिलाफ अपना गुस्सा निकालती है। जिस किसी ने भी स्वाति चतुर्वेदी की ‘आई एम ए ट्रोल’ पढ़ी है, जानता है कि वे कौन हैं और कैसे उनकी धन से मदद की जाती है। सुषमा की गलती यह थी कि उन्होंने तब तक ट्रोल आर्मी पर ध्यान नहीं दिया जब तक वह खुद उसका निशाना नहीं बन गईं।
झटका तथा चुप्पी
सुषमा स्वराज ने शिकार की भूमिका निभाने का निर्णय किया। उन्होंने कुछ ट्वीट्स को ‘लाइक’ किया, उन्हें रिट्वीट किया और वोट मांगे कि कितने लोग ट्रोल्स का समर्थन करते हैं। उन्हें तब हैरानी हुई जब, मेरे ख्याल में 57 प्रतिशत ने उनके साथ हमदर्दी जताई जबकि 43 प्रतिशत ने ट्रोल्स का समर्थन किया। इस कहानी का मुख्य बिन्दू यह है कि इस पूरे विवाद के दौरान एक भी सहयोगी मंत्री अथवा पार्टी पदाधिकारी ने ट्रोल्स की आलोचना में कोई वक्तव्य जारी नहीं किया। कई दिन बाद गृह मंत्री ने खुलासा किया कि उन्होंने सुषमा स्वराज से बात की थी और उन्हें बताया था कि ट्रोल्स ‘गलत’ थे तथा उन्हें गंभीरतापूर्वक नहीं लेना चाहिए।
स्वाभाविक है कि ट्रोल्स नए ‘प्रचारक’ हैं, उन्हें एक-दो नेताओं के हितों की पूॢत के लिए जारी किया जाता है जिनमें से कई को वरिष्ठ भाजपा नेता ‘फालो’ करते हैं और कोई भी उनका विरोध करने का साहस नहीं करेगा। श्रीमान गृह मंत्री, क्या वास्तव में हमें ट्रोल्स को गंभीरतापूर्वक नहीं लेना चाहिए? उसी पैमाने से, मैं समझता हूं कि हमें नैतिक पुलिस, लव जेहादियों, गौरक्षकों तथा मार डालने वाली भीड़ों को भी गंभीरतापूर्वक नहीं लेना चाहिए। ट्रोल्स तथा सोशल मीडिया पर गाली-गलौच हमारे समाज, कानून व्यवस्था तथा न्याय प्रदाता प्रणाली में एक नई गिरावट का संकेत है। शाब्दिक ङ्क्षहसा, विशेषकर मृत्यु अथवा दुष्कर्म की धमकियों से निपटने के लिए शब्दों की नहीं, कार्रवाई की जरूरत है। दुर्भाग्य से इस तरह की कोई कार्रवाई दिखाई नहीं देती, यहां तक कि शब्द भी नहीं जिन्हें तुरन्त तथा ईमानदारीपूर्वक उन लोगों द्वारा कहा गया हो, जो उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे हैं।-पी. चिदम्बरम