बढ़ते अपराधों से असंतुलित होता समाज

Edited By ,Updated: 05 Dec, 2022 05:20 AM

society becomes unbalanced due to increasing crimes

किसी भी समाज में अपराध का बढऩा समाज में असंतुलन की स्थिति पैदा करता है। इसलिए भारत में बढ़ती अपराध की दर चिंता का कारण बनती जा रही है। ऐसा नहीं कि हमारे देश में अपराध रोकने के लिए कोई कानून नहीं है या अपराधियों को सजा देने के नियम नहीं हैं, पर यह कह...

किसी भी समाज में अपराध का बढऩा समाज में असंतुलन की स्थिति पैदा करता है। इसलिए भारत में बढ़ती अपराध की दर चिंता का कारण बनती जा रही है। ऐसा नहीं कि हमारे देश में अपराध रोकने के लिए कोई कानून नहीं है या अपराधियों को सजा देने के नियम नहीं हैं, पर यह कह सकते हैं कि संभवत: लोगों में कानून का भय समाप्त हो चुका है। आज संपूर्ण समाज विलासिता और आराम के साथ जिंदगी जीना चाहता है। इसके लिए इंसान को पैसा चाहिए। पैसा पाने के लिए वह अपराध करने में जरा भी नहीं हिचकता। अधिकांश अपराधों के पीछे पैसा ही है। 

हत्याएं, लूट व चोरियां लोग पैसा पाने के लिए कर रहे हैं। यह अलग बात है कि वह अपराधों से कमाए पैसे का उपयोग भी कर पाता है या नहीं। आज महंगाई का दौर है। बिना पैसे के कोई समस्या हल नहीं हो पाती। दूसरी बात यह भी है कि समाज में आर्थिक विषमता बढ़ रही है। कुछ लोगों के पास बेहिसाब धन है तो कुछ को रोटी की भी परेशानी है। पढ़े-लिखे लोगों के पास काम नहीं है। ऐसी स्थितियां आ गई हैं कि या तो व्यक्ति अपराध करे या फिर आत्महत्या। उसे जो रास्ता समझ में आता है, वह चुन रहा है। 

वैसे तो हमारे संविधान में लिखा है कि कानून की नजर में सभी समान हैं, लेकिन क्या वास्तव में यह सिद्धांत मूर्त रूप ले पाया है? हाल ही में जारी राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2021 में महिलाओं के विरुद्ध प्रति घंटे उनचास अपराध दर्ज किए गए। यानी एक दिन में औसतन 86 मामले दर्ज किए गए। महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में बलात्कार, हत्या के साथ बलात्कार, दहेज, तेजाब हमले, आत्महत्या के लिए उकसाना, अपहरण, जबरन शादी, मानव तस्करी, आनलाइन उत्पीडऩ जैसे अपराध शामिल हैं। 

समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखें, तो जब समाज में अपराध की दर असामान्य रूप से बढऩे लगती है तो इसका स्पष्ट अर्थ होता है कि उस समाज के नागरिकों में सामूहिक भावनाओं के प्रति प्रतिबद्धता बहुत कमजोर है। यह भी तथ्य है कि ऐसे समाज में प्रगति और परिवर्तन की संभावनाएं कम हो जाती हैं। अपराध के कारणों में हम निर्धनता, बेरोजगारी, गैरबराबरी, शोषण, सांप्रदायिकता, दंगे-फसाद आदि की चर्चा कर सकते हैं। 

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि बलात्कार स्त्रीत्व का अपमान तो है ही, एक अपराध भी है। इसे एक विरोधाभास ही कहा जा सकता है कि एक तरफ हम विश्व मंच पर महिला सशक्तिकरण, लैंगिक समानता तथा विकास कार्यों में महिलाओं की समान सहभागिता जैसे मुद्दों पर अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं या दिखावा कर रहे हैं, दूसरी तरफ महिलाओं के विरुद्ध बढ़ती हिंसा और दुव्र्यवहार के मामलों पर मौन संस्कृति के पक्षधर बने हुए हैं। 

विशेषज्ञ मानते हैं कि अश्लील विज्ञापनों और नग्न प्रदर्शनों ने समाज में व्यभिचार को बढ़ावा दिया है। हर व्यक्ति रातों-रात अकूत धन कमाना चाहता है, परिणामस्वरूप समाज में अपराध तेजी से बढ़ रहा है। संसाधनों का असमान वितरण, रोजगार के अवसरों की कमी, जाति और भाई भतीजावाद के आधार पर योग्यता की उपेक्षा आदि ऐसे पक्ष हैं, जो युवाओं/किशोरों को अपराध की ओर धकेलते हैं। आखिर यह कैसा समाज उभर रहा है जहां भावनाएं महत्वहीन या कहें कि अर्थहीन हो गई हैं। क्या भावना-रहित मानव की संकल्पना अस्तित्व में आ रही है। शायद हां, तभी मनुष्य मशीनों में भावनाएं ढूंढ रहे हैं और मनुष्य को मशीन में बदल रहे हैं। इसलिए अपराध करने वाला अपरिचित हो, इसकी संभावनाएं तुलनात्मक रूप से कम होती हैं। महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों में अधिकांशत: उनका अपना ही कोई नजदीकी या परिवार का सदस्य शामिल होता है (जैसे भाई, पिता, पुत्र, पति, ससुर, मित्र)। 

अपराध के मनोवैज्ञानिक कारण भी होते हैं। प्रेम में असफलता, सामाजिक जीवन असफलता, आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ होना, परिवार में उपेक्षा, समाज द्वारा बहिष्कार आदि जैसे अनेक कारण हैं जो व्यक्ति के जीवन को हीनता का बोध करते हैं। विद्वानों के बीच यह एक सामान्य ज्ञान है कि अपराध आम तौर पर सुरक्षा को कम करता हैं, सामाजिक व्यवस्था को बाधित करता है, अराजकता और भ्रम पैदा करता है, सामुदायिक सहयोग और विश्वास में बाधा डालता है और बड़े पैमाने पर लोगों और राष्ट्र दोनों के लिए गंभीर आर्थिक लागत पैदा करता है। अपराध किसी भी प्रकार का हो या किसी के प्रति भी हो हर स्थिति में समाज में विघटन और बिखराव ही उत्पन्न करता है। यह सच है कि अपराध को समाज से पूर्णत: समाप्त नहीं किया जा सकता, इसलिए जरूरी है कि राज्य, पुलिस, समाज और न्यायिक संस्थाएं प्रतिबद्धता के साथ अपनी भूमिका का निर्वाह करें।-प्रि. डा. मोहन लाल शर्मा
 

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